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Monday, 4 November, 2024
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BSP के लिए परीक्षा की घड़ी है UP पंचायत चुनाव, एक्सपर्ट्स बोले- मायावती को पहले एकांतवास से बाहर आना होगा

विधान सभा चुनावों से क़रीब एक साल पहले, मायावती के अचानक जाग उठने से, राजनीतिक दलों और पर्यवेक्षकों की निगाहें, फिर से उन पर लग गई हैं. उनके दिमाग़ में सवाल उठ रहा है, कि क्या वो वापसी कर सकती हैं.

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नई दिल्ली: राजनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ीं, और किसान तथा हिंदुत्व कथानक से ग़ायब- राजनीतिक विश्लेषक बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) सुप्रीमो मायावती को, आज इसी नज़र से देखते हैं. दलित लीडर को हाल में, किसी राजनीतिक चर्चा में कोई मज़बूत हस्तक्षेप करते, विरले ही देखा गया है, और उनकी सियासी गतिविधियां, अनियमित ट्वीट्स तक ही सीमित रही हैं.

लेकिन, उत्तर प्रदेश ज़िला और ग्राम पंचायत चुनावों से पहले, जिनका शेड्यूल इस महीने के अंत घोषित होने की संभावना है, दलित लीडर अपनी पार्टी की मौजूदगी का अहसास कराना चाह रही हैं. वो बीएसपी को-ऑर्डिनेटर्स के साथ बैठकें करके, उम्मीदवारों की लिस्ट तैयार कर रही हैं, और पार्टी की रणनीति पर चर्चा कर रही हैं. अगले विधान सभा चुनावों से क़रीब एक साल पहले, उनके अचानक जाग उठने से, राजनीतिक दलों और पर्यवेक्षकों की निगाहें, फिर से उन पर लग गई हैं. उनके दिमाग़ में सवाल उठ रहा है, कि क्या वो वापसी कर सकती हैं.

उनका सक्रिय रुख़ ऐसे समय सामने आया है, जब बीएसपी नेताओं तथा सामान्य कार्यकर्त्ताओं में मोहभंग बढ़ रहा है, क्योंकि 2019 लोकसभा चुनावों के बाद, मायावती परदे के पीछे चली गईं थीं, जहां उन्होंने पार्टी नेताओं से दूरी बना ली थी, और ट्विटर के ज़रिए सियासत कर रहीं थीं.

उसके बाद से बीएसपी के बहुत से प्रमुख चेहरे, विरोधी समाजवादी पार्टी (एसपी) में शामिल हो चुके हैं, और उत्तर प्रदेश में पर्यवेक्षकों का मानना है, कि विधान सभा चुनावों के नज़दीक आते आते, और अधिक दलबदल देखने को मिल सकता है.

आज जो स्थिति है, उसमें किसानों के विरोध प्रदर्शन से पश्चिमी यूपी हिला हुआ है, और बीएसपी मैदान से ग़ायब है. इस बीच, सभी पार्टियां, जिनमें एसपी, कांग्रेस, और राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) शामिल हैं, तीन विवादास्पद केंद्रीय कृषि क़ानूनों के खिलाफ आंदोलन के बाद, किसानों के साथ बैठकें करके, अपनी खोई हुई ज़मीन तलाशने की कोशिश कर रही हैं.

समाजवादी लीडर और लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर सुधीर पंवार ने कहा, ‘उनके रवैये से लगता है कि वो अभी भी, अपनी पारंपरिक 20 प्रतिशत वोट हिस्सेदारी पर भरोसा कर रही हैं. लेकिन पारंपरिक वोटर आधारित सियासत अब बदल गई है. आगामी चुनाव में, दो मुद्दे प्रमुख होंगे- राम मंदिर और किसान आंदोलन. बीएसपी इनमें से किसी पर भी, अपनी छाप नहीं डाल पाई है. इन दो मुद्दों के मिश्रण से, एक ओर बीजेपी है और दूसरी ओर एसपी है’.

पतन

अपनी पार्टी को बढ़ावा देने के लिए, अतीत में मायावती ने दलित-मुस्लिम या दलित-मुस्लिम-ब्रह्मण मिश्रण का सहारा लिया है. 2012 के यूपी विधान सभा चुनावों में, बीएसपी को तक़रीबन 26 प्रतिशत वोट मिले थे– जो 2007 के 30 प्रतिशत से कम थे, जब पार्टी ने असैम्बली में बहुमत हासिल कर लिया था. लेकिन 2017 में, ये प्रतिशत और नीचे गिरकर 22 पर आ गया.

पंवार ने दिप्रिंट से कहा, ‘उनका पतन 2012 में ही शुरू हो गया था. उसके बाद से वो जीत नहीं पाईं हैं. उनका ग़ैर-जाटव वोट शेयर भी खिसक गया है. 2019 लोकसभा चुनावों के दौरान, उन्होंने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन किया, और यादव तथा ओबीसी वोटों के साथ, 10 सीटें जीतने में सफल हो गईं. लेकिन वो अपने दलित वोट, अपने गठबंधन के सहयोगी को ट्रांसफर नहीं कर पाईं’.

2019 लोकसभा चुनावों में बीएसपी का वोट शेयर 19.3 प्रतिशत रहा, जिसमें अधिकतर दलित थे.

पंवार ने आगे कहा, ‘जब वो एसपी से अलग हुईं, तो मुसलमानों ने उनके ऊपर और ज़िम्मेदारी लाद दी. वो मुस्लिम एकजुटता को खो चुकी हैं, इसलिए अब वो ओवैसी (हैदराबाद स्थित एआईएमआईएम) के साथ आने की कोशिश कर रही हैं, जहां इस वोट बैंक को सुरक्षित किया जा सकता है. लेकिन दलित और मुसलमान जीतने की क्षमता के साथ जाते हैं. इन दोनों को सत्ता में हिस्सेदारी चाहिए’.


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‘मायावती राजनीतिक अलगाव में हैं, लेकिन वापसी कर सकती है’

अजय बोस, जिन्होंने मायावती की राजनीतिक जीवनी लिखी है, पंवार से सहमत हैं. ‘बीजेपी पर उनके हमले बहुत हल्के हैं. इसकी बजाय, ये एक युवा और ऊर्जावान उभरते हुए दलित नेता, भीम आर्मी चीफ चंद्र शेखर आज़ाद हैं, जिन्होंने सीएए-एनआरसी जैसे राष्ट्रीय मुद्दे उठाए हैं, और जेल भी गए हैं’.

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की राजनीति शास्त्र की रिटायर्ड प्रोफेसर सुधा पई ने कहा, ‘वो राजनीतिक एकांतवास में चली गई हैं. वो सार्वजनिक रूप से पूरी तरह ग़ायब हैं. देशव्यापी सीएए-एनआरसी विरोध प्रदर्शन, किसान आंदोलन, और दलित उत्पीड़न जैसे बहुत से मुद्दे रहे हैं, लेकिन हमें उनकी आवाज़ ज़्यादा सुनाई नहीं देती. उनके अगले क़दम का कोई संकेत नहीं है. उन्हें ज़रूरत है कि दलित और मुसलमानों को वापस अपने साथ लाने के लिए, एक नई रणनीति लेकर आएं. लेकिन ऐसे में, जब राम मंदिर मुद्दा फिर से केंद्र में आ रहा है, और बीजेपी छोटी उप-जातियों को, ‘हिंदू साम्राज्य’ की विशाल भूमि में लाने की कोशिश कर रही है, मायावती के पास करने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं होगा’.

लेकिन, बीएसपी प्रवक्ता सुधींद्र भदौड़िया इस आलोचना को ख़ारिज करते हैं. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘उन्होंने (मायावती) ने हमेशा राजनीतिक पंडितों को ग़लत ठहराया है. वो फिर वापसी करेंगी’.

हालांकि बोस बीएसपी के विश्वास पर सवाल खड़े करते हैं.

‘मेरी किताब के संस्करण का पेपरबैक 2018 में बदल गया है. अब ये कहता है ‘मायावती का उत्थान और पतन’. दलितों की युवा पीढ़ी महत्वाकांक्षी है, और उसका मोहभंग हो चुका है. आज़ाद की बढ़ती लोकप्रियता से उन्हें होशियार हो जाना चाहिए. पिछली बार उन्होंने किसी दलित के लिए कब आवाज़ उठाई थी?

चंद्र शेखर आज़ाद की शुरू की हुई, आज़ाद समाज पार्टी भी इसी सवाल को उठा रही है. एक पार्टी प्रवक्ता ने दिप्रिंट से कहा, ‘आख़िरी बार वो संसद में रोहित वेमुला के लिए बोलीं थीं’. रोहित हैदराबाद यूनिवर्सिटी के दलित छात्र थे, जिन्होंने जनवरी 2016 में आत्महत्या कर ली थी.

वो मामला एक गर्मा गरम राजनीतिक मुद्दा बन गया था, जिसमें मायावती ने संसद के अंदर तत्कालीन शिक्षा मंत्री समृति ईरानी पर निशाना साधते हुए, ख़ुदकुशी की जांच कर रही न्यायिक कमेटी में, एक दलित सदस्य को रखने की मांग उठाई थी. मायावती ने ईरानी के इस्तीफे की भी मांग की थी.

लेकिन, एक वरिष्ठ बीएसपी नेता ने आज़ाद समाज पार्टी की काट करते हुए कहा, ‘बहन जी ने कभी आंदोलनकारी राजनीति नहीं की है. आज़ाद के अंदर क्षमता है, लेकिन जब तक बहन जी हैं, तब तक कोई दूसरा दलित लीडर नहीं हो सकता’.

पाई ज़ोर देकर कहती हैं बीएसपी के लिए ये एक अस्तित्व संबंधी संकट हो सकता है, लेकिन पार्टी के पुनर्जीवन की भी संभावना हो सकती है. ‘(मायावती को) अपने राजनीतिक एकांतवास से बाहर आने की ज़रूरत है’.


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