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Monday, 6 May, 2024
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बिहार में मल्लाह वोटों पर दांव, ‘जबरदस्त सौदेबाजी’ करने वाले मुकेश सहनी बीजेपी के लिए एक कठिन चुनौती हैं

जातिगत वोटों पर नजर, बीजेपी विकासशील इंसान पार्टी को एनडीए में शामिल करने की इच्छुक है, लेकिन इसके प्रमुख मुकेश सहनी लोकसभा सीटों और आरक्षण की मांगें इसे आसान नहीं होने दे रहे हैं.

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नई दिल्ली: बिहार के जाति-आधारित राजनीतिक परिदृश्य में, मल्लाह मछुआरा समुदाय के नेता और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के संस्थापक मुकेश सहनी, भाजपा के लिए टेढी खीर साबित हो रहे हैं.

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा के राजनीतिक मास्टरमाइंड, बिहार में विपक्षी भारतीय गठबंधन के भीतर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रभावशाली जाति गठबंधन का मुकाबला करने के लिए सहनी को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में लाने के लिए उत्सुक हैं. लेकिन जहां शाह को जीतन राम मांझी (हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा) और उपेंद्र कुशवाहा (राष्ट्रीय लोक समता पार्टी) जैसे अन्य क्षेत्रीय जाति नेताओं के साथ सफलता मिली है, वहीं सहनी लोकसभा सीटों और अपने समुदाय के कोटा (आरक्षण) के लिए कड़ी सौदेबाजी कर रहे हैं.

पूर्व मंत्री सहनी, जिनका मल्लाह (निषाद भी कहा जाता है) समुदाय में एक बड़ा समर्थन आधार है, जब बिहार में 2020 में चुनाव हुए तो वह एनडीए के सदस्य थे, लेकिन पिछले साल मार्च में उनके चार में से तीन विधायक पार्टी से जाने के बाद भाजपा के साथ उनके संबंधों में खटास आ गई.

तब से, शाह ने सहनी को इस जनवरी में वाई-प्लस सुरक्षा प्रदान करने जैसे प्रस्ताव दिए हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि ये दांव भी फेल हो गए हैं.
पिछले महीने, सहनी ने अपने समुदाय, जो अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के अंतर्गत आता है, के लिए आरक्षण की मांग करने के लिए बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में 100 दिवसीय निषाद आरक्षण यात्रा शुरू की थी.

रथ की विशेषता बताई गई है कि इसकी लागत 5 करोड़ रुपये है, यह यात्रा उत्तर बिहार में काफी भीड़ खींच रही है. इसे व्यापक रूप से बिहार जाति जनगणना के आंकड़ों के प्रकाशन से पहले मल्लाहों के लिए आरक्षण की कहानी तय करने के प्रयास के रूप में देखा जाता है.

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सहनी ने दिप्रिंट को बताया, ”हम अपने समुदाय के लिए आरक्षण की मांग के साथ पूरे बिहार में घूम रहे हैं.” “जो हमारी मांग मानेंगे उन्हें हमारा वोट मिलेगा. अगर भाजपा मछुआरा समुदाय का उत्थान करना चाहती है तो वह मांग स्वीकार क्यों नहीं कर सकती?”

लेकिन भाजपा के लिए, सब-कोटा की किसी भी मांग को स्वीकार करना एक मुश्किल प्रस्ताव है क्योंकि इससे अन्य समुदायों में भी इसी तरह के आंदोलन शुरू हो सकते हैं. साथ ही, पार्टी ईबीसी और महादलितों को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती, जिन पर वह नीतीश के गठबंधन का मुकाबला करने के लिए ध्यान केंद्रित कर रही है.

संतुलन बनाने के लिए, भाजपा का समाधान अपने स्वयं के ईबीसी नेताओं का लाभ उठाना है. इसके लिए, पार्टी ने इस महीने की शुरुआत में अपेक्षाकृत कम प्रोफ़ाइल वाले मल्लाह नेता हरि सहनी को बिहार विधान परिषद में विपक्ष के नेता के रूप में नियुक्त किया.

बिहार बीजेपी के एक पदाधिकारी ने कहा, “इससे मुकेश सहनी की सौदेबाजी की शक्तियां कमजोर होंगी और साथ ही मल्लाह समुदाय को भी एक संदेश जाएगा.” उन्होंने स्वीकार किया कि हालांकि हरि सहनी के पास मुकेश सहनी जैसे समर्थन आधार का अभाव है, लेकिन यह कदम बाद के विकल्पों को सीमित करने में मदद कर सकता है.

कई नेताओं ने आगे कहा कि लोकसभा सीटों के लिए वीआईपी प्रमुख की “कड़ी सौदेबाजी” से भाजपा अपना धैर्य खो रही है.

बातचीत करने वाली टीम का हिस्सा रहे बिहार बीजेपी के एक सांसद ने कहा, “मुकेश सहनी की सीटों की मांग अनुचित है – वह 11 सीटें (कुल 40 में से) मांग रहे हैं.” “2020 के विधानसभा चुनावों में, सहनी ने केवल चार सीटें जीतीं (11 में से चुनाव लड़ा), और गठबंधन की कोई भी बात केवल किसी पार्टी की यथार्थवादी ताकत के आधार पर ही हो सकती है.”


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पीछे हटने के संकेत नहीं, बीजेपी से कड़वाहट!

मुकेश सहनी, जो खुद को ‘सन ऑफ मल्लाह’ कहते हैं, का दरभंगा, मधुबनी, वैशाली, मुजफ्फरपुर और खगड़िया सहित उत्तर बिहार की कई महत्वपूर्ण लोकसभा सीटों पर अपने समुदाय के बीच जबरदस्त प्रभाव है.

चल रही निषाद यात्रा के दौरान, उन्होंने घोषणा की है कि वीआईपी जिस भी गठबंधन में शामिल होगा वह बिहार, यूपी और झारखंड में “60 सीटें” जीतेगा.

जहां वीआईपी का दावा है कि बिहार में निषाद समुदाय के 14 फीसदी वोट हैं, वहीं दूसरी पार्टियों का अनुमान है कि यह 7 फीसदी के करीब है.

अब तक, छह दलों के साथ नीतीश के नेतृत्व वाला गठबंधन, बिहार में एनडीए की तुलना में अधिक भीड़भाड़ वाला है. इसलिए, एनडीए वीआईपी जैसी पार्टियों को समायोजित करने के लिए बेहतर स्थिति में है.

हालांकि, भाजपा सांसद ने पहले कहा था कि मुकेश सहनी की मांगें “व्यावहारिक” नहीं थीं, उन्होंने बताया कि लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) जैसी बेहतर स्थापित पार्टियों ने भी कम से कम – छह सीटें मांगी थीं.

हालांकि, जब उन्होंने दिप्रिंट से बात की, तो विधान परिषद में विपक्ष के नेता के रूप में हरि सहनी की नियुक्ति के बाद भी सहनी का आत्मविश्वास बरकरार था – जिसे भाजपा की ओर से दबाव की रणनीति के रूप में देखा गया.

उन्होंने कहा, “मल्लाहों को उनके अधिकारों के बारे में जागृत करने के हमारे काम के बाद, भाजपा ने एक मल्लाह को परिषद में नेता के रूप में चुना है. अब हमें उम्मीद है कि हरि सहनी समुदाय के लिए काम करेंगे.”

इस बीच, हरि सहनी ने दिप्रिंट को बताया कि गठबंधन के लिए वीआईपी से संपर्क करना है या नहीं, यह बीजेपी आलाकमान पर निर्भर है.

उन्होंने कहा, “लेकिन मैं कुछ सवाल पूछना चाहता हूं.”हरि सहनी ने कहा, “भाजपा ने 2020 में सहनी को 11 सीटें दीं, लेकिन उन्होंने कितने मल्लाह उम्मीदवार उतारे? जब उन्हें मंत्री बनाया गया तो उन्होंने तब आरक्षण के लिए आवाज क्यों नहीं उठाईं? ये ऐसे सवाल हैं जो समुदाय अक्सर पूछता है, उन्हें इन सवालों का जवाब देना चाहिए. ”

पिछले पांच वर्षों में, मेकेश सहनी का भाजपा के साथ प्रेम-नफरत का रिश्ता रहा है.

2018 में गठित वीआईपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, राजद और अन्य दलों वाले बिहार ग्रैंड अलायंस के हिस्से के रूप में तीन सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन किसी में भी जीत हासिल नहीं हुई. उस समय, भाजपा, नीतीश की जद (यू) और राम विलास पासवान की एलजेपी ने एक साथ चुनाव लड़ा था. भाजपा ने 17 सीटें, जद (यू) ने 16 और एलजेपी ने छह सीटें जीतीं.

2020 के बिहार विधानसभा चुनावों के लिए, ग्रैंड अलायंस के साथ सीट-बंटवारे की व्यवस्था में गिरावट के बाद सहनी भाजपा के पक्ष में चले गए. 11 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए उनकी पार्टी ने चार सीटें जीतीं, हालांकि सहनी खुद हार गए. इसके बावजूद उन्हें एमएलसी सीट दी गई और मंत्री बनाया गया.

हालांकि, गठबंधन जल्द ही दक्षिण में चला गया. यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ 53 उम्मीदवार उतारने के बाद मार्च 2022 में सहनी को कैबिनेट से हटा दिया गया था. इससे कुछ समय पहले ही उनके तीन विधायक पाला बदलकर बीजेपी में शामिल हो गए थे. तब से सहनी ने बीजेपी के खिलाफ आक्रामक रुख अपना रखा है.

बीजेपी के लिए एक पहेली

सहनी का राजनीतिक नजरिया क्षेत्र के अन्य जाति-आधारित नेताओं से भिन्न नहीं है, जैसे कि बिहार में उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी, या उत्तर प्रदेश के ओमप्रकाश राजभर, जिनमें से सभी के पास चुनावी चक्रों में निष्ठा बदलने का ट्रैक रिकॉर्ड है.

जबकि वीआईपी नेता इस बात पर जोर देने के इच्छुक हैं कि वे भाजपा द्वारा किए गए पिछले “विश्वासघातों” को नहीं भूले हैं, ऐसे संकेत हैं कि एक रास्ता खुला है. वीआईपी प्रवक्ता देव ज्योति ने कहा, “जो लोग आरक्षण की हमारी मांग का समर्थन करेंगे, हमारे वोट उन्हें स्थानांतरित कर दिए जाएंगे.”

हालांकि, भाजपा का लक्ष्य बिहार में नीतीश कुमार के गठबंधन का मुकाबला करने के लिए एक व्यापक जाति गठबंधन बनाना है, जिसका ओबीसी, यादव, मुस्लिम, कुर्मी और महादलितों के बीच एक मजबूत आधार है, लेकिन वह मल्लाह आरक्षण के लिए वीआईपी के अनुरोध का समर्थन करने को लेकर सतर्क है. डर यह है कि ऐसा करने से अन्य ईबीसी समुदाय नाराज हो सकते हैं और तथाकथित मंडल राजनीति के एक नए दौर की शुरुआत हो सकती है.

भाजपा ओबीसी मोर्चा के महासचिव निखिल आनंद ने कहा, “सरकार ने मत्स्य सम्पदा योजना से लेकर विश्वकर्मा योजना तक, ईबीसी और पिछड़े समुदायों के लिए कई सकारात्मक कार्रवाई उपाय किए हैं.” “न केवल बिहार बल्कि पूरे देश में मछुआरे बड़ी आशा से भाजपा की ओर देख रहे हैं”

हालांकि, बिहार के एक अन्य भाजपा सांसद ने कहा कि पार्टी के पास बिहार में “बहुत सारे विकल्प नहीं हैं”. जैसा कि दिप्रिंट ने पहले बताया था, लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा की रणनीति का हिस्सा अधिक वोट बैंक के लिए छोटी पार्टियों का लाभ उठाना है.

उन्होंने कहा,“हम नीतीश कुमार के वोट बैंक में सेंध लगाना चाहते हैं. ऐसे नेताओं (जैसे सहनी) के पास एक निर्वाचन क्षेत्र में 50,000-1 लाख वोट होते हैं. एक विकल्प जो हम आज़मा रहे हैं वह है अपने नेताओं को तैयार करना, लेकिन इसमें समय लगेगा.”

उन्होंने स्वीकार किया कि अन्य लो-प्रोफाइल नेताओं जैसे कि रेनू देवी और तारा किशोर प्रसाद, दोनों पूर्व डिप्टी सीएम को बढ़ावा देने के प्रयासों को केवल सीमित सफलता मिली.

उन्होंने कहा, ”हमें व्यावहारिक रूप से सोचना होगा.” “सहानी के साथ काम करने के लिए अभी कई महीने हैं. राजनीति में हर दिन एक नया दिन होता है.”

(अनुवाद: पूजा मेहरोत्रा)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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