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Friday, 17 May, 2024
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किसान विद्रोह, दंगे और बाहुबल – बंगाल की राजनीति में हिंसा इतनी गहराई में क्यों बैठी है

विश्लेषकों का कहना है कि संसाधनों और लोकतांत्रिक संस्थानों पर नियंत्रण तात्कालिक कारण है जो पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का कारण बनता है, जहां 8 जुलाई को पंचायत चुनाव होने वाले हैं.

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कोलकाता: ग्यारह हजार लोगों को निवारक हिरासत (Preventive Custody) में लिया गया, 8,000 से अधिक गैर-जमानती वारंट (एनबीडब्ल्यू) एक्ज़ीक्यूट किए गए और 20,000 से अधिक लाइसेंसी हथियार जब्त किए गए. यह सारे कदम पश्चिम बंगाल में इसलिए उठाए गए हैं ताकि राज्य में 8 जुलाई को होने वाले पंचायत चुनाव के दौरान किसी भी प्रकार की राजनीतिक हिंसा से बचा जा सके, जैसा कि स्थानीय निकाय चुनावों में देखा गया था.

मंगलवार को, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने राज्य भर के सभी 61,636 मतदान केंद्रों पर केंद्रीय बलों की तैनाती का आदेश दिया, जिसके एक दिन बाद केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल में केंद्रीय बलों की 485 अतिरिक्त कंपनियां तैनात कीं – इसके बाद राज्य में तैनात कंपनियों की कुल संख्या 822 हो गईं.

पश्चिम बंगाल राज्य चुनाव आयोग (एसईसी) के अनुसार, 8 से 27 जून के बीच राज्य में चुनाव पूर्व हिंसा के कारण हुई घटनाओं में पांच लोगों की जान चली गई और 337 घायल हो गए. इसके अनुसार, राज्य में आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) लागू होने के बाद से राज्य पुलिस ने 11,051 लोगों को निवारक हिरासत में लिया, 8,449 एनबीडब्ल्यू एक्ज़ीक्यूट किए, 20,770 लाइसेंसी हथियार, 175 बिना लाइसेंस हथियार और 700 विस्फोटक, कारतूस आदि जब्त किए.

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें सभी पार्टियों में आम बात बनी हुई हैं, चाहे वह कांग्रेस हो, वामपंथी दल हों या मौजूदा ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) हो.

राजनीतिक विश्लेषक स्निग्धेंदु भट्टाचार्य कहते हैं, ”हिंसा लंबे समय से पश्चिम बंगाल की राजनीति का हिस्सा रही है,” उन्होंने कहा कि देश के अन्य हिस्सों में जो जातीय और सांप्रदायिक हिंसा देखी जाती है, वह ”बंगाल में काफी हद तक अनुपस्थित है, जहां राजनीतिक आधार पर सामाजिक विभाजन परंपरागत रूप से एक मजबूत कारक रहा है”.

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उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “चूंकि हाल के वर्षों में पंचायतों के लिए आवंटन में वृद्धि हुई है और चुनाव एसईसी द्वारा आयोजित किए जाते हैं, जिनकी राज्य सरकार से स्वतंत्रता संदिग्ध बनी हुई है, इसलिए जमीनी स्तर के राजनेताओं ने अपनी ताकत दिखाकर फैसले पर मुहर लगाने की कोशिश की है.”

कथित तौर पर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) द्वारा ‘राजनीतिक कारणों से हत्या का मकसद’ शीर्षक के तहत संकलित डेटा से पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में 2018 में 13 ऐसी हत्याएं दर्ज की गईं – जो उस वर्ष सभी भारतीय राज्यों में सबसे अधिक थीं. गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने भी अगस्त 2021 में संसद को सूचित किया था कि 2017 और 2019 के बीच देश भर में राजनीतिक हिंसा के कारण 230 मौतें दर्ज की गईं.

पश्चिम बंगाल के मामले में, न्यू इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट से पता चला था कि राज्य में 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से भाजपा और टीएमसी कार्यकर्ताओं की 47 राजनीतिक हत्याएं देखी गईं, जिनमें से 38 दक्षिण बंगाल में हुईं.

सोमवार को मीडिया को संबोधित करते हुए राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस – जो राज्य के उन हिस्सों का दौरा कर रहे हैं जहां पंचायत चुनावों के दौरान हिंसा देखी गई थी – ने कहा: “इस राजनीतिक खूनी होली को खत्म होना होगा”.

पिछले एक पखवाड़े में राज्यपाल ने कूच बिहार जिले के दिनहाटा के अलावा दक्षिण 24 परगना के भांगर, कैनिंग और बसंती का दौरा किया है.


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‘चरमपंथी राजनीतिक परंपरा बंगाल की पहचान’

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की छाया उन राष्ट्रवादी आंदोलनों से देखी जा सकती है जो भारत की आजादी से पहले आकार ले चुके थे.

राजनीतिक विश्लेषक उदयन बंद्योपाध्याय कहते हैं, ”चरमपंथी राजनीतिक परंपरा बंगाल की पहचान है. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “यहां तक कि श्री अरबिंदो जैसे संतों का अतीत भी हिंसक था… यहां के लोगों को नरम आवाज़ पसंद नहीं है. बंगाल जाति आधारित राजनीति की इजाजत नहीं देता. आज़ादी के बाद भी, मुख्यधारा के बंगाल के राजनेताओं ने धार्मिक हिंसा की कड़ी निंदा की थी,”

अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह शुरू करने वाली 1902 में स्थापित संस्था, अनुशीलन समिति इसका एक उदाहरण है. इसके बाद 1946 में कलकत्ता में हत्याएं हुईं, जो जिन्ना द्वारा ‘सीधी कार्रवाई’ के आह्वान के कारण भड़काए गए सांप्रदायिक उन्माद से प्रेरित थीं. और 1967 में, राज्य ने नक्सलबाड़ी आंदोलन देखा जिसका उद्देश्य राज्य सरकार को उखाड़ फेंकना था.

1970 के दशक की बात करें, जब वामपंथियों ने कांग्रेस को चुनौती देकर खुद को मजबूत करना शुरू किया और उसके बाद राजनीतिक हिंसा की बाढ़ आ गई.

यह घटना 17 मार्च 1970 को सैनबारी हत्याओं के साथ सामने आई – जब कांग्रेस समर्थक दो भाइयों को पूर्व बर्धमान जिले के बर्दवान में उनके घर के अंदर कथित तौर पर सीपीएम कार्यकर्ताओं द्वारा मार दिया गया था. अगले वर्ष, ऑल-इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के तत्कालीन 76 वर्षीय अध्यक्ष हेमंत कुमार बसु की हत्या ने राजनीतिक हिंसा का एक और चक्र शुरू कर दिया.

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का व्यापक अध्ययन करने वाले ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) के फेलो अंबर घोष के अनुसार, संसाधनों और महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक संस्थानों पर नियंत्रण तात्कालिक कारण हैं जो राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पों का कारण बनते हैं.

हालांकि, वह कहते हैं कि ग्रामीण विकास और जमींदारी व्यवस्था के लिए निर्धारित धन के आवंटन को लेकर विरोध, जिसके कारण राज्य में कई किसान विद्रोह हुए, राज्य में चल रहे अधिक जटिल मुद्दों में से हैं.

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा के दुष्चक्र और पंचायत चुनावों के लिए केंद्रीय बलों की तैनाती के बारे में पूछे जाने पर, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के प्रवक्ता कुणाल घोष ने दिप्रिंट से कहा, “केंद्रीय बल हो या न हो, बंगाल के लोगों को टीएमसी पर भरोसा है. कानून व्यवस्था बरकरार है, वामपंथियों को तो हिंसा के बारे में नहीं ही बोलना चाहिए.’

2018 के पिछले पंचायत चुनावों में, टीएमसी द्वारा मैदान में उतारे गए उम्मीदवारों ने 34 प्रतिशत सीटों पर निर्विरोध जीत हासिल की थी, विपक्षी दलों ने दावा किया था कि उनके उम्मीदवारों को कथित तौर पर नामांकन दाखिल न करने के लिए मजबूर किया गया था.

हालांकि, सीपीएम नेता विकास भट्टाचार्य ने कहा कि 34 साल के वामपंथी शासन के दौरान “झड़पें तो हुईं, लेकिन राजनीतिक झड़पें नहीं हुईं”. आगे उन्होंने कहा, “यह सुधारों के कारण होने वाली हिंसा थी, जैसे कोई भूमिहीन किसान जमींदार के खिलाफ लड़ता था. लेकिन अब हम जो देख रहे हैं वह टीएमसी के शासन काल में राजनीतिक हिंसा हो रही है.”

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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