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Wednesday, 15 May, 2024
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‘नक्सली’ बताए गए 10,000 पत्थलगड़ी आंदोलनकारियों से हटेगा राजद्रोह का केस: झामुमो-आजसू

7 दिसंबर को अपने लिए सरकार चुनने के अधिकार का इस्तेमाल कर चुके ये आदिवासी देशभर में आंदोलनकारी या फिर नक्सली के नाम से पहचाने जा रहे हैं.

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खूंटी/रांची: झारखंड की राजधानी रांची से मुश्किल से 30 किलोमीटर दूर फैले खूंटी जिले में हरियाली, खेत, सुंदर पहाड़ों और फुटबॉल खेलते बच्चों के बीच पसरी हताशा और उदासी साफ नजर आती है. 7 दिसंबर को अपने लिए सरकार चुनने के अधिकार का इस्तेमाल कर चुके ये आदिवासी देशभर में आंदोलनकारियों या फिर नक्सलियों के नाम से पहचाने जा रहे हैं. आपको बता दें कि 2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड की जनसंख्या का करीब 26 फीसदी, आदिवासी समुदाय है.

वैसे, खूंटी जिला बिरसा मुंडा की धरती के नाम से भी जाना जाता है. चुनावी गठबंधन(कांग्रेस, राजद व झामुमों) के एक नेता दिप्रिंट को बताते हैं, ‘बिरसा मुंडा झारखंड के वो नायक हैं जिनका जिक्र आदिवासी विरोधी की छवि बना चुकी सत्ताधारी भाजपा पार्टी के केंद्रीय शीर्ष नेता भी अपनी रैलियों में कर रहे हैं. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी रैलियों में बिरसा मुंडा के नाम पर रघुवर दास के लिए वोट मांगते हैं लेकिन खूंटी में हुई पीएम मोदी रैली में पत्थलगड़ी आंदोलन का कोई जिक्र नहीं था. जिसकी चलते 10,000 आदिवासियों पर राजद्रोह के मुकदमें दर्ज हुए हैं.’

इन मुकदमों को लेकर चुनाव से पहले राहुल गांधी ने कहा था, ‘अगर किसी सरकार ने 10 हज़ार आदिवासियों पर राजद्रोह क़ानून लगाया है तो हमारे देश की अंतरात्मा हिल जानी चाहिए थी, मीडिया में तूफ़ान खड़ा हो जाना चाहिए था. नागरिक होने के नाते क्या हम इसे बर्दाशत कर सकते हैं.’

बता दें कि एक रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड पुलिस ने इस जिले के करीब 10,000 आदिवासियों पर भारतीय दंड संहिता 124ए के तहत राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया है. राजद्रोह के कानून में गिरफ्तारी के लिए वारंट की आवश्यकता नहीं होती है. कोई भी बोलकर या लिखकर या फिर शब्दों या संकेतों के माध्यम से भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना पैदा करता है या पैदा करने का प्रयत्न करता है तो उसे इस कानून के तहत सजा का प्रवाधान है.

आजसू और झामुमो का दावा, सरकार में आते ही करेंगे समीक्षा 

झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रमुख हेमंत सोरेन ने दिप्रिंट के साथ साक्षात्कार में बताते हैं, ‘अगर हम सरकार में आते हैं तो इन 10,000 मुकदमों की समीक्षा करने का काम करेंगे. इन केसों की तुरंत प्रभाव से जांचकर खारिज किया जाएगा.’

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वहीं आजसू पार्टी के सुप्रीमो सुदेश महतो का भी कुछ ऐसा ही कहना है, ‘आदिवासियों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए. राष्ट्रीय दल इस बात को समझते नहीं हैं. आप इनको सिर्फ वोटर्स की तरह नहीं देख सकते हैं. मेरा पूरा चुनावी अभियान आदिवासियों को समर्पित है. सरकार में आते ही इन मुकदमों की समीक्षा होगी. लोकतंत्र में आप तुगलकी फरमान नहीं सुना सकते हैं. जितने तरह के विचार इन गांवों से उठ रहे हैं, वो सुनने पड़ेंगे.’

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शिला पट्ट जो इलाके में लगाए गए हैं | ज्योति यादव, दिप्रिंट

क्या है पत्थलगड़ी पंरपरा?

आदिवासी समुदाय और गांवों में विधि-विधान के साथ पत्थलगड़ी (शिलालेख गाड़ने) की परंपरा पुरानी है. जिस पर मौजा, सीमाना, ग्रामसभा और संवैधानिक अधिकारों की जानकारी लिखी होती है. साथ ही अपने पूर्वजों, वंशावली और मृत व्यक्तियों की यादें संजोए रखने के लिए शिलालेख गाड़े जाते हैं. कई गांवों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज बुंलद करने वाले आदिवासी वीर शहीदों के नाम भी रेखांकित हैं.

2017 में इन पत्थरों पर आदिवासियों ने संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों को इंगित करना शुरू कर दिया है. जैसे- पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में लागू हैं. भारत का संविधान अनुच्छेद 13(3)(क) के तहत रूढ़ि या प्रथा ही विधि का बल है यानि संविधान की शक्ति है. अनुच्छेद 19(5) के तहत पांचवीं अनुसूची जिलों या क्षेत्रों में कोई भी बाहरी और रूढ़ि प्रथा, व्यक्तियों को स्वतंत्र रूप से भ्रमण करना, निवास करना, बस जाना और घूमना फिरना वर्जित है.

कैसे बन गया आदिवासियों का चुनावी मुद्दा?

इस आंदोलन को आग देने वाली घटना थी 2016 की एक आदिवासी रैली जहां बड़े पैमाने पर छोटा नागपुर काश्तकारी कानून में संशोधन के खिलाफ आयोजित की गई थी. झारखंड के आदिवासियों का डर था कि सरकार उनकी जमीनें छीनने पर आमादा है. इस रैली में पुलिस ने गोलियां चलाई और सैको गांव के एक आदिवासी की मौत हो गई. उसके बाद से ही ये आंदोलन आग की तरह खूंटी जिले में फैल गया.

लेकिन उस वक्त मुख्यमंत्री रघुवर दास इस आंदोलन को देश विरोधी बता रहे थे. उन्होंने खूंटी में हुए एक सम्मेलन में कहा था कि कुछ आदिवासियों को इस आंदोलन के नाम पर बरगलाया जा रहा है और सरकार इसे कुचल कर रख देगी. भले ही दूसरे जिलों के आदिवासी भी इस आंदोलन के साथ साफ तौर पर नहीं जुड़े हों लेकिन दबे स्वर में वो आंदोलनकारियाों के साथ खड़े नजर आते हैं. हालांकि सिल्ली जिले के कुछ ओबीसी वोटर्स से बात करने पर वो कहते हैं कि ये आंदोलन जातिवाद और द्वेष की भावना को बढ़ावा दे रहा है. अलग से पत्थर गाड़ कर अपने अधिकारों को दर्ज करने की जरूरत नहीं है.

‘हम कोई क्रांतिकारी नहीं हैं, बस जीना चाहते हैं’

इन केसों के की वजह से पत्थलगड़ी इलाके के लोग ना ही बाहरी व्यक्तियों से और ना ही मीडिया वालों से बात कर कर रहे हैं. मीडिया के बायकॉट के सवाल पर हेसाहातु गांव के ग्रामीण दिप्रिंट को बताते हैं, ‘पत्रकार यहां से कुछ और बात सुनकर जाता है और वहां कुछ और छापता है. नेता कुछ और पढ़ता है और फिर हमें पुलिस से पिटवाता है. हम यहां जिन हालातों में रह रहे हैं वो ना ही तो नेता को पता है और ना ही मीडिया को.’

इन्हीं युवकों में से एक ने कहा, ‘हम जीना चाहते हैं. हम कोई क्रांतिकारी नहीं हैं.’

चुनाव से पहले सवाल उठ रहे थे कि क्या आदिवासी चुनाव का बहिष्कार करेंगे? लेकिन कई गांवों में जाकर पता चला कि दूसरे चरण में ग्रामसभाओं ने एकमत होकर वोट किया है. आने वाले चरणों में भी आदिवासी अपनी मांगों के साथ चुनावी प्रक्रिया में शामिल होंगे.

पत्थलगड़ी प्रभावित इलाके दिप्रिंट के दौरे के समय बहुत सारे गांवों में सिर्फ महिलाएं ही मिलीं. दिन में पुरुष गायब थे लेकिन शाम होते-होते वो घरों की तरफ लौट रहे थे. स्थानीय पत्रकार अरविंद बताते हैं कि दिन में पुलिस के डर की वजह से ये लोग गायब रहने लगे हैं, रात को ही घर लौटते हैं.

‘वोट डालना अधिकार है, हमें सरकार में भागीदारी चाहिए’

रांची से कुछ दूरी पर चमघाटी के आदिवासी पत्थलगड़ी आंदोलन को अपना समर्थन देते हुए कहते हैं, ‘हम क्यों वोट नहीं देंगे? ये हमारा अधिकार है. हम चाहते हैं कि हमारे लोग भी सरकार में जाएं तभी तो हमारी बात सुनी जाएगी.’

वहीं खूंटी के भंडरा टोला गांव के आदिवासियों ने दिप्रिंट को बताते हैं, ‘इस सरकार ने पत्थलगड़ी आंदोलन के चलते ग्रामसभाओं पर निगरानी रख रही है. इन सभाओं में ही हम तय करते हैं कि वोट किसको जाना है. अगर गांव एकमुश्त होकर वोट नहीं करता है तो हमारी समस्या कोई नेता नहीं सुनेगा.’

भंडरा टोला वहीं गांव है जहां 2017 में पहली बार संविधान की अनुसूची को पत्थर पर लिखकर गांव के बाहर लगाया था. इस गांव के मुखिया से लेकर कई लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज है.

खूंटी जिले से झारखंड विकास मोर्चा की आदिवासी उम्मीदवार दयामनी बारला का कहना है, ‘पहले संशय था कि आदिवासी चुनावी बहिष्कार करेंगे लेकिन ऐसो नहीं है. कुछ आदिवासी वोट नहीं डाल रहे हैं लेकिन कुछ चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा बन रहे हैं. हमारा सबसे बड़ा डर अपने जल जंगल और जमीन का है जिसको लेकर हम लोग भयभीत हैं.’

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