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Saturday, 1 March, 2025
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बिहार चुनाव से पहले ‘जहान-ए-खुसरो’ कार्यक्रम में PM मोदी की मौजूदगी ने दिया एकता का संदेश

ऐसे कार्यक्रमों में जाना कोई नई बात नहीं है. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने सूफी नेताओं से बातचीत की और 2015 से उनकी सरकार ने सूफी समुदायों को सक्रिय रूप से आकर्षित किया है.

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नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब शुक्रवार को नई दिल्ली में ‘जहान-ए-खुसरो’ सूफी संगीत समारोह में मंच पर आए, तो यह केवल धुनों और कविताओं के बारे में नहीं था. इस तरह के आयोजन में उनकी पहली उपस्थिति का उद्देश्य सभी को एक स्पष्ट राजनीतिक संदेश भेजना था.

फिल्म निर्माता मुजफ्फर अली द्वारा स्थापित और रूमी फाउंडेशन द्वारा आयोजित यह महोत्सव 2001 से सूफी संगीत, कविता और नृत्य के लिए एक प्रमुख मंच रहा है. चूंकि, यह समारोह एक हिंदू वकील द्वारा यह दावा करके विवाद खड़ा करने के कुछ ही महीनों बाद आया है कि अजमेर में ख्वाजा गरीब नवाज़ दरगाह शरीफ कभी एक हिंदू मंदिर था, इसलिए प्रधानमंत्री की उपस्थिति जानबूझकर की गई जवाबी कहानी की तरह लग रही थी — भारत के मुस्लिम समुदाय को लक्षित एकता का इशारा, एक ऐसा समूह जिसे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मुस्लिम वोटों पर विपक्ष की पकड़ को तोड़ने के लिए महत्वपूर्ण मानती है.

प्रेम, संगीत और सद्भाव पर जोर देने वाली सूफी परंपराएं, भाजपा के खुद को समावेशी के रूप में रिब्रांड करने की कोशिश के साथ अच्छी तरह से मेल खाती हैं. यह आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के हाल ही में विभाजनकारी मंदिर-मस्जिद विवादों से बचने पर जोर देने के साथ भी मेल खाता है, जो हिंदू-मुस्लिम सद्भाव को बढ़ावा देने की दिशा में बदलाव का संकेत देता है.

यह लोकप्रिय वार्षिक उत्सव अलाउद्दीन खिलजी के दरबारी कवि अमीर खुसरो की याद में आयोजित किया जाता है, जो अपनी सूफी भक्ति कव्वाली और शांति और सद्भाव, सहिष्णुता और धार्मिक सहयोग को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते हैं.

उत्सव में अपनी उपस्थिति की पुष्टि करते हुए, मोदी ने एक्स पर कहा, “उत्सव में वैश्विक कलाकारों, संगीतकारों और नर्तकियों की भागीदारी देश के समावेशी और सर्वव्यापी विश्वदृष्टिकोण के साथ दृढ़ता से प्रतिध्वनित होती है. भावपूर्ण संगीत की मधुर धुनें लोगों, समाजों और राष्ट्रों के बीच शांति, सद्भाव और मित्रता के पुल का निर्माण करें. मैं नज़र-ए-कृष्णा को देखने के लिए उत्सुक हूं.”

मोदी द्वारा नज़र-ए-कृष्णा का संदर्भ हिंदू धर्म और सूफीस्म के बीच सांस्कृतिक ओवरलैप पर भाजपा के जोर को उजागर करता है. रसखान जैसे सूफी संत, जो 16वीं सदी के सूफी संत थे और कृष्ण की पूजा करते थे और जिन्होंने हिंदू धर्मग्रंथों का फारसी अनुवाद किया था, इस समन्वयवाद का उदाहरण हैं. उत्तर प्रदेश और बंगाल के कुछ हिस्सों में, सूफी दरगाहों पर अक्सर भगवा झंडे और शाकाहारी दावतों के साथ होली जैसे हिंदू त्योहार मनाए जाते हैं — जो कट्टर धार्मिक विभाजन से बहुत दूर है.

भाजपा नेता और अल्पसंख्यक मोर्चा के प्रमुख जमाल सिद्दीकी ने कहा, “सूफीस्म मस्जिदों या मंदिरों के बारे में नहीं है. यह साझा भक्ति के बारे में है.”

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “प्रधानमंत्री मोदी सूफीस्म को भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग मानते हैं. सूफीस्म ने बहुलवाद और समावेशिता की शिक्षा दी. यह भक्ति और प्रेम का धर्म है और इस्लाम में हिंसा और आतंकवाद में विश्वास करने वालों के लिए एक मारक है.”

सूफीस्म की प्रशंसा करते हुए मोदी ने कार्यक्रम में कहा, “भारत में सूफी परंपरा ने अपने लिए एक अलग पहचान बनाई है. सूफी संतों ने खुद को मस्जिदों और खानकाहों तक सीमित नहीं रखा है. उन्होंने (खुसरो ने) पवित्र क़ुरआन के शब्द पढ़े और वेदों के शब्द भी सुने. उन्होंने अज़ान की आवाज़ में भक्ति गीतों की मिठास मिला दी.”

उन्होंने आगे कहा: “वह हिंदुस्तान, जिसकी तुलना हज़रत अमीर ख़ुसरो ने स्वर्ग से की थी. हमारा हिंदुस्तान जन्नत का वो बगीचा है, जहां सभ्यता के हर रंग खिले हैं. यहां की मिट्टी की प्रकृति में कुछ ख़ास बात है. शायद इसीलिए जब सूफी परंपरा भारत आई, तो उसे भी ऐसा लगा जैसे वह अपनी ज़मीन से जुड़ गई हो.”

तनाव का फायदा उठाना

लेकिन हर कोई इससे सहमत नहीं है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर असमर बेग ने इसे “फूट डालो और राज करो” की रणनीति बताया, जो सूफी-गठबंधन वाले बरेलवी और देवबंदियों के बीच तनाव का फायदा उठाती है.

उन्होंने कहा, “भाजपा मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए सरकारी भूमिकाओं में बरेलवी को बढ़ावा देती है.” देवबंदियों की तुलना में बरेलवी (जो सूफी परंपराओं पर हावी हैं) को बढ़ावा देकर, पार्टी मुस्लिम राजनीतिक एकता को खंडित करना चाहती है. हालांकि, संदेहवादी सवाल उठाते हैं कि क्या ऐसी रणनीतियां गहरे सांप्रदायिक अविश्वास को दूर कर सकती हैं, खासकर अल्पसंख्यक समुदायों के साथ भाजपा के विवादास्पद इतिहास को देखते हुए.

एक अलग बात पर, एएमयू के पूर्व कुलपति और भाजपा उपाध्यक्ष तारिक मंसूर ने कहा, “अमीर खुसरो अंतर-धार्मिक सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सद्भाव के प्रतीक थे जिन्होंने समाज में सांप्रदायिक सद्भाव और सहिष्णुता के संदेश को बढ़ावा दिया. प्रधानमंत्री अपनी भागीदारी के माध्यम से सद्भाव और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का यह संदेश देना चाहते हैं.”

ऐसे कार्यक्रमों में जाना कोई नई बात नहीं है. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने सूफी नेताओं से संपर्क किया और 2015 से उनकी सरकार ने सूफी समुदायों को सक्रिय रूप से आकर्षित किया है. 2016 के विश्व सूफी फोरम में मोदी ने वैश्विक हिंसा के बीच सूफीस्म की प्रशंसा करते हुए इसे “आशा की किरण” बताया और मानवता के प्रति करुणा और सेवा की इसकी शिक्षाओं पर जोर दिया. 2023 में, लोकसभा चुनाव से पहले, भाजपा ने अकेले उत्तर प्रदेश में 10,000 सूफी दरगाहों के नेताओं से जुड़ने के लिए मुस्लिम बहुल इलाकों में अपना ‘सूफी संवाद’ शुरू किया.

पार्टी ने पसमांदा मुसलमानों को भी प्राथमिकता दी है और तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाने जैसी मोदी की नीतियों पर जोर दिया है. सिद्दीकी ने तर्क दिया कि कांग्रेस ने ऐतिहासिक रूप से मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में शोषण किया है, जबकि भाजपा “समावेशी विकास” की हिमायती है. सांस्कृतिक प्रतीकवाद के पीछे राजनीतिक गणना छिपी है.

बिहार में, जहां सहयोगी नीतीश कुमार की “धर्मनिरपेक्ष” छवि मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करती है, राज्य सरकार ऐतिहासिक दरगाहों के सूफी सर्किट को बढ़ावा दे रही है. बंगाल और असम में, जहां मुसलमानों की आबादी 30 प्रतिशत है, भाजपा को उम्मीद है कि सूफी संबंध ममता बनर्जी के प्रभुत्व को कम कर सकते हैं. केरल भी इससे अछूता नहीं है: वहां पार्टी के सूफी सम्मेलनों को विरोध का सामना करना पड़ा है, आलोचकों ने भाजपा पर उदारवादी और रूढ़िवादी मुसलमानों के बीच विभाजन बोने का आरोप लगाया है.

फिलहाल, मोदी का सूफी प्रचार एक नाजुक नृत्य है. जब वे अमीर खुसरो की कविता उद्धृत करते हैं या सभी को मुफ्त भोजन परोसने वाली दरगाहों की प्रशंसा करते हैं, तो यह ध्रुवीकरण से थके हुए भारतीयों के साथ प्रतिध्वनित होता है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या सूफी संगीत और साझा कृष्ण भजन वोटों में तब्दील होंगे? या यह आस्था और राजनीति के बीच भारत के लंबे, जटिल नृत्य का एक और अध्याय है?

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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