नई दिल्ली: इस नवंबर की शुरुआत में एक वरिष्ठ पत्रकार ने ट्वीट किया था कि दिवंगत प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने कभी उनसे कहा था कि ‘हिंदुत्ववादी गुंडे’ हिंदू धर्म को एक अब्राहमिक धर्म में बदल रहे हैं’.
यह एक ऐसी टिप्पणी थी जो 2013 से बीजेपी की युवा शाखा, भारतीय जनता युवा मोर्चा (भाजयुमो) के उपाध्यक्ष रहे 34 वर्षीय वकील मधुकेश्वर देसाई को बहुत नागवार गुजरी.
Morarji Desai told me in the 1990s – that the Hindutva loonies are turning Hinduism into an Abrahamic religion of 1 God (Rama), 1 book (Ramayana), and 1 holy place (Ayodhya) – and they're wrong, he said. He was right, of course. (I mention that incident in my book, Offence). https://t.co/LEYG196hBP
— saliltripathi (@saliltripathi) November 8, 2021
मधुकेश्वर ने अपने द्वारा किए गए एक ट्वीट में इसका जवाब देते हुए कहा, ‘किसी भी किताब या कहानी को बेचने के लिए एक खास एजेंडे या सनसनीखेज बातों को मोरारजी भाई से जोड़ देना फैशनेबल हो गया है.’
जिस बात से बहुत से लोग अवगत नहीं हैं वह यह है कि मधुकेश्वर भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के परपोते हैं और ये युवा नेता इस तथ्य को इसी तरह रखना पसंद करते हैं.
It's become fashionable to attribute agenda or sensationalism to Morarji bhai to sell a book or story.
Here is a blog I wrote last year: https://t.co/qS030mDw5h
Here is a video of Morarji bhai speaking about Hinduism and democracy: https://t.co/ypVSi5rm6k https://t.co/SAfJuVIZDC
— Madhukeshwar Desai (@Madhukeshwar) November 10, 2021
दरअसल, युवा नेता देसाई जो अब एक दशक से भी अधिक समय से राजनीति में हैं वो अपनी खुद की राजनीतिक विरासत को कम कर के आंकने में गर्व महसूस करते हैं. मधुकेश्वर ने दिप्रिंट को बताया, ‘चाहे आपके परदादा कितने ही बड़े व्यक्तित्व हों आपको खुद ही बड़ा बनना होगा.’
एक और कारण जिसकी वजह से उन्होंने अपने पारिवारिक इतिहास के बारे में शोर नहीं मचाने का विकल्प चुना वह यह है कि उनके परदादा राजनीति में शामिल होने के लिए कभी उनकी प्रेरणा नहीं थे.
मधुकेश्वर कहते हैं ‘हालांकि वो एक अत्यंत महत्वपूर्ण राजनीतिक व्यक्ति थे फिर भी वह मेरे राजनीति में आने की वजह नहीं थे. मैं उनसे राजनीतिक रूप से ज्यादा व्यक्तिगत रूप से प्रेरित हूं.’
मधुकेश्वर ने इस बात को भी रेखांकित किया कि मोरारजी ने खुद राजनीतिक परंपरा को पारिवारिक वंशवाद के सहारे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बढ़ाना नापसंद करते थे. यह कुछ ऐसा विचार है जिसके बारे में उन्होंने पहले भी लिखा है. मधुकेश्वर ने टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने ब्लॉग में लिखा था कि मोरारजी का ‘बैटन’, उनके परिवार के लिए खास तौर पर सीमा से बाहर रखा गया था. यह बैटन (राजनैतिक परंपरा को आगे ले जाने का प्रतीक) चंद्रशेखर, सुब्रमण्यम स्वामी, लालकृष्ण आडवाणी, वाजपेयी और ऐसे ही कई गैर-कांग्रेसी नेताओं के लिए था…उनका मानना था कि एक लोकतांत्रिक संस्था के रूप में भारत कभी वंशवादी नहीं हो सकता.
शानदार जीवनवृत्त
मोरारजी देसाई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों के एक प्रमुख नेता थे और स्वतंत्रता से पहले उन्होंने बॉम्बे की प्रांतीय सरकार में एक मंत्री के रूप में काम किया था. जवाहरलाल नेहरू के साथ कभी भी सहज संबंध न होने के बावजूद, उन्होंने लगातार कांग्रेस सरकारों में विभन्न मंत्री पदों पर काम किया.
बेशक उन्हें 1969 में इंदिरा गांधी के साथ उनके मतभेंदों के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है जिसके बाद उन्होंने पार्टी में टूट का नेतृत्व किया और कांग्रेस (I; यानी इंदिरा) के खिलाफ एक राजनैतिक दावेदार के रूप में कांग्रेस (O; यानी ओल्ड) नाम से पार्टी शुरू की. आगे चलकर वह इंदिरा के सबसे कटु आलोचक बन गए और 1975 में आपातकाल की घोषणा के बाद उन्हें लगभग दो साल तक जेल में रहना पड़ा. 1977 में अपनी रिहाई के बाद उन्होंने जनता पार्टी, इंदिरा का विरोध करने के लिए एकजुट हुए राजनीतिक दलों के गठबंधन का नेतृत्व किया और उसी साल एक शानदार चुनावी जीत में भी इसका नेतृत्व किया. यह गठबंधन सरकार अल्पकालिक अवधि वाली थी और मोरारजी ने 1979 में प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया लेकिन सत्ता में रहने के अपने दो सालों के दौरान उन्हें भारत-पाकिस्तान संबंधों में सुधार का श्रेय दिया गया और यहां तक कि उन्हें 1986 में पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार निशान-ए-पाकिस्तान से भी सम्मानित किया गया.
हालांकि मोरारजी के बेटे कांति देसाई एक विवादास्पद व्यक्ति थे जिन्होंने सत्तर के दशक के अंत में काफी सुर्खियां बटोरीं. मगर कई सारे प्रस्तावों के बावजूद वह कभी राजनीति में शामिल नहीं हुए क्योंकि उनके पिता ने इसके लिए स्पष्ट रूप से मना किया था. परिवार के बाकी लोग भी राजनीति से दूर रहे जब तक कि मधुकेश्वर ने यह फैसला लेने का साहस नहीं किया.
अपने परिवार को ‘काफी अधिक निजता पसंद’ बताते हुए देसाई ने कहा कि जब उन्होंने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने का फैसला किया तो उन्हें काफी कम उत्साहित प्रतिक्रिया मिली. हालांकि, उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि यह एक ऐसा कदम था जिसके बारे में उनके परिवार ने पहले ही अनुमान लगा लिया था.
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परिवार का ‘कांग्रेस विरोधी रवैया‘
मधुकेश्वर के अनुसार, उनका राजनीतिक झुकाव काफी कम उम्र से ही स्पष्ट हो गया था. वो कहते हैं, ‘एक स्कूली छात्र के रूप में मुझे हमेशा अखबार के राजनीति वाले सेक्शन में दिलचस्पी रहती थी न की खेल वाले भाग में. मैंने स्कूल में हेड बॉय बनने के लिए भी तगड़ी लड़ाई लड़ी. यहां तक कि क्राइस्ट यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज में भी मैंने एक छात्र संगठन शुरू करने के लिए लोगों का एक छोटा समूह बनाया था.’
2010 में, जब वह अपने जीवन के बीस के दशक के शुरुआती दिनों में थे. मधुकेश्वर ने लाल कृष्ण आडवाणी के साथ काम करना शुरू किया और उनके भाषणों में उनकी मदद की. 2011 में वह आडवाणी के साथ उनकी जन चेतना यात्रा पर भी गए जिसके दौरान उन्होंने 45 दिनों में 20 राज्यों का दौरा किया.
2012 में मधुकेश्वर को ‘नरेंद्र भाई’ द्वारा व्यक्तिगत रूप से बुलाया गया और उन्हें दक्षिण गुजरात में बीजेपी के संदेश को फैलाने के लिए आदिवासी गांवों की यात्रा करने का काम सौंपा गया. उन्होंने 2013 में औपचारिक रूप से राजनीति में प्रवेश किया, जब उन्हें सीधे भाजयुमो के उपाध्यक्ष के पद पर पदोन्नत किया गया.
यह पूछे जाने पर कि क्या उन्होंने कभी भी कांग्रेस, वह पार्टी जिसमें में उनके परदादा ने अपना राजनीतिक जीवन स्थापित किया उसमें शामिल होने पर भी विचार किया था. मधुकेश्वर मजाकिया अंदाज में कहते हैं, ‘अगर आप आज के दिन एक युवा व्यक्ति हैं तो आप काम करते समय अपने ऊपर कोई ग्लास सीलिंग (अवरोध वाली सीमा रेखा) नहीं चाहते हैं. आप एक वैचारिक आधार चाहते हैं. आप जानना चाहते हैं कि पार्टी के भीतर एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होगी. आप जानना चाहते हैं कि वहां आपका ख्याल रखा जाएगा. कांग्रेस में इस सब के लिए कोई जगह नहीं है.’
उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि बीजेपी ऐसे समय में भी उनकी पसंद रही है जब उसे आज की तरह का बहुमत हासिल नहीं था.
यह पूछे जाने पर कि क्या कभी उनके परिवार ने उन्हें कांग्रेस की ओर जाने के लिए प्रेरित करने की कोशिश की. इसपर मधुकेश्वर का स्पष्ट सा जवाब था ‘केवल एक चीज जिसके बारे में मेरा परिवार काफी हद तक राजनीतिक है वह है उनकी कांग्रेस विरोध की गहरी जड़ें.’
भविष्य की योजनाएं
मधुकेश्वर अब आठ साल से भी अधिक समय से भाजयुमो के उपाध्यक्ष बने हुए हैं लेकिन जब उनसे पूछा गया कि क्या उनकी चुनाव में खड़े होने की कोई योजना है तो उन्होंने इसके बारे में कोई प्रतिबद्धता व्यक्त नहीं की और कहा कि पार्टी जो भी फैसला करती है वह उसका ही पालन करेंगे. वो कहते हैं, ‘जब आप बीजेपी में शामिल होते हैं तो आपको अपनी ताकत के अनुसार काम करने की अनुमति होती है. व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से पहले सामूहिक बुद्धिमत्ता का स्थान होता है और वो आपका पूरा ख्याल रखते हैं.’
एक वकील के रूप में मधुकेश्वर के पास उन्हें राजनीति से भी ज्यादा व्यस्त रखने वाली चीजें हैं. वह मुंबई सेंटर फॉर इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन (एमसीआईए) के सीईओ हैं जिसे उन्होंने 2015 में स्थापित किया था. यह संगठन वाणिज्यिक विवादों को हल करने के लिए एक मध्यस्थता वाला मंच है.
मधुकेश्वर ने कहा, ‘इसमें मेरा बहुत सारा समय लग जाता है’. उनके अनुसार उनका करियर उनकी राजनीतिक भूमिका का पूरक है. वो बताते हैं, ‘अन्य पेशेवरों के साथ काम करने के दौरान किसी भी व्यक्ति का विभिन्न दृष्टिकोणों से सामना होता है. आप समझ सकते हैं कि भारत में पेशेवर होने का क्या मतलब है और इसलिए इसे ध्यान में रखते हुए ही राजनीति की ओर रुख़ कर सकते हैं.’
युवा नेता मधुकेश्वर, पादुकोण-द्रविड़ सेंटर फॉर स्पोर्ट्स एक्सीलेंस के कार्यकारी बोर्ड में भी हैं तो सवाल यह है कि वह अपनी इतनी सारी प्रतिबद्धताओं को कैसे पूरा करते हैं? इसका तेजी से जवाब देते हुए मधुकेश्वर ने कहा, ‘पार्टी (बीजेपी) मेरी पहली प्राथमिकता है, दूसरे नंबर पर मेरी पेशेवर भूमिका है और बाकी सब इसके बाद ही आता है.’
मुंबई में जन्मे मधुकेश्वर वहां अपनी पत्नी और बेटे के साथ रहते हैं और अपनी विरासत का हवाला देते हुए खुद को ‘मिट्टी का लाल’ बताते हैं.
वो कहते हैं, ‘मैं स्वयं एक गुजराती (उनके परदादा-परदादी की तरफ से), मराठी (उनकी दादी की तरफ से) और कन्नडिगा (उनकी मां की तरफ से) हूं और मेरी पत्नी एक पत्रकार है जो मलयाली है. इसलिए, पूरे देसाई परिवार ने समूचे पश्चिमी घाट पर कब्जा कर लिया है.’
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