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Thursday, 25 April, 2024
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सुशील मोदी शामिल नहीं, RS प्रसाद भी बाहर- टीम मोदी में बिहार BJP के पुराने नेताओं को क्यों नहीं मिली जगह

1995 और 2020 के बीच अपना खासा दबदबा रखने वाले बिहार भाजपा के नेताओं को लगातार अप्रासंगिक बनाया जा रहा है. मंत्रिमंडल विस्तार में दो नेताओं को हटाया गया, जबकि एक को शामिल नहीं किया गया.

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पटना: बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद नज़र आई खास शैली को ही दिखाते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के केंद्रीय नेतृत्व ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में राज्य के पुराने-वरिष्ठ नेताओं को फिर से दरकिनार कर दिया है.

1995 में जब भाजपा अविभाजित बिहार में सबसे बड़े विपक्षी दल के तौर पर उभरी, से लेकर 2020 में पार्टी के जनता दल (यूनाइटेड) को पीछे छोड़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में बड़े भाई की भूमिका में आ जाने तक, निर्णायक भूमिका निभाने वाले इन नेताओं को पिछले साल के विधानसभा चुनाव के बाद से इसी तरह की कार्यशैली का सामना करना पड़ रहा है.

बुधवार को पार्टी ने न सिर्फ बिहार भाजपा के सबसे चर्चित नेता और पूर्व डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी को कैबिनेट विस्तार से बाहर रखा, बल्कि पार्टी के वरिष्ठ नेता रविशंकर प्रसाद को बाहर भी कर दिया.

हालांकि, स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे जरूर बच गए. यद्यपि उनके कैबिनेट मंत्री हर्षवर्धन को तो बाहर कर दिया गया लेकिन चौबे को राज्य मंत्री के तौर पर उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय में भेज दिया गया.

नाम जाहिर न करने की शर्त पर भाजपा के एक विधायक ने कहा, ‘इसकी एक सबसे बड़ी वजह यह है कि वह केंद्रीय मंत्रिमंडल में बिहार के एकमात्र ब्राह्मण मंत्री हैं.’

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2020 के चुनाव के बाद क्या हुआ?

एनडीए ने 2020 के चुनावों में जब मामूली अंतर के साथ जीत हासिल की थी तो यह माना जा रहा था कि उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ अपना कार्यभार संभाले रहेंगे.

हालांकि, ऐसा होना नहीं था. नीतीश तो अपने पद पर बने रहे लेकिन चुनाव नतीजे आने के तुरंत बाद बिहार का दौरा करने पहुंचे केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने मोदी को बताया कि केंद्रीय नेतृत्व चाहता है कि वह अब दिल्ली की राजनीति में आ जाएं.

राज्य के नए मंत्रिमंडल में नंद किशोर यादव और प्रेम कुमार जैसे भाजपा के पुराने वरिष्ठ नेताओं, जो अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों से कई बार निर्वाचित हुए थे और पूर्व में एनडीए सरकार का हिस्सा रहे हैं, को जगह नहीं दी गई.

यादव को विधानसभा अध्यक्ष के रूप में समायोजित करने की बात भी बन नहीं पाई क्योंकि पार्टी ने एक कनिष्ठ नेता विजय कुमार सिन्हा को चुना.


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1995 और 2020 के बीच की स्थिति

1995 तक भाजपा को सवर्णों और व्यापारी समुदाय से जुड़ी एक शहरी पार्टी माना जाता था. बिहार में शुरुआती तौर पर उसने जो सीटें जीती, वह मुख्यत: झारखंड से आती थी. उस समय राज्य में स्वर्गीय कैलाशपति मिश्रा, स्वर्गीय ताराकांत झा और अश्विनी कुमार चौबे आदि नेता पार्टी का नेतृत्व करते थे.

1990 के दशक के बाद जब राष्ट्रीय जनता दल के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की मंडल राजनीति और पिछड़ी जातियों पर जोर दिया जाना राज्य के राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हुआ तो भाजपा नेतृत्व ने भी सवर्णों से पिछड़ी जातियों की ओर रुख किया.

सुशील कुमार मोदी (ओबीसी), नंद किशोर यादव (ओबीसी) और प्रेम कुमार (ईबीसी) जैसे नेताओं को पार्टी में अग्रणी भूमिका सौंपी गई. इसी नेतृत्व की बदौलत भाजपा को पिछड़ी जाति की आबादी के बीच पैठ बनाने में सफलता मिली.

तत्कालीन समता पार्टी के साथ गठबंधन में भाजपा ग्रामीण क्षेत्रों में अपना इतना ज्यादा वर्चस्व कायम करने में सक्षम रही कि 2014 के लोकसभा चुनावों में उसे जमकर पिछड़ों के वोट मिले— एकमात्र यही चुनाव जदयू और भाजपा ने अलग-अलग लड़ा और एनडीए ने बिहार की 40 में से 32 सीटों पर जीत हासिल की.

यही नहीं 2015 के विधानसभा चुनावों में भी भाजपा ने 25 प्रतिशत वोट हासिल किए, जबकि उसने 243 सीटों में से दो-तिहाई से भी कम पर चुनाव लड़ा था.


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बिहार में सोशलिस्ट और भाजपा

बिहार में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का सोशलिस्ट नेताओं से गहरा रिश्ता रहा है. ये सभी 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले छात्र आंदोलन के दौरान छात्र नेता थे.

लालू प्रसाद पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे, सुशील कुमार मोदी महासचिव थे जबकि रविशंकर प्रसाद संयुक्त सचिव थे. नीतीश कुमार एक छात्र संगठन के सदस्य थे, जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के साथ कोऑर्डिनेट करता था. नंद किशोर, प्रेम कुमार और कई अन्य लोग आंदोलन में सक्रिय भागीदार हुआ करते थे.

राजद नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘बिहार भाजपा के नेता अन्य राज्यों के नेताओं से अलग हैं. हम सब एक साथ जेल गए हैं.’

इसी जुड़ाव के कारण इतने सालों तक राजनीतिक प्रतिद्वंदी होने के बावजूद बिहार भाजपा के नेताओं के लिए सोशलिस्ट नेताओं के साथ बातचीत करना आसान होता है.

जब तक एल.के. आडवाणी और दिवंगत अरुण जेटली भाजपा में निर्णायक भूमिका में रहे, इन नेताओं को आगे बढ़ाया जाता रहा. नीतीश कुमार और भाजपा के बीच गठबंधन भी 1996 से अब तक कायम है— सिर्फ 2013 और 2017 के बीच की अवधि को छोड़कर.

लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की अगुआई में मौजूदा भाजपा नेतृत्व ने राज्य के भाजपा नेताओं के बीच मधुर रिश्तों को प्रोत्साहित नहीं किया है.

2014 से पहले सुशील कुमार मोदी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश किए जाने को लेकर जदयू और भाजपा के बीच तनातनी के बावजूद प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में नीतीश कुमार की खुले तौर पर वकालत की थी.

2020 के चुनावों के बाद से पुराने चेहरों को तेजी से अप्रासंगिक बनाया जा रहा है और उनकी जगह तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी जैसे छोटे कद के नेताओं ने ले ली है. पार्टी के सूत्रों के मुताबिक, प्राथमिकता यह भी रहती है कि नीतीश कुमार की बातचीत सुशील कुमार मोदी जैसे स्थानीय नेताओं के बजाये भूपेंद्र यादव जैसे केंद्रीय नेताओं के साथ हो.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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