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Thursday, 28 March, 2024
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वो 3 प्रमुख कारण जिसकी वजह से चिराग से दूरी दिखाकर भी नीतीश के नजदीक नहीं पहुंच पा रही है BJP

चिराग पासवान से दूरी बनाने के भाजपा के प्रयासों को संशय की दृष्टि से देखने की तीसरी वजह है बिहार में एनडीए से लोजपा के बाहर निकलने के पीछे कोई ठोस कारण नहीं होना.

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बिहार में पहले चरण के मतदान से केवल नौ दिन दूर, वोटर दुविधा में पड़े होंगे. और शायद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी. वे जानते हैं कि चिराग पासवान के हनुमान समान दिल में कौन बसता है – नरेंद्र मोदी. लेकिन उन्हें ये नहीं पता कि चिराग के दिमाग में क्या है. कौन हैं चिराग पासवान? प्रधानमंत्री मोदी का स्वयंभू ‘हनुमान’ या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से अपने रिश्तों को लेकर ‘भ्रम’ फैलाने वाला एक झूठा व्यक्ति?

स्वर्गीय रामविलास पासवान के पुत्र और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के अध्यक्ष चिराग ये साबित के लिए अपना सीना चीरने को तैयार हैं कि वहां मोदी बसते हैं. जबकि भूपेंद्र यादव और प्रकाश जावड़ेकर जैसे भाजपा नेता हमें यकीन दिलाना चाहते हैं कि युवा दलित नेता महज एक ‘वोट-कटवा’ हैं और झूठ बोल रहे हैं. सच्चाई क्या है ये तो चिराग या भाजपा नेताओं को ही पता होगा.

चिराग हमेशा ही अपने पिता के रास्ते पर चले हैं. उनके पिता ने एक बार इस लेखक से कहा था, ‘वह कभी मेरी इच्छा के विरुद्ध नहीं जाएगा.’ और, एलजीपी के संस्थापक रामविलास पासवान राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) छोड़ना नहीं चाहते थे – या उन्होंने कभी इस बात का संकेत नहीं दिया था. यदि उन्होंने अपने बेटे को कुछ और बताया हो, तो हमें उसकी जानकारी नहीं है. जहां तक सीनियर पासवान की बात है, तो मोदी उनसे अधिक आज्ञाकारी एवं आदर्श गठबंधन सहयोगी और मंत्रिमंडलीय सहयोगी की उम्मीद नहीं कर सकते थे.


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चिराग के लिए सबकुछ ठीक नहीं

एक समय था जब मनमोहन सिंह सरकार में कैबिनेट मंत्री रामविलास पासवान हर मंत्रिमंडलीय बैठक के बाद रिपोर्टरों के साथ दरबार लगाया करते थे. लेकिन मोदी की कैबिनेट बैठकों में भाग लेना शुरू करते ही वह हर सवाल को टालने लगे थे: ‘क्या कहते हैं कि कैसे भी पूछ लीजिए, कोई फायदा नहीं. आपको पता है, सब कॉन्फिडेंशियल होता है.’

रामविलास पासवान दलित मुद्दों पर बहुत मुखर हुआ करते थे. लेकिन जब किसी भाजपा शासित राज्य में दलितों पर अत्याचार की घटना को लेकर विवाद छिड़ता, तो वह केवल अपने मंत्रालय के कार्यों पर ही बात करना पसंद करते.

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तो फिर नीतीश कुमार की निरंतर आलोचना कर एनडीए को शर्मिंदा करने के चिराग के अभियान की सीनियर पासवान द्वारा अनदेखी कैसे संभव हुआ? मुख्यमंत्री के खिलाफ चिराग की मार्च में शुरू हुई बयानबाज़ी, आगामी चुनाव में नीतीश कुमार के जनता दल (यूनाइटेड) के खिलाफ उतरने के लिए एनडीए का साथ छोड़ने के साथ पूर्णता तक पहुंची. कुमार की अलोकप्रियता और मोदी की लोकप्रियता के मद्देनज़र बिहार भाजपा के कुछ नेताओं के एकला चलो की नीति पर जोर देने के कारण राजनीतिक गलियारे में चिराग के फैसले को विधानसभा में जदयू की संख्या कम कर नीतीश को कमज़ोर करने की भाजपा की चाल के रूप में देखा गया, ताकि उचित मौके पर उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाया जा सके.

जब यह सिद्धांत ज़ोर पकड़ने लगा और सचमुच में भाजपा-जदयू समन्वय को प्रभावित करने लगा, तो भाजपा नेता तमाम साजिशी पहलुओं को खारिज करने के लिए जी-जान से जुट गए. अचानक चिराग पासवान की छवि उतावले और मैकबेथ जैसी अतिमहत्वाकांक्षा से भरे व्यक्ति की बना दी गई.

हालांकि तीन कारण ऐसे हैं जो चिराग से दूरी बनाने की भाजपा की कोशिशों को लेकर जवाबों से अधिक सवाल खड़े करते हैं.

अमित शाह का स्पष्टीकरण

पहली बात गृहमंत्री और भाजपा के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह के शनिवार को न्यूज़18 नेटवर्क को दिए साक्षात्कार से निकलकर आई. उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे सीटों के बंटवारे को लेकर भाजपा और लोजपा में कई दौर की वार्ताओं के बावजूद सहमति नहीं बन पाई. इस तरह की खबरें सामने आ चुकी हैं कि लोजपा ने 36 सीटों की मांग की लेकिन भाजपा 20 से अधिक के लिए तैयार नहीं थी.

जब शाह से पूछा गया कि क्या चिराग के गठबंधन (एनडीए) में वापस आने की कोई संभावना है, तो शाह का जवाब था, ‘हम देखेंगे कि चुनावों के बाद क्या स्थिति बनती है. वर्तमान में हम पूरे ज़ोर से एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं…’ इस पर साक्षात्कारकर्ता ने जब पूछा कि क्या इसे चिराग के एनडीए में लौटने की संभावना का संकेत माना जाए, तो शाह का जवाब था, ‘मैंने ऐसा नहीं कहा. मैं बस ये कह रहा हूं कि हम देखेंगे कि चुनावों के बाद क्या स्थिति बनती है…’

तो, वास्तव में शाह का क्या मतलब था? सही आकलन के लिए उनकी टिप्पणियों को दोबारा पढ़ें. भाजपा नेतृत्व चुनावों के बाद चिराग पासवान की एनडीए में वापसी से इनकार नहीं कर रहा. (और यदि ऐसा हुआ, तो वह कोई मंत्रालय पाने की भी उम्मीद कर सकते हैं, भले ही अपने स्वर्गीय पिता की तरह उन्हें कैबिनेट मंत्री का ओहदा नहीं मिले.)

क्या आपने इससे पहले भाजपा को किसी राजनीतिक दल या नेता के प्रति इतना उदार और क्षमाशील पाया था (मौजूदा घटनाक्रम में चिराग), जोकि बिहार में एनडीए की चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंचाने पर अड़ा हुआ हो?

शाह ने ज़ोर देकर कहा कि नीतीश कुमार ही दोबारा मुख्यमंत्री बनेंगे, इस पर किसी तरह का संशय नहीं है. इस बारे में कोई अस्पष्टता वैसे भी नहीं थी. शाह और भाजपा के अन्य नेता लगातार ये बात कहते रहे हैं. लेकिन उन्होंने ये नहीं कहा है कि नीतीश पांच वर्षों के पूरे कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री होंगे.


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नीतीश का आकलन

चिराग पासवान के बारे में तथा नीतीश कुमार के साथ अपने संबंधों और समन्वय को लेकर भाजपा के स्पष्टीकरण पर संदेह का दूसरा कारण है भाजपा के चुनाव अभियान की दिशा. नीतीश अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को बहुत महत्व देते हैं और इस बार उनकी पार्टी जदयू ने 11 मुसलमानों को चुनाव मैदान में उतारा है. लेकिन भाजपा नेताओं की दिलचस्पी ध्रुवीकरण वाले चुनाव अभियान में दिखती है. सबसे पहले केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय ने ‘कश्मीर के आतंकवादी’ वाले बयान के ज़रिए इसका संकेत दिया. उनके वरिष्ठ मंत्रिमंडलीय सहयोगी गिरिराज सिंह ने चुनावी भाषणों में जिन्ना और शर्जील इमाम के नाम उछाल कर इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया. इसी तरह भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपने भाषण में जेल में बंद माफिया डॉन शाहबुद्दीन का ज़िक्र किया.

और ये तो बस शुरुआत है. उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बिहार में करीब डेढ़ दर्जन चुनावी सभाएं करने वाले हैं. आप कल्पना कर सकते हैं कि मैदान में उनके उतरते ही इस मुद्दे को कितना तूल मिलेगा.

उत्तरप्रदेश में दलितों पर अत्याचार और मुख्यमंत्री की ठाकुरवादी छवि को लेकर आदित्यनाथ सरकार की हो रही आलोचनाओं को देखते हुए नीतीश कुमार को बिहार में उनके प्रचार अभियान को लेकर घबराहट हो रही होगी. जदयू के उम्मीदवारों में से करीब 40 फीसदी दलित या अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) समुदायों से हैं. लेकिन आदित्यनाथ के चुनावी कार्यक्रमों से भाजपा की संभावनाओं को बल मिल सकता है क्योंकि उसके 110 में 51 उम्मीदवार ऊंची जातियों के हैं.


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रामविलास पासवान की समझ बेहतर थी

चिराग पासवान से दूरी बनाने के भाजपा के प्रयासों को संशय की दृष्टि से देखने की तीसरी वजह है बिहार में एनडीए से लोजपा के बाहर निकलने के पीछे कोई ठोस कारण नहीं होना. विगत तीन दशकों के दौरान रामविलास पासवान ने छह प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया था. उन्हें ऐसे ही ‘मौसम वैज्ञानिक’ नहीं कहा जाता था. बिहार में एनडीए की संभावनाओं के लिए संकट खड़ा करके वे भला अपने कैबिनेट मंत्री के ओहदे को दांव पर क्यों लगाते? इसका कोई मतलब नहीं निकलता है — बशर्ते आप इस कच्चे राजनीतिक विश्लेषण में यकीन करते हों कि चिराग खुद ही फैसले कर रहे थे, न कि उनके पिता जिनका कि 8 अक्टूबर को निधन हो गया.

सिर्फ पासवान वोटरों के बीच, जिनकी बिहार की आबादी में 5 प्रतिशत हिस्सेदारी है, अपने सीमित जनाधार पर गौर करते हुए लोजपा नेता को बिहार के विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी के निरंतर पतन का एहसास होगा. पार्टी को फरवरी 2005 के चुनावों में 29 सीटें मिली थीं, लेकिन उसी साल अक्टूबर में हुए चुनावों में यह संख्या घटकर 10 रह गई थी. उसके आगे 2010 और 2015 के चुनावों में तो लोजपा को क्रमश: तीन और दो सीटों पर ही सफलता मिल सकी थी. किसी चमत्कार की उम्मीद में ही रामविलास पासवान अपने बेटे को 2020 का विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ने के लिए कहे होते. स्वर्गीय दलित नेता एक स्वप्नद्रष्टा थे, लेकिन निश्चय ही वे दिवास्वप्न देखने वालों में से नहीं थे. उनका व्यावहारिक राजनीति में पूरा यकीन था. उन्हें इस बात का एहसास होगा कि बिहार के एक प्रभावी नेता के रूप में उभरने के लिए चिराग को अभी और वक्त चाहिए, और अभी अमित शाह एंड कंपनी की छत्रछाया में रहना उनके लिए बेहतर होगा. मौजूदा स्थिति में अकेले चलने के फैसले से उनका राजनीतिक करियर संकट में पड़ सकता है.

और यही कारण है कि भाजपा नेता चिराग पासवान से दूरी बनाने की जितनी अधिक कोशिश करते हैं, उतने ही अधिक सवाल खड़े होते हैं. आने वाले दिनों में, मोदी और नीतीश कुमार कई चुनावी रैलियों में मंच साझा करेंगे, और उससे भाजपा-जदयू कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के बीच सारे भ्रम दूर होने की उम्मीद है. सबकी दिलचस्पी इसमें होगी कि चिराग पासवान के बारे में प्रधानमंत्री क्या कहते हैं, बशर्ते वह कुछ कहना चाहें.

(यहां व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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