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Friday, 19 September, 2025
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मायावती पर नरम, अखिलेश पर सख्त, योगी के साथ असहज: ओम प्रकाश राजभर की राजनीतिक चालबाज़ी

2017 में एसबीएसपी बीजेपी के साथ थी और राजभर मंत्री बने. 2019 लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने योगी कैबिनेट छोड़ दी और 2021 में अखिलेश का साथ लिया, लेकिन वो भी ज़्यादा नहीं चला.

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लखनऊ: उत्तर प्रदेश के मंत्री और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर, जो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सहयोगी हैं, इस समय सियासी हलकों में चर्चा का बड़ा कारण बने हुए हैं.

उनके वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हैं, जिनमें वे बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती की तारीफ कर रहे हैं. मायावती 9 अक्टूबर को लखनऊ से रैली कर पार्टी को फिर से मजबूत करने की तैयारी में हैं. ऐसे में राजभर के इन बयानों ने 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले उनके अगले कदम को लेकर अटकलें तेज कर दी हैं.

राजभर ने वायरल इंटरव्यू में कहा, “मायावती बहुत कुशल शासक थीं. आज भी लोग उनके शासनकाल के बारे में पूछते हैं और मैं उन्हें बताता हूं कि उनके समय में अधिकारी इतने अनुशासित थे कि हनुमान चालीसा तक पढ़ देते थे. किसी भी दलित बस्ती में जाइए, दस में से नौ लोग कहेंगे कि वे बसपा को वोट देते हैं.” उन्होंने आगे कहा कि मायावती के अचानक जिलों और गांवों के दौरे की वजह से अधिकारी हमेशा सतर्क रहते थे और इस वजह से पूरी नौकरशाही मिलकर तेज़ी से विकास कार्य करती थी.

राजभर की पार्टी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि उनके बयान हमेशा सोची-समझी रणनीति का हिस्सा होते हैं.

उन्होंने कहा, “वह कभी भी सारे दरवाजे बंद नहीं करना चाहते. कभी मायावती की तारीफ कर देते हैं, कभी स्थानीय अफसरों की लापरवाही दिखा देते हैं और कभी अखिलेश को निशाना बनाकर समाजवादी पार्टी को अपनी अहमियत याद दिलाते हैं. यह सब उनकी राजनीति का हिस्सा है.”

राजभर का यही रुख उनकी राजनीतिक यात्रा में भी झलकता है. 2017 में वे भाजपा के साथ थे, फिर 2022 विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाया और नतीजों के तुरंत बाद भाजपा-नीत एनडीए में लौट आए.

उनकी पार्टी के ही एक अन्य नेता का कहना है कि राजभर के हालिया बयान भविष्य में बसपा-एसबीएसपी गठबंधन का संकेत भी हो सकते हैं, अगर परिस्थितियां बनती हैं.

नेता ने बताया, “राजभर खुद बसपा की राजनीति से निकले हैं. वे दलित और अतिपिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के बीच नया सामाजिक समीकरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं. अगर यह फार्मूला 2027 तक टिकता है, तो देखना होगा किसे फायदा होता है और किसे नुकसान. अभी तो हम ज्यादा कुछ कह नहीं सकते, लेकिन हमें पता है कि हमारे नेता राजनीति को अच्छी तरह समझते हैं और मौजूदा हालात में सौदेबाज़ी करना जानते हैं.”

दिप्रिंट से बातचीत में राजभर ने कहा कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा. उनके बेटे और पार्टी प्रवक्ता अरुण राजभर ने भी उनका समर्थन किया और कहा, “जो भी मेरे पिता ने कहा है, वह सच है. उन्होंने कांशीराम जी और मायावती के साथ काम किया है, इसलिए उनकी राजनीति को अच्छी तरह समझते हैं.”

अरुण ने आगे कहा कि भाजपा के साथ गठबंधन का मतलब यह नहीं कि वे दूसरों की तारीफ नहीं कर सकते. उन्होंने कहा, “कम से कम हम अखिलेश की तो तारीफ नहीं कर रहे, जो मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं. अखिलेश तो लगातार मेरे पिता का अपमान करते रहते हैं. जनता 2027 में उन्हें फिर सबक सिखाएगी.”

इसी हफ्ते अखिलेश यादव ने राजभर पर तंज कसते हुए कहा कि वे उन्हें जन्मदिन के तोहफे में 100 रुपये भेज सकते हैं. राजभर ने पलटवार करते हुए कहा कि अखिलेश आठ साल से सत्ता से बाहर हैं, शायद इसी वजह से उनकी जेब ढीली हो गई है. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि समाजवादी पार्टी के शासन में प्रशासन पर यादवों का ही दबदबा रहता था.

भाजपा ने राजभर के इन बयानों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और इसे दबाव बनाने की उनकी रणनीति माना.

उत्तर प्रदेश भाजपा प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी ने कहा, “गठबंधन में कोई समस्या नहीं है. हम पूरी तरह एकजुट हैं. ओ.पी. राजभर या संजय निषाद जो भी कहते हैं, वह उनकी निजी राय है, गठबंधन से उसका कोई लेना-देना नहीं है.”

बसपा से भाजपा सहयोगी तक का सफर

ओम प्रकाश राजभर ने 1990 के शुरुआती दशक में अपनी राजनीति की शुरुआत बसपा से की थी. साल 2002 में उन्होंने अपनी पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) बनाई और तभी से उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ते आ रहे हैं.

उनका पहला गठबंधन भाजपा के साथ 2014 लोकसभा चुनाव में हुआ, लेकिन उन्हें कोई सीट नहीं मिली. 2017 में पहली बार वे बलिया की ज़हूराबाद सीट से विधायक बने. उस वक्त एसबीएसपी भाजपा के साथ थी और उसने जिन आठ सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें से चार पर जीत दर्ज की. इसके बाद राजभर को योगी सरकार में मंत्री बनाया गया.

2019 लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने योगी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. अक्टूबर 2021 में वे समाजवादी पार्टी के साथ आ गए. 2022 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी का प्रदर्शन 2017 से बेहतर रहा. उसे छह सीटें मिलीं—गाजीपुर की दो, और बलिया, मऊ, जौनपुर व बस्ती से एक-एक.

हालांकि, यह गठबंधन भी ज्यादा समय नहीं चला. जुलाई 2022 में मतभेदों का हवाला देकर उन्होंने सपा से नाता तोड़ लिया. करीब एक साल बाद वे फिर से एनडीए खेमे में लौट आए.

यूपी में राजभरों का महत्व

राजभर जाति उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पाई जाती है. पारंपरिक तौर पर यह मजदूर वर्ग मानी जाती रही है और आर्य समाज आंदोलन से प्रभावित रही है. उत्तर प्रदेश में इन्हें ओबीसी वर्ग में रखा गया है और इनकी सबसे ज्यादा आबादी राज्य के पूर्वी हिस्से में है.

लखनऊ यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर कविराज का कहना है कि उत्तर प्रदेश में गैर-यादव ओबीसी वर्ग में राजभरों की अहम हिस्सेदारी है. उन्होंने बताया कि गैर-यादव ओबीसी समुदाय जैसे कि कुर्मी, मौर्य, कश्यप, निषाद, राजभर, बिंद और प्रजापति—ये सभी पूर्वांचल में बड़ा असर रखते हैं.

इनमें राजभर करीब 30 सीटों पर निर्णायक प्रभाव रखते हैं. इसी तरह निषादों की भी बड़ी अहमियत है. ऐसे में लगातार सुर्खियों में बने रहना इन्हें हर राजनीतिक गठबंधन में ज्यादा सौदेबाज़ी की ताकत देता है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए क्लिक करें)


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