पटना: इस महीने दलित मंत्री श्याम रजक के जेडी(यू) से बाहर होने और सहयोगी दल एलजेपी के नेता चिराग पासवान के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर लगातार हमलों के बाद अब जेडी(यू) प्रदेश विधानसभा चुनावों से पहले कुछ नए दलित चेहरे सामने लाना चाह रही है.
शनिवार को सत्ताधारी पार्टी ने 1987 बैच के आईपीएस ऑफिसर और बिहार पुलिस के पूर्व डीजी स्पोर्ट्स सुनील कुमार को पार्टी में शामिल किया जो एक प्रतिष्ठित दलित परिवार से आते हैं. सूत्रों का कहना है कि सुनील को प्रदेश चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया जा सकता है.
सुनील ने कहा कि वो पार्टी में इसलिए शामिल हुए क्योंकि नीतीश सरकार ने दलितों के लिए काम किया है.
सुनील का जेडी(यू) में स्वागत करते हुए पार्टी नेता ललन सिंह ने कहा, ‘नीतीश जी ने अथक रूप से दलितों के उत्थान के लिए काम किया है. जब वो सत्ता में आए तो उन्होंने सुनिश्चित किया कि दलितों को पंचायत चुनावों में आरक्षण मिले. बताइये कितने राज्य ऐसे हैं जहां निचली अदालतों में दलितों के लिए आरक्षण है?’
सुनील के पिता स्वर्गीय चंद्रिका राम अज़ादी से पहले संविधान सभा के सदस्य थे और बाद में कांग्रेस मंत्री बने.
दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से पढ़े सुनील, सामान्य वर्ग से यूपीएससी परीक्षा में शामिल हुए. उनके सबसे बड़े भाई अजीत कुमार एक आईएफएस अधिकारी थे जो जेनेवा में यूएन ऑफिस में तैनात थे. उनके छोटे भाई अनिल कुमार दो बार आरजेडी से राज्य सभा सांसद और चार बार भोरे विधानसभा सीट से कांग्रेस विधायक रह चुके हैं जो उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे गोपालगंज में पड़ती है.
सुनील के एक करीबी सहयोगी ने दिप्रिंट को बताया, ‘रिटायरमेंट के बाद वो नीतीश कुमार से मिलने गए जिनसे वो प्रदेश मानवाधिकार आयोग में जगह चाहते थे. लेकिन इसकी बजाए नीतीश ने उनसे कहा कि उनकी पार्टी में शामिल हो जाएं और भोरे से चुनाव लड़ने को तैयार रहें (इस विधान सभा चुनाव में).’
लेकिन इससे बीजेपी को ठेस लगी है चूंकि सूत्रों के अनुसार, पार्टी भोरे से पूर्व सांसद जनक चमार को उतारना चाहती थी.
चमार उन पांच सांसदों में से थे जिन्हें 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने अपनी सूची से हटा दिया था क्योंकि नीतीश चाहते थे कि जेडी(यू) और बीजेपी दोनों को 17-17 सीटों पर लड़ना चाहिए.
लेकिन सुनील अकेले दलित चेहरे नहीं हैं जो जेडी(यू) में शामिल हुए हैं.
रजक के निकलने के तुरंत बाद आरजेडी विधायक प्रेमा चौधरी भी पार्टी में शामिल हो गईं. पूर्व सीएम जीतन राम मांझी भी जिन्होंने पहले खुले तौर पर ऐलान कर दिया था कि वो महागठबंधन में नहीं हैं लेकिन वो फिर से जेडी(यू) में शामिल होने जा रहे हैं.
एक वरिष्ठ जेडी(यू) नेता ने कहा, ‘कुछ दूसरे (दलित चेहरे) भी हैं जो आएंगे’.
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नीतीश क्यों तलाश रहे हैं दलित चेहरे
वापसी कर रहे प्रवासी मज़दूरों, कोविड संकट के प्रबंधन और विनाशकारी बाढ़ को लेकर नीतीश पर चिराग पासवान के निरंतर हमलों ने मुख्यमंत्री के लिए चिंता पैदा कर दी है.
अटकलें ये भी लग रही हैं कि एलजेपी स्वतंत्र रूप से विधानसभा चुनाव लड़ सकती है और जेडी(यू) के खिलाफ उम्मीदवार उतार सकती है.
दलितों की अनदेखी के आरोपों का प्रत्युत्तर देने के लिए नीतीश कुछ नए दलित चेहरे तलाश रहे हैं ताकि उन्हें आगामी चुनावों में उतार सकें.
एक जेडी(यू) सांसद ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘पार्टी पहले ही पूर्व मंत्री रमई राम और पूर्व विधानसभा स्पीकर उदय नारायण चौधरी जैसे दलित चेहरों को खो चुकी है. एलजेपी के खुलकर हमारे खिलाफ जाने से हमें लगा कि कुछ नए दलित चेहरों को सामने लाने की ज़रूरत है’.
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‘नीतीश दलित प्रतीकवाद में विश्वास रखते हैं’
बिहार में दलितों की कुल आबादी 16 प्रतिशत हैं.
1990 से पहले दलित कांग्रेस का एक प्रमुख वोट बैंक थे. लेकिन 1990 के बाद दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा लालू प्रसाद यादव की आरजेडी और सीपीआई(एमएल) के पास चला गया.
2005 में जब नीतीश कुमार सत्ता में आए तो पंचायत चुनावों व निकायों में दलितों का आरक्षण सुनिश्चित करने के अलावा उन्होंने एक ‘महादलित’ वर्ग बनाया- जिसमें दलितों के 22 में से 21 वर्गों को एक जगह कर दिया गया और सिर्फ पासवानों को इस ग्रुप से बाहर रखा गया.
पासवान बिहार में कुल दलित आबादी का 6 प्रतिशत हैं जबकि बाकी 10 प्रतिशत को महादलितों के तौर पर एक जगह कर दिया गया जिससे वो रियायतों और सरकारी स्कीमों के पात्र हो गए.
इस कदम का सियासी फायदा हुआ और सीपीआई (एमएल) का, जिसका महादलित वोटों पर कब्ज़ा हुआ करता था, 2010 के विधानसभा चुनावों में उसका पत्ता साफ हो गया.
पिछले दो महीनों में जेडी(यू) और एलजेपी के बीच विरोध के चलते, जिसे जेडी(यू) का एक धड़ा बीजेपी की कारस्तानी बताता है, नीतीश दलितों के बीच अपना खुद का आधार बनाने का प्रयास कर रहे हैं जिसमें जीतन राम मांझी, सुनील कुमार और प्रेमा चौधरी जैसे चेहरे काम आएंगे.
लेकिन राजक ने दिप्रिंट से कहा कि नीतीश ने दलितों के उत्थान के लिए कोई ठोस काम नहीं किया है और वो सिर्फ प्रतीकवाद में लिप्त रहे.
उन्होंने कहा, ‘नीतीश दलित चेहरों को अपने सियासी फायदों के लिए इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने एक दलित उदय नारायण चौधरी को दो बार विधानसभा स्पीकर बनाया. लेकिन उन्हें सिर्फ रबर स्टांप की तरह इस्तेमाल किया. उन्होंने दशरथ मांझी को (गया का वो व्यक्ति जिसने अकेले दम पर पहाड़ी के बीच से सड़क निकाल दी) 1, अणे मार्ग (पटना में बिहार सीएम का आवास) पर अपनी कुर्सी पर बिठाया और सियासी फायदे के लिए उसका इस्तेमाल किया.’
दशरथ मांझी ने सिर्फ एक छैनी और हथौड़े की मदद से एक पहाड़ी के बीच से 360 फीट लंबी एक सड़क निकाल दी थी जिसमें उन्हें 22 साल लगे थे. उन्होंने इस अकल्पनीय काम का बीड़ा तब उठाया जब उनकी पत्नी पहाड़ी को पार करते हुए गिरकर घायल हो गई. 2006 में जब वो नीतीश से मिलने आए तो मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी से उठ गए और मांझी को उस पर बिठा दिया.
2007 में मांझी की मौत हो गई. 2015 में उनके जीवन पर एक फिल्म बनी जिसमें अभिनेता नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने मांझी का किरदार निभाया था.
राजक ने आगे कहा, ‘उन्होंने जीतन राम मांझी को बिहार का सीएम बनाया लेकिन जब असुविधा होने लगी तो उन्हें हटवा दिया. नीतीश दलित प्रतीकवाद में विश्वास रखते हैं. उनके 15 साल के शासन के बावजूद बिहार में दलितों की हालत अभी भी गरीब ही बनी हुई है’.
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