नई दिल्ली: भारतीय वैज्ञानिकों ने 1997 की शुरुआत में परमाणु परीक्षण करने के लिए ‘एक तारीख’- जो रविवार का दिन था- तय कर ली थी लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने उन्हें ‘कम से कम एक साल’ इंतजार करने को कह दिया.
देवेगौड़ा ने अपनी जल्द ही रिलीज होने वाली जीवनी फरो इन ए फील्ड में प्रकाशित एक इंटरव्यू में परीक्षण की दिशा में आगे बढ़ने की मंजूरी न देने के तीन कारण बताए हैं- ये है व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) पर हस्ताक्षर करने के लिए अमेरिकी दबाव, पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की मंशा और तत्कालीन आर्थिक स्थिति.
आखिरकार ये परमाणु परीक्षण- पोकरण-2- मई 1998 को अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के करीब सात हफ्ते बाद हुए थे. यह बात तो जगजाहिर है कि उनके पूर्व प्रधानमंत्री रहे आई.के. गुजराल और एच.डी. देवेगौड़ा ने इन परीक्षणों की अनुमति नहीं दी थी. लेकिन यह पहली बार है कि देवेगौड़ा ने खुलासा किया है कि उस समय उनके और वैज्ञानिकों के बीच आखिर हुआ क्या था.
फरवरी 1997 में परमाणु ऊर्जा आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष राजगोपाल चिदंबरम और उस समय रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार रहे ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने परमाणु परीक्षणों की मंजूरी के लिए देवेगौड़ा से उनके कार्यालय में मुलाकात की थी. तब देवेगौड़ा ने उनसे कहा था, ‘मैं आपको अनुमति दूंगा. और आपको और पैसे भी दूंगा लेकिन कृपया एक साल रुक जाएं’, जैसा कि उन्होंने अपने जीवनी लेखक सुगाता श्रीनिवासराजू को दिए एक इंटरव्यू में बताया है.
तत्कालीन प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिकों को स्पष्ट तौर पर बताया, ‘सीटीबीटी को लेकर मुझ पर बहुत दबाव है. मैं पाकिस्तान सहित सभी पड़ोसी देशों के साथ संबंध सुधारने की भी कोशिश कर रहा हूं. परीक्षण से हमारे सारे प्रयास बेकार हो जाएंगे. साथ ही, हमें आर्थिक स्तर पर स्थिरता लाने के लिए भी कुछ और समय चाहिए…मैं प्रतिबंधों से नहीं डरता लेकिन मुझे समय चाहिए.’
देवेगौड़ा ने यह भी बताया कि उन्हें साफ दिख रहा था कि वैज्ञानिक ‘निराश’ थे. उन्होंने जीवनी लेखक को बताया, ‘उन्होंने मुझे बताया था कि इससे कैसे पूरी दुनिया को यह पता चल जाएगा कि भारत एक शक्तिशाली देश है. मैं फिर कहता हूं कि मैं जानता था कि वे इसे अगले दिन ही करने में सक्षम थे और मैं परीक्षणों के खिलाफ नहीं था…लेकिन मुझे अपनी प्राथमिकताओं पर ध्यान देना था और इसके लिए मुझे उनसे कम से कम एक साल का वक्त चाहिए था.’
देवेगौड़ा के मुताबिक, वाजपेयी जानते थे कि वह एक राजनीतिक अनिश्चितता से घिरे हुए हैं क्योंकि जयललिता की अन्नाद्रमुक एक अविश्वसनीय गठबंधन सहयोगी थी. देवेगौड़ा ने श्रीनिवासराजू से कहा, ‘उन्होंने (वाजपेयी ने) परीक्षणों को एक राष्ट्रवादी नारे में बदल दिया, जो दुर्भाग्यपूर्ण था… उस दिन (जब पाकिस्तान ने परमाणु परीक्षण किया था), पांच करोड़ पाकिस्तानी और नब्बे करोड़ भारतीय एक बराबरी पर आ गए. भारत ने अपनी रणनीतिक मजबूती को गंवा दिया.’
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महबूबा मुफ्ती के पिता चाहते थे कि सेना उनकी जीत सुनिश्चित करे
जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने 1996 में जब कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर बिजबेहरा निर्वाचन क्षेत्र से अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ा था तो उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उनकी जीत सुनिश्चित करने के लिए सेना की मदद मांगी थी. यह बात लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर) जे.एस. ढिल्लों ने देवेगौड़ा की जीवनी के लेखक को बताई है. जब चुनाव हुए थे तब वह कश्मीर में सेना की 15वीं कोर के कमांडर थे.
लेफ्टिनेंट जनरल ढिल्लों ने जीवनी लेखक को दिए एक इंटरव्यू में कहा, ‘एक बार मुफ्ती मोहम्मद सईद बादामी बाग कार्यालय में मुझसे मिलने आए. उन दिनों वह कांग्रेस में थे. उन्होंने कहा कि उनकी बेटी महबूबा और उनकी पत्नी दोनों अनंतनाग क्षेत्र से चुनाव लड़ रही हैं और वह चाहते थे कि उन दोनों को जीत हासिल हो.’
लेफ्टिनेंट जनरल ढिल्लों ने बताया, ‘मैंने उनसे कहा, मुफ्ती साहब मैं जीत के बारे में तो कुछ नहीं कह सकता लेकिन मेरा वादा है कि वहां वोटिंग होगी. आतंकवादी चाहे कितनी भी संख्या में हो लेकिन वहां वोट जरूर पड़ेंगे. इसके अलावा, अगर आपको लगता है कि हम आपकी बेटी और पत्नी की जीत दिलाने में मदद करेंगे, तो ऐसा नहीं हो सकता. यह सब सुनकर वह थोड़ा निराश जरूर हो गए थे.’
मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा ने 1999 में जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (जेकेपीडीपी) के गठन के लिए कांग्रेस छोड़ दी थी.
लेफ्टिनेंट जनरल ढिल्लों ने मंगलवार को दिप्रिंट से बातचीत के दौरान ये पुष्टि की कि पूर्व गृह मंत्री ने चुनाव में अपनी बेटी की जीत सुनिश्चित करने के लिए उनसे संपर्क साधा था. हालांकि, उन्होंने कहा कि इसका सईद के साथ उनके संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ा, उन्होंने इस विषय पर फिर कभी कोई बात नहीं की. उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन मैं बताना चाहता हूं कि कश्मीरी राजनेताओं के लिए मेरे मन में बहुत ज्यादा सम्मान है क्योंकि वे तमाम खतरों के बीच काम करते हैं.’
अपने पिता की तरफ से सेना का समर्थन मांगने के लेफ्टिनेंट जनरल ढिल्लों के दावे पर महबूबा मुफ्ती की टिप्पणी के लिए दिप्रिंट ने उनसे संपर्क साधा है. उनका जवाब आने पर कॉपी को अपडेट किया जाएगा.
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देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बनने के अनिच्छुक थे
जीवनी में देवेगौड़ा ने विस्तार से यह बात बताई है कि कैसे उन्होंने 1996 में प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी का पुरजोर विरोध किया था. माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत उस समय पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सीएम ज्योति बसु के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा के पीएम पद के उम्मीदवार को तलाश रहे थे. तब वामपंथी दल ने बसु की उम्मीदवारी को वीटो कर दिया था- जिसे बसु ‘ऐतिहासिक भूल’ करार देते थे.
गठबंधन सहयोगियों की पहली पसंद पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह थे. देवेगौड़ा, एम. करुणानिधि, चंद्रबाबू नायडू और मुरासोली मारन दिल्ली में 1, राजाजी मार्ग स्थित आवास पर वी.पी. सिंह से मिलने पहुंचे. वी.पी. सिंह उनसे मिलने के लिए लॉन में आए, उनका अभिवादन किया और फिर घर के अंदर चले गए.
उन्होंने बताया, ‘हमें बाद में पता चला कि वह पीछे के दरवाजे से कहीं चले गए थे. करीब दो घंटे के बाद उनकी पत्नी बाहर आईं और उन्होंने हमसे कहा…हमें इंतजार नहीं करना चाहिए और वह हमारे पीएम बनने के प्रस्ताव से सहमत नहीं होंगे.’
इसके बाद बसु की उम्मीदवारी पर चर्चा शुरू हुई. माकपा की तरफ से इसे खारिज कर दिए जाने के बाद बसु ने लालू यादव और सुरजीत की मौजूदगी में देवेगौड़ा को बुलाया और कहा कि कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री को यह पदभार संभालना चाहिए. हालांकि, देवेगौड़ा ने इसका विरोध करते हुए कहा कि उन्हें अभी मुख्यमंत्री बने दो साल से भी कम समय हुआ है.
उन्होंने कहा, ‘मेरा कैरियर अचानक खत्म हो जाएगा. कांग्रेस हमें लंबे समय तक सरकार चलाने नहीं देगी. मैं आपके जैसा बनना चाहता हूं (ज्योति बसु), सर. मैं कई सालों तक कर्नाटक पर शासन करना चाहता हूं… फिर मुझे हिंदी भी ठीक से नहीं आती है.…आप हमारे बड़े हैं, मैं आपसे आग्रह ही कर सकता हूं.’
जैसा कि ज्योति बसु बताते थे, गौड़ा ने ‘उनके पैर छुए’ और ‘उनसे आग्रह किया’ कि उनकी बात मान लें. तब पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा, ‘देवेगौड़ा क्या मैं बाहर जाकर देश के लोगों से यह कहूं कि हमारे पास (अटल बिहारी) वाजपेयी का कोई धर्मनिरपेक्ष विकल्प नहीं है? क्या हम अखबार में धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री के लिए विज्ञापन दे सकते हैं? इसके बाद हारकर देवेगौड़ा ने हामी भर दी.
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देवेगौड़ा सरकार बचाने के लिए वाजपेयी की पेशकश
पीएमओ के तत्कालीन अधिकारियों के हवाले से किताब में बताया गया है कि देवेगौड़ा को ‘एक साल का फोबिया’ था. उन्हें लगता था कि कांग्रेस उनकी सरकार गिराने के लिए देर-सबेर पीछे हट जाएगी. उनकी यह आशंका सही भी साबित हुई जब मार्च 1997 में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी समर्थन वापसी का पत्र लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंच गए. पार्टी की तरफ से तब देवेगौड़ा सरकार को समर्थन दिए बमुश्किल 10 महीने ही बीते थे.
जीवनी लेखक को दिए इंटरव्यू में पूर्व प्रधानमंत्री ने बताया कि उस समय कांग्रेस कैसे अंतर्कलह से जूझ रही थी. संगठनात्मक चुनाव होने थे और कांग्रेस में कई दावेदार थे जो केसरी की जगह लेना चाहते थे. एक दिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राजेश पायलट ने देवेगौड़ा से मुलाकात की. उन्होंने केसरी के खिलाफ तीन साल पुराने हत्या के एक मामले पर बात की और पूछा कि क्या इसे फिर से खोला जा सकता है. पायलट 1993 में केसरी के निजी फिजिशियन सुरेंद्र तंवर की हत्या का जिक्र कर रहे थे. पायलट ने देवेगौड़ा को एक नोट भी दिया था, जिसके बारे में उन्होंने लेखक को बताया कि पायलट के जाने के बाद उन्होंने उसे फाड़ दिया था. केसरी की भूमिका की जांच की मांग को लेकर दिल्ली की कोर्ट में याचिका दायर की गई थी. इस सब पर केसरी से पूछताछ भी हुई थी.
30 मार्च 1997 को केसरी समर्थन वापसी का पत्र लेकर राष्ट्रपति के पास पहुंचे. 9 अप्रैल को देवेगौड़ा के विश्वास प्रस्ताव पेश करने से तीन दिन पहले केसरी ने आर.के. धवन को उनके पास भेजा. धवन ने देवेगौड़ा से कहा कि केसरी पत्र वापस लेने को तैयार हैं यदि वह (देवेगौड़ा) बड़े फैसले लेने से पहले उनसे सलाह न लेने के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगें और उन्हें आश्वास्त दें कि अब उनसे परामर्श करेंगे.
देवेगौड़ा ने जीवनी लेखक को बताया, ‘मैंने कहा कि मैं माफी नहीं मांगूंगा लेकिन सार्वजनिक रूप से यह आश्वस्त जरूर कर सकता हूं कि अब से उनसे सलाह लिया करूंगा. लेकिन केसरी को यह मंजूर नहीं था.’
देवेगौड़ा की तरफ से विश्वास प्रस्ताव पेश किए जाने के बाद जसवंत सिंह ने तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री श्रीकांत कुमार जेना को देवेगौड़ा के लिए एक चिट दी. इसमें लिखा था, ‘हम आपकी सरकार को बचाएंगे. इस्तीफा मत दीजिए. हमारा समर्थन स्वीकार कीजिए.’ यह पर्ची वाजपेयी ने भेजी थी.
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