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Thursday, 18 April, 2024
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दिल्ली: ‘फ्री बस सवारी ठीक वैसी होगी जैसे होटल में फ्री खाने का न्यौता हो, पर खाना ना हो’

डीटीसी ने दिप्रिंट को बताया कि 2013 में ही दिल्ली को 11,000 बसों की दरकार थी. लेकिन अभी भी कुल सरकारी बसों की संख्या महज़ 3800 है.

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नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव 2019 में आम आदमी पार्टी (आप) ने बुरी तरह मुंह की खाई है. अब दिल्ली में 2020 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और राजनीतिक पार्टियों ने अभी से देश की राजधानी की जनता को लुभाने के लिए पासे फेंकने शुरू कर दिए हैं. आप ने पहले ‘दिल्ली में तो केजरीवाल‘ नारे के साथ चुनावी अभियान की शुरुआत की. केजरीवाल ने महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट सेवा को मुफ्त किए जाने की बात कही है. सीएम ने इस घोषणा को महिला सुरक्षा से जोड़ा है. हालांकि, सवाल ये भी उठाए जा रहे हैं कि इससे महिलाएं कैसे सुरक्षित होंगी और यहां एक सवाल यह भी किया जा रहा है कि कहीं यह चुनावी जुमला ही तो नहीं?


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दिल्ली को है 11000 बसों की दरकार

दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) हमेशा से ही बसों की किल्लतों से जूझता रहा है और इसके घाटे में चलने की बात की जाती रही है. ऐसे में महिलाओं की संभावित मुफ्त यात्रा की घोषणा के बाद डीटीसी ने दिप्रिंट से कहा कि बेहतर परिवहन व्यवस्था के लिए 2013 से ही दिल्ली को 11,000 बसों की दरकार है. लेकिन 2019 में भी कुल सरकारी बसों की संख्या महज़ 3800 है.

एक अनुमान के मुताबिक बसों की मौजूदा संख्या 3700 से 3750 के बीच है. 2013 में जब 11,000 बसों की ज़रूरत थी तो ज़ाहिर सी बात है कि 2019 तक राजधानी की आबादी में बढ़ोतरी हुई है और बढ़ी आबादी के हिसाब से 11,000 की मांग का यह आंकड़ा भी बढ़ेगा. लेकिन इस मांग और आपूर्ति के बीच सरकारी बसें काफी कम हैं.

दिल्ली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष मनोज तिवारी ने आप की इस घोषणा के बाद दावा किया था, ‘दिल्ली की आबादी 2.25 करोड़ है. इसमें एक करोड़ से अधिक महिलाएं हैं. इनके उचित ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था के लिए 20,000 बसों की दरकार है. दिल्ली में महज़ 3500-3800 (सरकारी) बसें रह गई हैं. जब बसें हैं ही नहीं तो इन्हें बैठाएंगे कहां?’

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1600 के करीब हैं कुल क्लस्टर बसें

दिल्ली में क्लस्टर (प्राइवेट) बसें भी चलती हैं. इनकी संख्या  भी 1600 के करीब है. ऐसे में अगर सरकारी और प्राइवेट दोनों ही तरह की बसों की संख्या जोड़ दें तो भी ये 5400 के करीब होंगी. यानी 2013 में जितनी बसों की दरकार थी उसकी तुलना में अभी मौजूद कुल बसों की संख्या के आधी भी नहीं. एक अनुमान के मुताबिक डीटीसी की 500-600 बसें रोज़ ख़राब रहती हैं. हालांकि, डीटीसी की मानें तो ये संख्या 350-400 के करीब है. ऐसे में सड़क पर महज़ 5000 के करीब बसें ही होती हैं.

2013 से नहीं ख़रीदी गई एक भी बस

हैरत की बात ये है कि 2013 से अब तक दिल्ली में एक भी बस नहीं ख़रीदी गई. डीटीसी ने कहा, ‘सड़कों पर ज़्यादातर वही बसें हैं जो कॉमनवेल्थ गेम्स के समय आई थीं. ये बसें 2008-09 के दौरान आनी शुरू हो गई थीं.’ यानी 2019 तक इन बसों की उम्र लगभग 10 साल के करीब हो गई है. नई बसों की ख़रीद नहीं होने की वजह से संख्या तो बढ़ी नहीं, उल्टे जिस रफ्तार में बसें ख़राब हो रही हैं उससे अगले साल तक इनकी संख्या में भारी कमी आने का डर है.

बसों की फ्रीक्वेंसी की भी ख़ासी समस्या है. ख़ुद डीटीसी ने स्वीकारा कि कई रूट्स पर बसें 20 मिनट से ज़्यादा के अंतर में आती हैं. सबसे कम समय पांच मिनट का है. ज़ाहिर सी बात हैं कि जैसे-जैसे बसों की संख्या घटेगी, इंतज़ार का समय बढ़ता चला जाएगा.

मीडिया रिपोर्ट और डीटीसी के अपने-अपने दावे

राष्ट्रीय सहारा की रिपोर्ट्स का दावा है कि 2020 तक आधे से ज़्यादा बसें रिटायर हो जाएंगी. 2008-2011 के बीच जो बसें आई थीं, उनमें से 2021 तक महज़ चंद बसें ही चलने लायक रह जाएंगी. ये भी कहा गया है कि डीटीसी स्थायी स्टाफ में से 90% स्टाफ अगले साल तक रिटायर हो जाएंगे. लेकिन डीटीसी ने इन सभी दावों का खंडन किया है.

डीटीसी ने कहा, ‘हर महीने 150 के आस-पास कर्मचारी रिटायर होते हैं. ऐसे में अगर जून के महीने से 2020 के दिसंबर तक का भी हिसाब बिठाए तो भी आधे से ज़्यादा कर्मचारी बने रहेंगे.’ दिल्ली में डीटीसी बसों की स्थिति पर ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन्स (ऐक्टू) के जनरल सेकरेट्री अभिषेक कहते हैं, ‘2020 तक कम से कम 50% से ज़्यादा बसें तो ख़राब हो ही जाएंगी. स्थायी कर्मचारियों की संख्या 12,000 के करीब है. इनमें से एक बड़ा हिस्सा अगले साल तक रिटायर हो जाएगा.’

ऐक्टू के मुताबिक ‘आप ने 2015 के मेनिफेस्टो में कॉन्ट्रैक्ट वाले कर्मचारियों को स्थायी करने से लेकर समान काम-समान दाम जैसे वादे किए थे.’ लेकिन कुछ भी नहीं हुआ. इन सारी वजहों पर ग़ौर करने पर एक बात साफ है कि दिल्ली सरकार के सामने फ्री ट्रांसपोर्ट की घोषणा को लागू करने के लिए बसों की संख्या से लेकर स्टाफ की कमी जैसी गंभीर चुनौतियां होंगी.

बहुत संकट में है बसों का वर्तमान और भविष्य

बसों के मेंटेनेंस का ज़िम्मा उन कंपनियों (टाटा-लेलेंड) पर है जिनसे बसें ख़रीदी गईं थीं. डीटीसी के मुताबिक कंपनियों ने मेंटेनेंस की कीमत तो बढ़ा दी है, लेकिन बसों की मेंटेनेंस को लेकर विरोधाभास है. डीटीसी के अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि 12 साल के समय या 7.5 लाख किलोमीटर तक गाड़ी चलने तक की देखरेख का ज़िम्मा कंपनियों के हाथों में है और कंपनियां ऐसा कर रही हैं.

डीटीसी ने कहा, ‘कंपनियों को बसों का मेंटेनेंस 7.5 लाख़ किलोमीटर तक करना है. 2008 से आई कोई भी बस इससे ज़्यादा नहीं चली.’ हालांकि, ऐक्टू का दावा है, ‘बसों के 7.5 लाख़ किलोमीटर तक नहीं चलने की बात झूठ है, न जानें कितनी बसें ख़राब खड़ी हैं.’ डीटीसी की एसी बसों में जरूरत से ज्यादा गर्म होने की भी दिक्कत है. इसकी वजह से एसी बंद होने और ब्रेक डाउन जैसी समस्याएं लगातार बनी रहती है.

ग्रीन टैक्स का नहीं हुआ बसों की ख़रीद में इस्तेमाल

ये आलम तब है जब एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली सरकार ने सितंबर 2018 तक ग्रीन टैक्स के तहत 1800 करोड़ रुपए में वसूले हैं. इन पैसों से सरकार को पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सुधार करना था. लेकिन 2019 के जून तक दिल्ली में इस फंड का कोई प्रभावी इस्तेमाल नज़र नहीं आता. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली से गुज़रने वाली डीज़ल गाड़ियों पर ग्रीन टैक्स लगाने को कहा था. इसके तहत अलग-अलग गाड़ियों से 700-1300 रुपए वसूले जाने हैं.

जिस साल सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने को कहा था, दिल्ली में उसी साल भारी बहुमत वाली अरविंद केजरीवाल सरकार बनी थी. लेकिन ग्रीन टैक्स के तहत इक्ट्ठा किए गए पैसे का इस्तेमाल बसों की ख़रीददारी में भी नहीं किया गया. इस पर दिप्रिंट ने दिल्ली के परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत से कम से कम आधा दर्जन से अधिक बार संपर्क करने की कोशिश की लेकिन अभी तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया है. उनसे जानकारी मिलने पर हम इस रिपोर्ट को अपडेट करेंगे.

पिछले वित्त वर्ष में डीटीसी को 1000 करोड़ का नुकसान भी हुआ था. कई डिपो प्राइवेट ऑपरेटर्स को दे दिए गए हैं. अटकलें ये भी हैं कि डीटीसी को प्राइवेटाइज़ किया जा सकता है. इन सबके बीच दिल्ली के सीएम की ताज़ा घोषणा पर अभिषेक कहते हैं, ‘फ्री बस सवारी ठीक वैसे होगी जैसे होटल में मुफ्त खाने का न्यौता तो दे दिया, लेकिन खाना है ही नहीं.’

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