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Thursday, 25 April, 2024
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UP में मायावती की कम सक्रियता से दलित वोट बैंक पर सब की नज़र, अठावले ने BJP से मांगी 10 सीट

अखिलेश और प्रियंका गांधी पहले से ही दलित वोट बैंक पर निगाहें टिकाये बैठे हैं तो ओवैसी और चंद्रशेखर आज़ाद भी इसके लिए प्रदेश में खूब जोर आज़माइश कर रहे हैं.

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लखनऊ: भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की केंद्र में सहयोगी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया अब बीजेपी के साथ गठबंधन कर यूपी में खुद को मजबूत करने की कवायद में लगी हुई है. बीते शनिवार केंद्रीय मंत्री और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के प्रमुख रामदास अठावले ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात कर आरपीआई को प्रदेश में अलायंस पार्टनर बनाने का प्रपोजल दिया है.

आरपीआई प्रमुख अठावले ने दिप्रिंट से कहा कि वे यूपी में बीजेपी से 8 से 10 सीटें चाहते हैं. उन्होंने कहा, ‘इससे बीजेपी का भी लाभ होगा और उनकी पार्टी का भी.’

अठावले का तर्क है कि यूपी में आरपीआई के साथ बीजेपी के रहने से एक दलित सिंबल का साथ तो मिलेगा ही वहीं विपक्ष की ओर दलित वोट जाने से भी बचेगा. उन्होंने यह तक कह दिया कि अगर बीजेपी उन्हें सीट नहीं देती तो उनकी पार्टी 50 से अधिक दलित बहुल सीटों पर अकेले लड़ सकती है इससे बीजेपी का ही नुकसान होगा.

हालांकि उनकी पार्टी से जुड़े सूत्र बताते हैं कि ये अठावले का अपनी बात रखने का अंदाज है जिसके कारण वे चर्चा में भी रहते हैं लेकिन उनकी पार्टी यूपी की दलित बहुल सीटों को लेकर सीरियस है.

गोरखपुर में मार्च के तीसरे हफ्ते में कार्यकर्ता सम्मेलन को भी अठावले संबोधित करेंगे. पिछले छह महीनों में ये अठावले का यूपी का चौथा दौरा होगा.

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मायावती के विकल्प के तौर पर आरपीआई को खड़ा करने की कोशिश

एक पार्टी पदाधिकारी ने बताया कि वे यहां संगठन को मजबूत करना चाहते हैं. जल्द ही हर जिले में उनकी पार्टी की अपनी यूनिट होगी. उन्होंने कहा कि यूपी में 18 मंडल हैं जिनमें 16 मंडलों के प्रभारी घोषित किए गए हैं बाकि अप्रैल तक हर जिले में एक यूनिट होगी और प्रदेश स्तर का एक बड़ा कार्यक्रम करने की भी तैयारी है.

पार्टी पदाधिकारी के मुताबिक, ‘हम बीजेपी को अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं. यूपी में भी हमारे तमाम फॉलोअर्स हैं, उन्हें एकजुट करना चाहते हैं. वहीं जो वोटर बहन जी (मायावती) से छिटक रहा है उसे हम अपनी ओर खींच सकते हैं.’

अठावले की पार्टी से जुड़े सूत्रों के मुताबिक, मायावती के कम सक्रिय होने के कारण दलितों को एक बेहतर विकल्प की तलाश है और उनकी पार्टी ये काम कर सकती है.

आरपीआई के प्रदेश अध्यक्ष पवन गुप्ता के मुताबिक, आरपीआई यूपी में 2012 और 2017 में कुछ सीटों पर चुनाव लड़ी थी लेकिन कहीं जीतने में सफल नहीं रही लेकिन पार्टी इस बार बीजेपी के साथ अलायंस पार्टनर के तौर पर चुनाव लड़ना चाहती है.

पवन के मुताबिक, ‘इतिहास पर नज़र डालें तो 70 के दशक में चौधरी चरण सिंह की यूपी में सरकार के दौरान आरपीआई के 2 मंत्री और 19 विधायक थे लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेता डीपी मौर्य बाद में सबको लेकर कांग्रेस में शामिल हो गए.’

बता दें कि आरपीआई(ए), आरपीआई से अलग होकर बना दल है. 1999 में रामदास अठावले ने इसकी शुरुआत की थी.

दलित वोट पर सभी दलों की नज़र

अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले सभी दलों की नज़र दलित वोट बैंक पर है. इसका कारण मायावती का कम एक्टिव दिखना है. अखिलेश और प्रियंका गांधी पहले से ही इस वोट बैंक पर निगाहें टिकाये बैठे हैं तो ओवैसी और चंद्रशेखर आज़ाद भी इसके लिए प्रदेश में खूब जोर आज़माइश कर रहे हैं.

हालांकि भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर ने यूपी में अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं. उन्होंने ओम प्रकाश राजभर से हाल ही में दो बार मुलाकात जरूर की लेकिन उनके भागीदारी संकल्प मोर्चा में शामिल होने का औपचारिक ऐलान नहीं किया है.

पिछले दिनों दिप्रिंट से बातचीत में चंद्रशेखर आज़ाद ने इस बात की पुष्टि भी की थी कि यूपी को लेकर अभी निर्णय नहीं लिया गया है. 2022 में उनकी पार्टी यूपी में पूरे जोरशोर से चुनाव लड़ेगी लेकिन अभी ये तय नहीं कि किसके गठबंधन के साथ लड़ेगी.

चंद्रशेखर की पार्टी से जुड़े सूत्रों की मानें तो समाजवादी पार्टी और आरएलडी के गठबंधन से भी बातचीत होने की चर्चा है. पश्चिम यूपी में किसान आंदोलन के बाद आरएलडी मजबूत हो सकती है ऐसे में चंद्रशेखर ने राजभर के मोर्चा में शामिल होने का विचार कुछ दिनों के लिए टाल दिया है. चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी भी पश्चिम यूपी में अधिक सक्रिय है ऐसे में वे वहां के समीकरणों को ध्यान में रखते हुए ही अगला कदम उठाएंगे.

बसपा सुप्रीमो मायावती 2019 चुनाव के बाद से एक्टिव नहीं दिख रही हैं. हाल ही में उन्होंने मुनकाद अली को हटाकर भीम राजभर को प्रदेश का अध्यक्ष जरूर बनाया लेकिन जिस तरह बीएसपी के आधे विधायकों ने बगावत की है उससे अंदाजा लगाया जा रहा है कि पार्टी के भीतर सब ठीक नहीं हैं. मायावती भी लखनऊ से ज्यादा दिल्ली में रह रही हैं. ऐसे में अन्य दलों के पास दलितों को लुभाने का मौका है.


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दलित वोटर भी हो सकता है ‘कन्फ्यूज’

लखनऊ यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर कविराज की मानें तो इस बार दलित वोटर्स के लिए ये चुनाव ‘कन्फ्यूजिंग’ होने वाला है.

दिप्रिंट से उन्होंने कहा, ‘बीएसपी से उनका रुझान थोड़ा छिटका है, चंद्रशेखर की पार्टी अभी जमीन पर इतनी मजबूत नहीं, वहीं अठावले की पार्टी पर भरोसा इतनी जल्दी नहीं कर सकते लेकिन हां अगर वे बीजेपी के साथ गठबंधन कर के लड़ती तो जरूर उसे वोट मिल सकते है.’

‘दूसरी ओर सपा और कांग्रेस भी दलितों को लुभाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. बीजेपी सत्ता में रहकर तमाम कोशिशें कर ही रही है. ऐसे में किसी एक पार्टी विशेष की ओर अबकी बीजेपी चली जाए ऐसा मुश्किल दिखता है.’

मेरठ के चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर राजेंद्र कुमार पांडे का कहना है, ‘बीजेपी पश्चिमी यूपी में आज भी कमजोर नहीं मानी जाती. हां मायावती के एक्टिव नहीं दिखने से दूसरे दलों को दलित वोट बैंक में सेंधमारी की उम्मीद जरूर दिख रही है. ऐसे में हर दल जोर आज़माइश करता दिख रहा है.’

यूपी में दलित वोट बैंक के समीकरण

यूपी में दलितों की आबादी लगभग 21.5 प्रतिशत है. वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई सीटों पर दलित वोट बैंक निर्णायक भूमिका में है. प्रदेश में 85 सीटें अनुसूचित जाति (एससी) के लिए रिजर्व हैं. इन सीटों पर दलित निर्णायक हैं और दलितों को बीएसपी का वोटबैंक माना जाता रहा है लेकिन पिछले तीन-चार साल में ये वोट बैंक बीएसपी से छिटकता हुआ दिखा है.

राज्य की 85 रिजर्व सीटों पर 2012 में सपा ने 31.5 फीसदी वोट लेकर 58 और बसपा ने 27.5 प्रतिशत वोटों के साथ 15 सीटें जीती थीं. वहीं बीजेपी को 14.4 फीसदी वोट के साथ महज 3 सीटें मिली थीं.

2017 में नतीजे बिल्कुल उलट गए और 85 सुरक्षित सीटों पर 2017 के नतीजों में 69 सीटें भाजपा ने जीती. उन्हें 39.8 प्रतिशत वोट मिले. वहीं सपा को 19.3 फीसदी वोट और 7 सीट मिली जबकि बीएसपी सिर्फ 2 सीटें जीत पाई.


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