पटना : बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में मैदान में उतरे लगभग एक तिहाई उम्मीदवार आपराधिक रिकॉर्ड रखते हैं, जिनमें एक बड़ी संख्या मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से जुड़े प्रत्याशियों की है.
यह स्थिति तब है जबकि जुलाई में ही चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को भेजे पत्र में स्पष्ट कहा था कि उन्हें आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों को टिकट देने का कारण बताना होगा. यह पत्र चुनाव मैदान में ऐसे प्रत्याशियों की मौजूदगी को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फरवरी के फैसले के संदर्भ में भेजा गया था.
पार्टियों ने कई मामलों में दागी नेताओं की पत्नियों और रिश्तेदारों को मैदान में उतारकर इससे किनारा करने की कोशिश की है.
चुनाव के दौरान और चुनाव बाद ‘दागी प्रत्याशियों’ पर ऑडिट रिपोर्ट तैयार करने वाले संगठन एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) के बिहार के प्रतिनिधि राजीव कुमार ने कहा, ‘हम अभी पहले चरण के लिए नामांकन कराने वाले उम्मीदवारों के हलफनामों को आकलन कर रहे हैं. जल्द ही हम एक रिपोर्ट लेकर आएंगे. लेकिन मोटे तौर पर पहले चरण में लगभग 30 प्रतिशत उम्मीदवारों के नाम आपराधिक रिकॉर्ड दर्ज है.’
पहले चरण में 28 अक्टूबर को 74 विधानसभा सीटों के लिए होने वाले चुनाव के लिए मैदान में बचे 1066 प्रत्याशियों में से 320 दागी हैं.
बिहार के अतिरिक्त मुख्य निर्वाचन अधिकारी संजय सिंह ने कहा कि उनके कार्यालय को इस बारे में जानकारी नहीं है कि क्या राजनीतिक दलों ने केंद्रीय निर्वाचन आयोग को दागी प्रत्याशी उतारने के बारे में जानकारी दी है. उन्होंने कहा, ‘राजनीतिक दलों को अपना जवाब सीधे चुनाव आयोग भेजना था. हमारे कार्यालय को इस बात की जानकारी नहीं है कि उन्होंने जवाब दिया है या नहीं.’
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राजद सबसे आगे
‘दागी प्रत्याशियों’ या उनकी पत्नियों को तरजीह देने की बात आती है तो लालू प्रसाद यादव की अगुवाई वाला राष्ट्रीय जनता दल (राजद) इसमें सबसे आगे है.
पार्टी ने मोकामा विधानसभा सीट से अनंत सिंह को उतारा है जो 38 आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं. इसमें हत्या के आरोप और अपहरण से लेकर हत्या के प्रयास तक के सात मामले भी शामिल हैं.
अनंत सिंह ने 2005 में जदयू उम्मीदवार के रूप में चुनावी राजनीति की शुरुआत की थी. उन्होंने एक अन्य आपराधिक नेता सूरज भान की जगह ली थी.
सिंह इस सीट से जीतते रहे हैं और 2015 में जदयू नेता नीतीश कुमार के साथ नाता टूटने के बाद यहीं से निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा था.
राजद ने एक निर्दलीय एमएलसी और हिस्ट्रीशीटर रीत लाल यादव को भी दानापुर विधानसभा सीट से मैदान में उतारा है. एक कुख्यात गैंगस्टर यादव को हाल ही में जेल से रिहा किया गया था. उन पर जमीन हड़पने, जबरन वसूली और हत्या के प्रयास का आरोप है. लेकिन उन्हें इतना प्रभावशाली माना जाता है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में पाटलिपुत्र सीट से मीसा भारती की जीत सुनिश्चित करने के लिए लालू यादव ने जेल जाकर उनसे मुलाकात की थी.
हालांकि, राजद ने अपने फैसले का बचाव किया है. राजद प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘ये उम्मीदवार अपने निर्वाचन क्षेत्र में बेहद लोकप्रिय हैं और लोगों के कल्याण के लिए काम करते हैं. इस मुद्दे पर कोई भी फैसला मतदाताओं पर निर्भर है.’
पत्नियां दिखा रहीं दमखम
कई मामलों में राजनीतिक दलों ने बाहुबली से राजनेता बने लोगों की पत्नियों को मैदान में उतारा है. इस मामले में भी राजद ने ही बढ़त बनाई है–पार्टी ने नवादा विधानसभा क्षेत्र के पूर्व विधायक राज बल्लभ यादव की पत्नी विभा देवी को इसी सीट से टिकट सौंपा है. पूर्व विधायक नाबालिग लड़की से बलात्कार के मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद से जेल में हैं.
पार्टी ने 1994 में गोपालगंज के दलित जिला मजिस्ट्रेट, आईएएस अधिकारी जी. कृष्णैया की हत्या के मामले में मुख्य आरोपी और दबंग राजपूत आनंद मोहन की पत्नी और बेटे को भी टिकट दिया है. वह अभी हत्या के इस मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं
आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद को सहरसा सीट से राजद का टिकट मिला है, वहीं उनके पुत्र चेतन आनंद भी शिवहर सीट से चुनाव लड़ रहे हैं.
पार्टी ने वैशाली जिले की महनार सीट पर डॉन रामा सिंह की पत्नी वीना सिंह को मैदान में उतारा है. पूर्व सांसद रामा सिंह पर हत्या से लेकर अपहरण तक कई आरोप हैं.
राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह पिछले महीने अपने निधन के ऐन पहले तक रामा सिंह को पार्टी में लेने पर विरोध जताते रहे थे. रघुवंश प्रसाद 2014 के लोकसभा चुनाव में तब लोजपा के साथ रहे रामा सिंह से चुनाव हार गए थे.
जदयू भी इसमें पीछे नहीं है. इसने गया की अतरी सीट पर खूंखार बिंदी यादव की विधवा मनोरमा देवी को मैदान में उतारा है. उनका बेटा रॉकी यादव रोड रेज के मामले में एक युवक की हत्या के आरोप में जेल में है.
भाजपा ने भी डॉन अखिलेश सिंह की पत्नी अरुणा देवी को नवादा के वारिसालीगंज से मैदान में उतारा है.
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इतिहास
बिहार में राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत 1980 के दशक में शुरू हुई थी, जब आपराधिक पृष्ठभूमि वाले विधायक तो न के बराबर थे, लेकिन राजनेता मतदान केंद्रों पर कब्जे के लिए दबंगों का जमकर इस्तेमाल करने लगे थे.
1990 का दशक आते-आते दबंगों ने खुद चुनाव लड़ना शुरू कर दिया. लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और स्वर्गीय रामविलास पासवान आदि का प्रश्रय मिलने से इनका दबदबा और बढ़ा.
1990 के दशक में जब एक बार लालू से कहा गया कि वह अपराधियों को टिकट और समर्थन दे रहे हैं, तो उनका जवाब था, ‘तो क्या हुआ? ऋषि वाल्मीकि भी तो एक डाकू थे.’
2005 में 13 दिवसीय सरकार का समर्थन करने वाले कम से कम छह डॉन से विधायक बने नेताओं की तस्वीर नीतीश को परेशान करती रही है. दिवंगत राम विलास पासवान की लोजपा आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को टिकट देने में कुख्यात थी.
उन्होंने एक बार तो यहां तक कहा था, ‘इसे इस तरह देखें कि मैं उन्हें अपराध से दूर ले जा रहा हूं. सांसद और विधायक बनने के बाद वे अपराध में लिप्त नहीं रहेंगे.’
पटना विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एन.के. चौधरी का कहना है कि दबंगों और राजनेताओं के बीच एक सहअस्तित्व का संबंध होता है.
चौधरी ने कहा, ‘ईवीएम आने के बाद बूथ कैप्चरिंग भी खत्म हो गई है. लेकिन राजनीतिक दलों को अब भी मतदाताओं को डराने-धमकाने के लिए अपराधियों की जरूरत होती है. अपराधी से नेता बनने वालों को लगता है कि अगर वे विधायक नहीं बनते हैं या राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल नहीं करते हैं, तो कानून के हत्थे चढ़ जाएंगे. अपराधियों और राजनीतिक दलों के बीच जबर्दस्त साठगांठ है. चुनाव आयोग को और सख्त होने की जरूरत है.’
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