इंफाल: आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट (AFSPA) को राज्य से खत्म करने को लेकर जारी प्रदर्शन, इनर लाइन परमिट को लागू करने की मांग, अलगाववाद की ऐतिहासिक समस्या, जिसकी वजह से नवंबर में असम राइफल्स के कमांडिंग ऑफिसर और उनके परिवार की जान आतंकियों ने ले ली. इसकी वजह से मणिपुर सुर्खियों में है.
हालांकि, ये समस्याएं चुनाव लड़ रही पार्टियों के लिए चुनावी कैंपेन के मुख्य मुद्दे नहीं हैं. मणिपुर में सोमवार को पहले चरण का मतदान होना है. दूसरे चरण का मतदान पांच मार्च को होना है.
पूर्वोत्तर का यह राज्य 90 फीसदी पहाड़ी इलाकों से घिरा हुआ है. यहां सबसे बड़ी आबादी जनजातियों की है. इथनिक मेइताई समूह का यहां दबदबा है, जो कुल जमीन के 10 फीसदी हिस्सों में रहती है.
मेइताई समूह की कुल आबादी 53 फीसदी है. जनजातियों में मुख्य तौर पर नागा (24 फीसदी) और कुकी-जोमी (16 फीसदी) हैं. जनजातियों की कुल आबादी 41 फीसदी है.
मणिपुर की राजनीति की जमीन इन इथनिक समूहों के बीच के मतभेद की जमीन पर तैयार होती है. यहां की राजनीति अस्थिर है और दल-बदल यहां की राजनीति की संस्कृति है.
विकास के एक-से-एक बढ़कर दावे और राजनीति में धन-बल का दबदबा भी एक महत्वपूर्ण पहलू है.
राज्य में अलगाववादियों का लंबे समय से चल रहा है. विद्रोह के साथ ही इन विद्रोही गुटों के आपसी संघर्ष राज्य सरकार के फैसलों को प्रभावित करते हैं.
दिप्रिंट ने राज्य की चुनावी राजनीति को प्रभावित करने वाले उन कारणों की सूची बनाई है.
यह भी पढ़ें : मणिपुर में 52% हुआ वैक्सीनेशन, चुनाव वाले किसी भी राज्य की तुलना में तीसरी सबसे कम टीकाकरण दर
हिंसक विद्रोह और AFSPA
साल 1972 में राज्य की स्थापना होने के बाद से ही गुटों का विद्रोह राज्य की मुख्य समस्या रही है.
1960 के दशक के बाद अलगाववादी समूहों, यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (UNLF), पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कंगलीपाक (PREPAK) और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ मणिपुर (PLA) का उदय हुआ. इनका दावा है कि मणिपुर का भारत में विलय ‘जबरन’ किया गया. इसके अलावा, राज्य में जनजातीय आतंकी नागा और कूकी के विद्रोही समूह भी शामिल थे.
इनमें सबसे प्रभावशाली नागा समूह, नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (इसाक-मुइवाह) है. इसका जन्म, उत्तर पूर्व के नागा आबादी वाले क्षेत्रों में स्वशासन के लिए होने वाले नागा आंदोलनों से हुआ है. ये नागा के लिए एक संयुक्त होमलैंड ‘ग्रेटर नागालिम’ की मांग करते हैं. जिसमें असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर के नागा आबादी वाले क्षेत्र शामिल हैं.
इस समूह का मणिपुर के नागा बहुल पर्वतीय इलाकों, खासकर उखरुल में मजबूत पकड़ है. मणिपुर का सोमडाल गांव, NSCN (I-M) के महासचिव थिंगलिंग मुइवा सहित कई अलगाववादी नेताओं की जन्मभूमि है. सोमडाल टांगखुल नागाओं का गांव है.
राज्य में कूकी विद्रोह की शुरुआत 1950 के दशक में हुई जब कुकी नेशनल आर्मी (केएनए) का गठन किया गया. इसका उद्देश्य मेइताई और नागा दोनों के ‘आक्रमण’ से कूकी समुदाय के अधिकारों और हितों की रक्षा करना था.
साल 1949 में भारत के साथ विलय होने के बाद से ही, मणिपुर में इन समूहों के बीच हिंसक संघर्ष होते रहे हैं. इनमें 1990 के दशक में हुआ नागा-कूकी संघर्ष भी शामिल है.
साल 1980 में मणिपुर को ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर दिया गया और पूरे राज्य में AFSPA लागू कर दिया गया. इसके तहत सुरक्षा बलों को खास अधिकार दिए गए हैं.
सुरक्षा बलों पर इस एक्ट का कई मामलों में दुरुपयोग करने का आरोप लगा और यह एक्ट राज्य में कुख्यात हो गया. इनमें सबसे ज़्यादा आलोचना साल 1987 में सेनापति जिले में विद्रोह के खिलाफ की गई कार्रवाई ऑपरेशन ‘ब्लूबर्ड’ की हुई, जहां पर मर्दों को अपंग बना दिया गया, उन्हें यातनाएं दी गईं और औरतों के साथ बलात्कार किया गया’.
इसके बाद, कांग्रेस के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी के सत्ता में आने के बाद दो साल बाद, 2004 में 34 साल की महिला मनोरमा के साथ बलात्कार करने का मामला सामने आया. पैरामिलिट्री के जवानों पर इस घटना को अंजाम देने का आरोप लगा. इस घटना के विरोध में कांगला किले के सामने 12 महिलाओं ने नग्न होकर प्रदर्शन किया.
AFSPA को राज्य से हटाने की मांग लंबे समय से की जाती रही है. कांग्रेस, नागा पीपुल्स फ्रंट और नेशनल पीपुल्स पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में भी इसे हटाने की बात की गई है. लेकिन, बीजेपी के चुनावी घोषणा पत्र में इसके बारे में कोई जिक्र नहीं है. जिसकी आलोचना की जाती रही है.
बीजेपी ने इस चुनावी मौसम के दौरान कई बार इस मुद्दों की तरफ इशारा करते हुए, अपने प्रतिद्वंदियों को टारगेट करने की कोशिश की.
खबरों के मुताबिक, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा, ‘अलगाववाद और AFSPA हमेशा से महत्वपूर्ण मुद्दे थे.
हालांकि, हाल के दिनों में, हम उग्रवाद को न्यूनतम स्तर पर लाने में सफल रहे हैं जिससे राज्य में शांति और सामान्य स्थिति की स्थिति पैदा हुई है.’
कांग्रेस ने जवाब में कहा कि कांग्रेस के ओकराम इबोबी सिंह के शासनकाल में AFSPA को सात विधानसभा सीटों से हटा दिया गया था. इस शासनकाल में विद्रोह काफी बढ़ गए थे.
केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी पर्वतीय जिले चुराचांदपुर के अपने हाल के दौरे के दौरान बीजेपी के सत्ता में वापस आने पर आतंकी गतिविधियों को खत्म करने की बात कही. चुराचांदपुर में कई कूकी समूहों का जन्म हुआ है.
इसी जिले में पिछले साल नवंबर में घात लगाकर किए गए आतंकी हमले में असम राइफल्स के पांच जवानों सहित कमांडिंग ऑफिसर की पत्नी की मौत हो गई थी.
यह भी पढ़ें : दलबदल, असफल नेतृत्व, भरोसे की कमी-मणिपुर में कांग्रेस का ‘खुबक’ कैसे कमजोर होता चला गया
राजनीति में मेइताई का दबदबा
मणिपुर में 60 विधानसभा सीटें हैं. जिनमें 40 सीट घाटी क्षेत्र में पड़ते हैं. वही, पहाड़ी इलाकों में 20 सीटें है.
इसकी वजह से, राज्य की राजनीति में मेइताई का दबदबा है, क्योंकि घाटी क्षेत्र में इनकी संख्या सबसे ज़्यादा है. पहाड़ी और घाटी के बीच की खाई की मुख्य वजह भी यही है.
उदाहरण के लिए, 1963 के बाद से राज्य में चुने गए 12 मुख्यमंत्रियों में से सिर्फ़ दो मुख्यमंत्री यांगमाशो शाइजा और रिशांग केइशांग ही नागा जनजाति समूह से हैं.
साल 2017 के बाद से घाटी क्षेत्रों में आमतौर पर कांग्रेस को जीत मिलती रही है. कभी-कभी कांग्रेस की सहयोगी पार्टी मणिपुर पीपुल्स पार्टी को यहां पर जीत मिली है.
घाटी में नस्ल के प्रति लगाव, वोटिंग को मुख्य तौर पर प्रभावित करता है.
मेइताई में मुख्य तौर पर मेइताई हिन्दू, मेइताई सनमाही और मेइताई मुस्लिम हैं जिन्हे आमतौर पर पंग्ल कहा जाता है. मेइताई सनमाही, पारंपरिक मेइताई धर्म को मानते हैं. इनका अस्तित्व पूर्व राजशाही के हिन्दू धर्म स्वीकार करने से पहले से पहले से है.
रिसर्चर ओइनाम भगत और ए बिमोल एकोईजाम, 2002 में प्रकाशित अपने ‘विधानसभा चुनाव: ट्रेंड और मुद्दे’ में लिखते हैं, ‘मेइताइ के बीच धार्मिक अंतर का प्रभाव वोटिंग पैटर्न पर नहीं पड़ता है.’ इसके बावजूद, ‘घाटी में कुछ हद तक, एक ही नस्ल का उल्लेखनीय असर है और जहां पर किसी खास नस्ल के लोग एक ही कलस्टर (खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में) मे निवास करते हैं वहां पर नस्ली तौर पर करीबी परिवार के उम्मीदवारों को वोट देने का प्रचलन है.’
इंफाल के कुछ हिस्सों और ग्रामीण क्षेत्रों में, नस्ली तौर पर एक ही परिवार के सदस्य लेइकिस या एक ही साथ रहते हैं.
पिछले हफ्ते दिप्रिंट थाउबाल जिले के वांगखेम विधानसभा में पहुंचा था. यहां पर कांग्रेस की रैली थी, जहां पर उम्मीदवार के सामुदायिक तौर पर समर्थन का प्रदर्शन किया गया था. रैली के दौरान एक ही लेइकिस से आने वाली औरतें पंक्ति में चल रही थीं.
उनके पास चावल, फूल, फल और सब्जियों से भरी बांस की टोकरी थी. यह राजशाही के जमाने की परंपरा है, जिसे अथेनपोट थिम्बा कहा जाता है. इसका मकसद, उम्मीदवार के प्रति अपना समर्थन दिखाना होता है.
अकोईजम जेएनयू में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. उन्होंने दिप्रिंट से कहा कि पिछले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राज्य (आरएसएस) में 1950 के दशक से ही राज्य में सक्रिय है, लेकिन घाटी में मेइताई समुदाय के बीच उनकी सक्रियता हाल के कुछ सालों में बढ़ी है.
उन्होंने कहा, ‘हालांकि, मेइताई, धार्मिक पुनरुत्थानवादी (revivalists) लोगों का समूह है. ऐसे में वे ब्राह्मणवाद विरोधी संस्कार वाले हैं, यद्यपि आरएसएस एक ही समूह के तौर पर खुद को पेश करती है.’
उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं लगता है कि कट्टर हिन्दुत्व का प्रोजेक्ट यहां पर काम करेगा.’
मणिपुर में रिवाइवलिस्ट मूवमेंट 1944 में शुरू हुआ. इसका मकसद मेइताई के विरासत को बचाना और मेइताई पहचान को फिर से जीवित करना था.
जनजातीय राजनीति
पहाड़ी इलाकों में कांग्रेस का दबदबा, घाटी क्षेत्रों की तरह नहीं है.
साल 2015 में तीन कथित ‘एंटी-हिल’ बिल को पास किया गया. इनमें प्रोटेक्शन ऑफ मणिपुर पिपुल बिल, मणिपुर लैंड रेवेन्यू और लैंड रिफॉर्म (सातवां संशोधन), मणिपुर शॉप एंड एस्टेब्लिशमेंट (दूसरा संशोधन) शामिल हैं. ये बिल मेइताई समुदाय के नेतृत्व में चले प्रदर्शनों के बाद पास किए गए. मेइताई समुदाय इनर लाइन परमिट को लेकर सरकार से नाराज थे.
साल 2010 में कांग्रेस की ओकराम इबोबी सिंह सरकार ने SCN(I-M) नेता की मणिपुर में आने से रोक लगा दी थी, जिसको लेकर भी प्रदर्शनकारियों में नाराजगी थी.
पिछले विधानसभा चुनाव परिणाम से यह स्पष्ट है कि कांग्रेस राज्य में अब भी मुख्य दावेदार है.
पिछले चुनावों में पहाड़ी इलाकों की कुछ विधानसभा सीटें कांग्रेस और मणिपुर पीपुल्स पार्टी जैसी कांग्रेस की सहयोगी पार्टियां जीतने में कामयाब रही हैं. इसके साथ ही, नेशनल पीपुल्स पार्टी, नागा पीपुल्स फ्रंट और निर्दलीय उम्मीदवारों ने भी पहाड़ियों में जीत हासिल की है.
फिर, 2017 के विधानसभा चुनावों में, बीजेपी पहली बार पहाड़ी क्षेत्रों की पांच सीटें जीतने में सफल रही. वहीं, कांग्रेस को नौ सीटें मिलीं.
भगत और अकोईजाम अपने पेपर में कहते हैं, ‘आदिवासी पहचान पर आधारित समूहों ने पहाड़ी इलाकों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’
जेएनयू के एकोईजाम ने दिप्रिंट से कहा कि इन इलाकों में ‘भूमिगत समूहों’ का वोटिंग पर बड़ा असर होता है.
उन्होंने कहा, ‘मुख्य राजनीतिक पार्टियां भूमिगत ( समूह) के असर को दबा देती है, लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसा कर पाने में उतनी कामयाब नहीं रहती हैं. नागा आंदोलन को भूमिगत समूह चला रहे हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि उनका मुद्दा को जनसमर्थन भी मिल रहा हो.’
यह भी पढ़ें : BJP की सहयोगी, मणिपुर में प्रतिद्वंदी NPP के साथ गठबंधन को तैयार है कांग्रेस: पूर्व CM इबोबी सिंह
विकास का एजेंडा
विधान सभा चुनावों में भाग ले रही राजनीतिक पार्टियों ने मणिपुर में विकास का मुद्दा उठाया है.
राजनीतिक अस्थिरता, आतंकी संकट से उपजी परेशानियों के अलावा दुरूह पहाड़ी रास्ते के कारण राज्य का आर्थिक
ग्राफ काफी नीचे रहा है.
राज्य से जुड़े 2020-2021 में प्रकाशित आर्थिक सर्वे रिपोर्ट से पता चला है कि राज्य की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से कम है.
पहाड़ियों पर विकास न होने का एक खास कारण वहां सड़कों का अभाव और हेल्थकेयर सुविधा की कमी है, जो पहाड़-घाटी के विभाजन को और बढ़ा देती है.
पहाड़ियों को ज्यादा सहयोग देने के प्रयास में भाजपा ने पिछले साल सितंबर महीने में अपना गो टू हिल्स अभियान चलाया था. इसका उद्देश्य राज्य सरकार के फायदों को दूरदराज में रह रहे लोगों तक पहुंचाना था.
बीजेपी नेताओं ने अपने तमाम भाषणों में भी कहा है कि वे किस तरह से ‘पहाड़-घाटी के विभाजन’ को कम करने में लगे हैं.
अपनी रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह के नेतृत्व वाली ‘डबल-इंजिन’ बीजेपी सरकार ने किस तरह से मणिपुर जैसे ‘ब्लाकेड राज्य’ को अंतर्राष्ट्रीय कारोबार के लिए रास्तों से तैयार कर दिया है.
अपने भाषण में मोदी ने उस अनिश्चित आर्थिक ब्लाकेड का हवाला दिया जब यूनाइटेड नागा काउंसिल ने 2016 में लगाया था, इसके बाद ही सात नए जिलों की स्थापना हुई थी जिसको लेकर काफी विवाद हुआ था.
हालांकि, कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह ने अपनी रैलियों में भाजपा के विकास के दावों को गलत बताया है. उनका कहना है कि ज्यादातर प्रोजेक्टों की शुरुआत उनके कार्यकाल में वर्ष 2002 से लेकर 2017 तक की गई थी.
पैसे की ताकत और दलबदल
मणिपुर की राजनीति को रंगीन बनाने वाला दूसरा कारण, वहां के नेताओं का लगातार दलबदल करने का रहा है.
भगत और अकोइजाम ने अपने पेपर में लिखा है, ‘ पार्टी में भरोसे को लेकर आया बदलाव, व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से गठबंधनों का इधर-उधर होने की बात आज सामान्य और कठोर हो चुकी है.’ मणिपुर राज्य के 1972 में हुए गठन के बाद ऐसा पहली बार देखने को मिल रहा है. पेपर में लिखा है कि कम से आठ मुख्यमंत्रियों ने 18 मौकों पर अपने पाले बदले हैं.
पिछले पांच वर्षों में कांग्रेस बुरी तरह से दल बदल का शिकार हुई है, जिसके 28 में से 15 विधायक दूसरे दलों में चले गए.
विशेषज्ञों का मत है कि राज्य में जिस तरह के चुनावी राजनीतिक हालात हैं उसके सामने शायद ही कोई राजनीतिक सिद्धांत चल पाता हो.
इंफाल रिव्यू ऑफ आर्ट्स एंड पॉलिटिक्स के संपादक प्रदीप फानजाउबाम ने कहा कि आज ‘पैसा, व्यक्ति और बंदूक की संस्कृति’ महत्वपूर्ण हो चुकी है.
अकोइजाम ने कहा, ‘(इन चुनावों) में पैसा का असर काफी ज्यादा देखने को मिला है. इसका असर तगड़ा था और ऐसा कभी नहीं हुआ था. शुरुआत बीजेपी से हुई है जिसने काफी पैसा झोंका है, जिसको देखकर दूसरी पार्टियां ऐसा करने के लिए बाध्य हुई हैं.’
दिप्रिंट ने विधानसभा चुनावों के पहले राज्यव्यापी दौरा किया था जिसमें इस तरह की तमाम कमजोरियां देखने को मिलीं, जिनको बीजेपी के मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह की सरकार दूर करने में असफल
दिखी है.
लेकिन कांग्रेस अभी भी तैयार होने की स्थिति में नहीं दिखती, इसलिए कहा जा सकता है कि नेतृत्व में क्या बदलाव संभव हो सकेगा.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें : सबसे बड़े दल होने से लेकर BJP-समर्थित सरकार में शामिल होने तक, मेघालय में कैसे हुआ कांग्रेस का सफाया