नई दिल्ली: हाल में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में मुस्लिम मतदाताओं ने व्यापक स्तर पर ‘मुस्लिम राजनीतिक दलों’ के खिलाफ मतदान किया है.
बंगाल में जहां इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ) और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) ने खराब प्रदर्शन किया, वहीं केरल में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) अपने पिछले प्रदर्शन तक को बरकरार नहीं रख पाई.
असम में ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) ने पिछले चुनाव की तुलना में अधिक सीटें जीतीं. कांग्रेस के साथ उसका गठबंधन कुछ अल्पसंख्यक बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में वोट ट्रांसफर में भी सफल रहा, लेकिन ऐसा लगता है कि इसकी वजह से हिंदू समुदाय का ध्रुवीकरण भी हुआ.
इन तीनों राज्यों में अच्छी-खासी मुस्लिम आबादी है—जो कि केरल, पश्चिम बंगाल और असम में क्रमश: 26 प्रतिशत, 30 प्रतिशत और 34 प्रतिशत है.
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मुस्लिम मतदाता ममता बनर्जी की टीएमसी के साथ आए
पश्चिम बंगाल में राष्ट्रीय सेक्युलर मजलिस पार्टी के बैनर तले प्रत्याशी उतारने वाली आईएसएफ ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ा था और सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल की—आईएसएफ नेता अब्बास सिद्दीकी के भाई नौशाद सिद्दीकी भांगर क्षेत्र से चुनाव जीते हैं.
बाकी 29 सीटों, जहां आईएसएफ ने अपने प्रत्याशी उतारे थे, में 26 सीटों पर टीएमसी ने जीत हासिल की है. भाजपा केवल तीन सीटों पर जीतने में सफल रही, लेकिन इन तीनों में टीएमसी पर उसकी जीत का अंतर आईएसएफ को मिले वोटों से अधिक था.
उदाहरण के तौर पर भाजपा द्वारा जीती गई इन तीन में से एक सीट राणाघाट में आईएसएफ ने सिर्फ 2.42 फीसदी वोट हासिल किए, जबकि टीएमसी को 39.59 फीसदी वोट मिले. इस निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा ने 54.39 प्रतिशत वोट हासिल कर एक बड़े अंतर से जीत दर्ज की.
एआईएमआईएम ने इस बार बंगाल के मैदान में किस्मत आजमाते हुए सात उम्मीदवारों को उतारा. लेकिन टीएमसी ने इन सभी सातों सीटों पर जीत दर्ज की और एआईएमआईएम का प्रदर्शन बेहद खराब रहा. पार्टी सिर्फ 0.02 फीसदी वोट शेयर हासिल कर पाई और सात में से चार सीटों पर उसे 1 फीसदी से भी कम वोट से संतोष करना पड़ा. इसके प्रत्याशी चौथे, पांचवें या छठे स्थानों पर रहे.
इसका सीधा-सा आशय यह है कि ‘सेक्युलर’ वोटों में सेंध लगाने में न तो आईएसएफ सफल रहा और न ही एआईएमआईएम. मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा इस बार टीएमसी के साथ खड़ा रहा है. मुर्शिदाबाद और मालदा जैसे मुस्लिम बहुल जिलों में तो टीएमसी को पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में ज्यादा फायदा मिला है.
टीएमसी ने मुर्शिदाबाद की 20 में से 16 सीटें और मालदा की नौ में से पांच सीटें जीती हैं. 2016 के विधानसभा चुनाव की तुलना में यह बहुत बड़ी बढ़त है, जब सत्तारूढ़ दल ने मुर्शिदाबाद में सिर्फ चार सीटें जीती थीं और मालदा में कोई नहीं.
इन जिलों को पारंपरिक तौर पर कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है, खासकर यहां से निकलने वाले मजबूत पार्टी नेताओं के इतिहास को देखते हुए—जैसे स्वर्गीय गनी खान चौधरी. लेकिन पार्टी इस बार राज्य में सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल कर पाई है.
माना जा रहा है कि चुनाव पूर्व राज्य में भाजपा की तरफ से चलाए गए व्यापक प्रचार अभियान और बड़े पैमाने पर निवेश ने मुसलमानों को टीएमसी के साथ लाकर खड़ा कर दिया. हालांकि, विश्लेषकों का कहना है कि यह महज एक कारण है.
कोलकाता स्थित अलीया यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकारिता के सहायक प्रोफेसर मोहम्मद रियाज ने दिप्रिंट को बताया, ‘टीएमसी ने 2018 के पंचायत चुनावों के आसपास ही मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों में मुस्लिमों के साथ नजदीकी बढ़ाने के अपने अभियान की शुरुआत कर दी थी. पिछले कुछ सालों में इन क्षेत्रों में समुदाय के विकास की कोशिशें करना कारगर रहा है. वहीं क्षेत्र में कांग्रेसी नेतृत्व का अभाव भी टीएमसी का आधार बढ़ने में समान रूप से सहायक रहा है. यह कहना पूरी तरह सही नहीं होगा कि सिर्फ भाजपा को खतरा मानते हुए मुस्लिम समुदाय ने टीएमसी का समर्थन किया है.’
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असम: वोट-शेयरिंग सफल लेकिन जवाबी ध्रुवीकरण भी हुआ
असम में भाजपा की फिर सत्ता में वापसी से कांग्रेस-एआईयूडीएफ गठबंधन को करारा झटका लगा है. यद्यपि, एआईयूडीएफ ने जिन 21 सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें से 16 पर जीत हासिल करने में सफल रही—जो कि 2016 के चुनावों की तुलना में ज्यादा है जब उसने 13 सीटें जीती थी. बहरहाल, पार्टी का वोट शेयर पिछले चुनावों में 13 प्रतिशत से घटकर इस बार 9.29 प्रतिशत ही रह गया है.
पिछली बार भाजपा की तरफ से जीती गई सोनई और बतद्रोबा जैसी सीटों पर गठबंधन मौजूदा विधायकों को हराने में सफल रहा है. एआईयूडीएफ के उम्मीदवार ने सोनई में जीत दर्ज की, वहीं कांग्रेस प्रत्याशी की बतद्रोबा में जीत हुई है—जो दोनों दलों के मतदाताओं का वोटबैंक साझा होने का साफ संकेत है.
अल्पसंख्यक बहुल आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्रों में दोनों सहयोगी दलों के वोट एक-दूसरे के प्रत्याशियों को सफलता से ट्रांसफर हुए हैं. उदाहरण के तौर पर जानिया में एआईयूडीएफ प्रत्याशी ने जीत हासिल की, जो तब तक कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अब्दुल खालिक का निर्वाचन क्षेत्र था, जब तक उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला नहीं किया.
इसके बावजूद, गठबंधन भाजपा को सत्ता में लौटने से रोक पाने में नाकाम रहा है—जो कि यह गठबंधन होने के पीछे एक प्रमुख उद्देश्य था. बदरुद्दीन अजमल की अगुवाई वाला एआईयूडीएफ 2006 में लॉन्च होने के बाद से कांग्रेस के खिलाफ रहा है, लेकिन इस बार भाजपा को हराने के लिए दोनों ने हाथ मिला लिया था. हालांकि, नतीजे उनकी योजना के मुताबिक नहीं रहे.
विश्लेषकों का कहना है कि हिंदू-बहुल क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर इसके ‘जवाब में ध्रुवीकरण’ होना भी इसकी एक वजह है. ऊपरी असम के कम से कम तीन निर्वाचन क्षेत्र—गोलाघाट, सरूपथार और डूमडोमा—इसका स्पष्ट उदाहरण है जो कि कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहे हैं और पिछले चुनावों में भी वह यहां पर काबिज रही थी. इस बार तीनों सीटें भाजपा की झोली में चली गई हैं.
गुवाहाटी के रहने वाले एक राजनीतिक विश्लेषक सुशांत तलुकदार ने दिप्रिंट को बताया, ‘भाजपा की तरफ से एक डर के तौर पर यह बात काफी प्रचारित की गई थी कि बदरुद्दीन अजमल को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है. वहीं, एआईयूडीएफ के इस नारे कि अगली सरकार ‘दाढ़ी, टोपी और लुंगी वालों’ की तरफ से बनाई जाएगी, ने इस अभियान को और हवा दे दी और इसके जवाब में ध्रुवीकरण हुआ.’
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केरल में आईयूएमएल का खराब प्रदर्शन
केरल में कांग्रेस-नीत यूडीएफ को एलडीएफ के हाथों हार से कड़ा झटका लगा है. केरल में लंबे समय से कांग्रेस की सहयोगी रही इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) का प्रदर्शन भी पहले के मुकाबले खराब हुआ है.
पार्टी ने जिन 27 सीटों पर चुनाव लड़ा—इस बार सबसे ज्यादा प्रत्याशी उतारे थे—उसमें से सिर्फ 15 पर जीत हासिल कर पाई है, जो आईयूएमएल का सबसे खराब स्ट्राइक रेट रहा है.
यह पार्टी के प्रदर्शन में एक गिरावट है, जिसने पिछली बार 18 सीटें जीती थीं. हालांकि, इस बार इसका वोट शेयर जरूर 7.4 प्रतिशत से बढ़कर 8.27 प्रतिशत हो गया.
राजनीतिक विश्लेषक शाहजहां मदमपत ने कहा, ‘पिनरई विजयन ने पिछले पांच सालों में हिंदुत्व के खिलाफ एकदम हठीला रुख अपना लिया है लेकिन कांग्रेस और आईयूएमएल दोनों अक्सर इस मुद्दे पर डांवाडोल स्थिति में रहे हैं. सबरीमला पर उनका आक्रामक रुख एक ओर भाजपा की बी टीम की तरफ बर्ताव करने और दूसरी ओर केरल की प्रगतिशील सोच का विरोध करने का प्रयास रहा है.
उदाहरण के तौर पर आईयूएमएल ने भगवान अयप्पा के मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ सबरीमाला के भक्तों के रुख का समर्थन किया.
यूडीएफ ने अपने चुनावी घोषणापत्र में सत्ता में आने पर सबरीमला की परंपरा की रक्षा के लिए एक कानून लाने तक का वादा कर दिया था. यूडीएफ ने 2020 में स्थानीय निकाय चुनावों में जमात-ए-इस्लामी के साथ गठबंधन भी किया था, जो एक ऐसा कदम था जो इसके पक्ष में कारगर नहीं रहा.
इस संगठन के साथ आईयूएमएल की बढ़ती निकटता भी कुछ ऐसी रही है जिसने चुनावों में नुकसान पहुंचाया हो सकता है.
मदमपत ने कहा, ‘2021 के केरल चुनाव के नतीजे बहुलतावादी और समावेशी समाज के पक्ष में फैसला देने का सबूत हैं.’
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