नई दिल्ली: योगी सरकार में भाजपा विधायकों और मंत्रियों द्वारा भितरघात, सरकार और पार्टी के बीच तालमेल की कमी, राज्य सरकार के अधिकारियों का असहयोग, भाजपा उम्मीदवारों और मतदाताओं के बीच दूरी और दलित व ओबीसी वोटों का भाजपा से दूर होना, भाजपा के टास्क फोर्स के मुताबिक ये वे कारण हैं, जिनकी वजह से यूपी में बीजेपी की हार हुई. इस टास्क फोर्स में 40 नेता शामिल हैं. भाजपा आलाकमान के साथ साझा की गई यह रिपोर्ट यूपी की 80 लोकसभा में से 78 सीटों के दौरे के आधार बनाई गई है. टीम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के क्षेत्र लखनऊ का दौरा नहीं किया.
दिप्रिंट से बात करते हुए भाजपा के एक सूत्र ने कहा, “यूपी में पार्टी की हार पर रिपोर्ट, केंद्रीय इकाई के साथ साझा की गई है. रिपोर्ट में उद्धृत प्रमुख कारकों में विपक्ष के उस कैंपेन को बताया गया है जिसमें दावा किया गया था कि भाजपा सत्ता में आने पर ‘संविधान बदल देगी’, जिसकी वजह से दलित वोटों पार्टी से दूर हो गए. साथ ही बसपा भी मुस्लिम और दलित वोटों को काटने में विफल रही, जिससे बीजेपी को जीत हासिल करने में मदद मिल सकती थी और साथ ही मुस्लिम वोटों का सपा-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष एकजुट होना भी एक कारण है.”
रिपोर्ट प्रस्तुत होने के बाद पार्टी ने तुरंत कार्रवाई की है. इस सप्ताह की शुरुआत में, उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ ने उन निर्वाचन क्षेत्रों से 12 जिलाधिकारियों (डीएम) का तबादला कर दिया, जहां भाजपा लोकसभा चुनावों में सपा से हार गई थी. मंगलवार को हुए तबादलों में सीतापुर, बांदा, बस्ती, श्रावस्ती, कौशांबी, संभल, सहारनपुर, मुरादाबाद और हाथरस के डीएम शामिल हैं. इसके अलावा, कासगंज, चित्रकूट और औरैया के डीएम भी बदले गए हैं, जो क्रमशः एटा, बांदा और इटावा निर्वाचन क्षेत्रों के अंतर्गत आते हैं. ये बदलाव हाथरस को छोड़कर इन सभी निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा की हार को दर्शाते हैं.
अपनी समीक्षा बैठकों में, भाजपा के स्थानीय नेताओं ने शिकायत की कि “प्रशासन ने पार्टी का समर्थन नहीं किया, मतदान के दौरान बाधाएं पैदा कीं और भाजपा कार्यकर्ताओं को अपमानित किया”.
रिपोर्ट पर काम करने वाले पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा, “कई जगहों पर, पार्टी कार्यकर्ताओं ने शिकायत की कि भाजपा के विधायक और मंत्री पार्टी के खिलाफ काम करते हैं. सरकार और पार्टी के बीच इस तरह का अलगाव देखना आश्चर्यजनक है, जिसमें मंत्री उम्मीदवारों को कमतर आंकते हैं. जबकि स्थानीय स्तर पर पार्टी के अंदर भितरघात होना आम बात है, लेकिन वरिष्ठ स्तर पर यही बिना टॉप स्तर से इशारे के नहीं हो सकता. यहां तक कि कई जगहों पर नौकरशाही के उदासीन रवैये को भी हल्के में नहीं लिया जा सकता है.”
सहारनपुर लोकसभा सीट पर, भाजपा महासचिव गोविंद नारायण शुक्ला को पार्टी उम्मीदवार राघव लखनपाल की हार के पीछे के कारणों की जांच करने का काम सौंपा गया था. सूत्रों के मुताबिक, इनपुट देने के लिए बुलाए गए भाजपा कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि योगी सरकार के मंत्री कुंवर बृजेश सिंह और सहारनपुर नगर के भाजपा विधायक राजीव गुंबर ने लखनपाल के खिलाफ काम किया. कथित तौर पर, गुंबर के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत कई बूथों पर केवल 50 प्रतिशत मतदान हुआ, जबकि जिन क्षेत्रों में भाजपा के विधायक नहीं हैं, वहां मतदान अधिक हुआ. स्थानीय नेताओं ने जिला प्रशासन पर भाजपा बूथों पर अड़चनें पैदा करने और सपा बूथों को खुली छूट देने का आरोप लगाया.
सहारनपुर में भाजपा के एक नेता के अनुसार, पूर्व जिला मजिस्ट्रेट दिनेश चंद्र मौजूदा कांग्रेस सांसद इमरान मसूद के पुराने मित्र हैं. नेता ने कहा कि जिला इकाई द्वारा डीएम को स्थानांतरित करने के कई अनुरोधों के बावजूद अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई.
भाजपा नेता ने कहा, “चुनाव से पहले एक आंतरिक बैठक में जिला अध्यक्ष महेंद्र सिंह सैनी ने डीएम के तबादले का मुद्दा उठाया था. अगले दिन डीएम दिनेश चंद्र ने उन्हें बुलाया और पूछा कि वे उनका तबादला क्यों करवाना चाहते हैं. इसका साफ मतलब है कि हमारे बीच आस्तीन के सांप (गद्दार) हैं, जो डीएम को आंतरिक चर्चाओं के बारे में जानकारी दे रहे हैं.” उन्होंने कहा कि डीएम ने चुनाव के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं की मदद नहीं की.
मसूद ने भी हाल ही में उनके द्वारा राज्य में किए गए विकास कार्यों के लिए सीएम योगी की तारीफ की थी.
2024 के लोकसभा चुनावों में, यूपी में भाजपा की सीटें 2019 की तुलना में 62 से घटकर 33 पर आ गई हैं और उसके वोट शेयर में 7 प्रतिशत की गिरावट देखी गई. अगर विधानसभावार प्रदर्शन में इसे तब्दील किया जाए, तो भाजपा को संभवतः केवल 165 सीटें मिलेंगी, जो बहुमत के आंकड़े से 37 सीटें कम हैं, और सपा-कांग्रेस गठबंधन को संभवतः 222 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिलेगी.
यूपी भाजपा महासचिव गोविंद नारायण शुक्ला ने दिप्रिंट से कहा, “सभी सीटों पर आम बात यह रही कि दलित और ओबीसी वोटों का एक बड़ा हिस्सा सपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर चला गया.”
मुस्लिम समर्थन में बदलाव
सहारनपुर महानगर के भाजपा अध्यक्ष पुनीत त्यागी के अनुसार, बसपा के वोट बैंक का समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन की ओर जाना भाजपा के खराब प्रदर्शन के पीछे एक बड़ा कारक था.
उन्होंने कहा, “इसके अलावा, विपक्ष का यह अभियान कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो वह संविधान बदल देगी, ने भाजपा के दलित वोट पाने की संभावनाओं को कम कर दिया. हमने दलितों के कम से कम 60 प्रतिशत वोट खो दिए.”
आगे उन्होंने कहा, “देहात विधानसभा में, दलित वोटों में बदलाव और मुस्लिम वोटों के सपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर एकजुट होने के कारण मसूद के वोटों की संख्या 43,000 से बढ़कर 1.21 लाख हो गई. हालांकि भाजपा ने देहात में 2019 के अपने 70,000 वोटों की संख्या नहीं खोई, बल्कि इसे बढ़ाकर 77,000 कर दिया, लेकिन बसपा के सफाए और दलित वोटों के बदलाव ने हमारी स्थिति को काफी प्रभावित किया.”
सलेमपुर लोकसभा क्षेत्र में, भाजपा के मौजूदा सांसद रविंदर कुश्वाहा सपा के रमाशंकर राजभर से 3,573 मतों के मामूली अंतर से हार गए. उन्होंने योगी सरकार में मंत्री विजय लक्ष्मी गौतम और बलिया के भाजपा जिला अध्यक्ष संजय यादव पर उनके खिलाफ साजिश रचने का आरोप लगाया है. उन्होंने 2014 और 2019 में यह सीट जीती थी.
प्रेस कॉन्फ्रेंस में बोलते हुए उन्होंने कहा, “विजय लक्ष्मी ने एक दिन भी मेरे लिए प्रचार नहीं किया और संजय यादव और उनकी पूरी टीम ने मुझे हराने के लिए प्रचार किया.”
कौशाम्बी में भाजपा के मौजूदा सांसद विनोद कुमार सोनकर सपा के पुष्पेंद्र सरोज से हार गए. समीक्षा बैठक के दौरान उनकी हार का जो फैक्टर निकल कर सामने आया वह यह था कि मौजूदा सांसद के खिलाफ लोगों में काफी गुस्सा था. मौजूदा सांसद को टिकट देने के भाजपा के फैसले के साथ-साथ दलित वोटों का सपा की ओर जाना और राजा भैया के प्रभाव की वजह से राजपूतों वोटों का बीजेपी की तरफ से छिटकना, वे कारण थे जिसने भाजपा की जीत की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया.
2024 के चुनावों के लिए, भाजपा यूपी के कुंडा निर्वाचन क्षेत्र के कद्दावर नेता और विधायक रघुराज प्रताप सिंह (जिन्हें राजा भैया के नाम से जाना जाता है) का समर्थन पाने में विफल रही, क्योंकि उन्होंने घोषणा की थी कि लोगों को अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए. इसने संभवतः भाजपा का खेल बिगाड़ दिया.
कौशांबी भाजपा जिला अध्यक्ष धर्मराज मौर्य के अनुसार, पार्टी का ‘400-पार’ का अभियान भी उल्टा पड़ गया. दिप्रिंट से बात करते हुए उन्होंने कहा, “4 लाख दलित वोटों में से, कौशांबी में सपा को 3 लाख से अधिक वोट मिले. हमारे उम्मीदवार के खिलाफ राजा भैया के इशारे की वजह से हमें राजपूत वोटों का नुकसान हुआ और सपा को मदद मिली.
एक और महत्वपूर्ण कारक नौकरशाही की उदासीनता थी; हमारे कार्यकर्ता छोटी-छोटी समस्याओं के लिए भी सरकार द्वारा उपेक्षित महसूस करते थे, अक्सर उन्हें सीधे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से संपर्क करने के लिए कहा जाता था.”
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‘मौजूदा सांसदों को टिकट देना एक गलती थी’
33 मौजूदा सांसदों को मैदान में उतारने का भाजपा का दांव सांसदों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर और संगठन के भीतर मतभेद के कारण उल्टा पड़ गया, जिसके परिणामस्वरूप आठ बार की सांसद मेनका गांधी सहित 20 मौजूदा सांसदों को हार का सामना करना पड़ा.
प्रयागराज क्षेत्र में भाजपा ने प्रतापगढ़, इलाहाबाद, कौशांबी और फतेहपुर सहित सभी सीटें खो दीं. पार्टी केवल फूलपुर को बचाने में सफल रही, जहां भाजपा के मौजूदा विधायक प्रवीण पटेल ने सपा के अमर नाथ सिंह मौर्य को हराया.
प्रतापगढ़ में सपा के शिवपाल सिंह पटेल ने भाजपा के संगम लाल गुप्ता को 60,000 से ज़्यादा वोटों से हराया. फतेहपुर में सपा के नरेश चंद्र उत्तम पटेल ने भाजपा की निरंजनी ज्योति को 30,000 वोटों से हराया.
हार के बाद निरंजनी ज्योति ने कहा था, “कुछ लोग मोदी के मिशन में रोड़े अटका रहे हैं”, जो ऊंचाई पर बैठे लोगों की ओर से भितरघात किए जाने की ओर इशारा था. चुनाव से पहले स्थानीय नेताओं ने मांग की थी कि उनकी जगह किसी नए चेहरे को लाया जाए.
मुरादाबाद और संभल में भी भाजपा को जीत नहीं मिली. कैराना से हारे भाजपा के पूर्व सांसद प्रदीप कुमार ने कहा, “हम मुस्लिम, ओबीसी और दलित वोटों के सपा-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में एकजुट होने के कारण हारे. ओबीसी के समर्थन में बदलाव आगामी विधानसभा चुनावों के लिए चेतावनी संकेत है.”
बांदा लोकसभा सीट पर भाजपा दो कारणों से हारी – एक तो बसपा ने ब्राह्मण मयंक द्विवेदी को मैदान में उतारा, जिसने ब्राह्मण वोटों को विभाजित कर सपा की जीत सुनिश्चित की. भाजपा के मौजूदा सांसद आर.के. सिंह पटेल ने हार के लिए “पार्टी के पूर्व सांसदों और विधायकों” को दोषी ठहराया, लेकिन पार्टी की समीक्षा समिति ने बांदा में हार के पीछे कई कारणों की पहचान की, जिसमें सत्ता विरोधी लहर भी शामिल है.
पटेल ने दिप्रिंट से कहा, “न केवल दलित, बल्कि ओबीसी भी हमसे दूर हो गए और सपा की ओर चले गए. इसकी शुरुआत 2022 के विधानसभा चुनाव से हुई, लेकिन हमें लगा कि राम मंदिर हमें जीतने में मदद करेगा.”
“पार्टी ने ओबीसी और दलितों की अखिलेश की सोशल इंजीनियरिंग का प्रभावी ढंग से मुकाबला नहीं किया और न ही रोजगार और आजीविका के मुद्दों को संबोधित किया. हमारे लोग भितरघात और राम मंदिर के उत्साह पर अधिक ध्यान केंद्रित करते थे, जो काम नहीं आया.”
इस बीच, भाजपा के बांदा जिला अध्यक्ष संजय सिंह ने दिप्रिंट से कहा, “मौजूदा सांसदों को टिकट देना और नौकरशाही के खिलाफ मौजूदा कार्यकर्ताओं के असंतोष ने हार में बड़ी भूमिका निभाई. भाजपा कार्यकर्ताओं ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया; उन्होंने मोदीजी के लिए काम किया, लेकिन उन्हें लगा कि राज्य सरकार उनके साथ नहीं है, जिससे निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति उनकी नाराजगी बढ़ गई.”
2014 और 2019 में चंदौली से जीतने वाले भाजपा के महेंद्र नाथ पांडेय इस बार सपा के बीरेंद्र सिंह से हार गए. उन्होंने भी इस सीट पर पार्टी की हार के लिए विपक्ष के संविधान परिवर्तन अभियान और दलित वोटों के खिसकने को जिम्मेदार ठहराया.
सीतापुर लोकसभा क्षेत्र में, आरोप है कि योगी के मंत्रियों ने भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ काम किया. पार्टी की समीक्षा समिति ने राजेश वर्मा के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर पाई, जिन्होंने चार बार इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया है, और स्थानीय प्रभावशाली भाजपा नेता शिव कुमार गुप्ता ने वर्मा को नुकसान पहुंचाया और उनकी हार सुनिश्चित करने के लिए “पैसे भी खर्च किए”.
सीतापुर के एक पूर्व विधायक ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा, “प्रशासन ने भाजपा के अनुरोध के अनुसार मतदान की सुविधा प्रदान की, लेकिन योगी के मंत्रियों ने मौजूदा सांसद को हराने के लिए अन्य पार्टी के उम्मीदवारों का समर्थन किया और उन्हें धन भी मुहैया कराया. जाटव, जो आम तौर पर भाजपा को वोट देते हैं, संवैधानिक में बदलाव किए जाने के डर से कांग्रेस में चले गए और पासी लोग सपा-कांग्रेस गठबंधन में चले गए. यहां तक कि कई जगहों पर कुर्मी भी हमसे दूर चले गए. यह आश्चर्यजनक है कि सीएम को अपने मंत्रियों द्वारा भाजपा उम्मीदवारों को हराने के लिए काम करने की रिपोर्ट नहीं मिली.”
श्रावस्ती में, भाजपा ने नृपेंद्र मिश्रा के बेटे साकेत मिश्रा को मैदान में उतारा ताकि सपा से सीट छीन सके, इस उम्मीद के साथ कि बसपा 2019 की तरह वोट काटने वाली भूमिका निभाएगी. हालांकि, बसपा के कैडर और जाटव वोट सपा में चले गए और भाजपा के भीतर आंतरिक कलह ने पार्टी की संभावनाओं को और खत्म कर दिया. एक स्थानीय भाजपा नेता ने कहा कि, “मोदी से लेकर शाह, योगी और कई मुख्यमंत्रियों ने साकेत मिश्रा के लिए प्रचार किया, लेकिन उनके अलग-थलग व्यवहार ने भाजपा कार्यकर्ताओं को अलग-थलग कर दिया.”
मुजफ्फरनगर और अयोध्या में समीक्षा बैठकों के दौरान विवाद सामने आए. मुजफ्फरनगर में जाट बनाम राजपूत समीकरण देखने को मिले, जहां भाजपा नेता संगीत सोम ने हार के लिए उम्मीदवार संजीव बालियान को जिम्मेदार ठहराया. ऐसे ही अयोध्या में भी मौजूदा सांसद के खिलाफ काफी सत्ता विरोधी भावना थी, जिसने विभिन्न बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के कारण लोगों के अंदर और ज्यादा गुस्सा भर दिया.
उत्तर प्रदेश के एक पूर्व भाजपा मंत्री ने कहा, “पुलिस इंस्पेक्टर द्वारा भाजपा प्रवक्ता राजेश त्रिपाठी के अपमान का हालिया उदाहरण इस बात को दर्शाता है कि यूपी में किस तरह से बाबूगिरी चलती है. मतदान के दिन पुलिस ने पिछड़ी जाति के वरिष्ठ नेता और सपा नेता लालजी वर्मा, जो एक प्रमुख कुर्मी चेहरा हैं, के घर छापा मारा. मतदान के दिन जातिगत भावनाओं को जानते हुए भी ऐसे गैरजिम्मेदाराना फैसले कौन लेता है? इस तरह की कार्रवाइयों ने राजनीतिक प्रतिशोध और भाजपा की हार में वरिष्ठ नेताओं की संलिप्तता का संदेह पैदा किया. कुर्मी और अन्य ओबीसी हमारे खिलाफ हो गए.”
अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव में 10 कुर्मी उम्मीदवार मैदान में उतारे थे क्योंकि यादवों के बाद कुर्मी एक महत्वपूर्ण ओबीसी समूह है. ओबीसी के बीच सपा की गोलबंदी ने 37 सीटों पर उनकी जीत में योगदान दिया, जिसमें 20 सीटें ओबीसी उम्मीदवारों ने जीतीं.
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