चंडीगढ़: अकाल तख्त द्वारा वरिष्ठ अकाली नेताओं को सज़ा सुनाए जाने के एक दिन बाद शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के बाहर एक घंटे तक पहरेदारी करते रहे. इसी सज़ा के तहत 88-वर्षीय अकाली नेता सुखदेव सिंह ढींडसा भी उनके साथ शामिल हुए.
62-वर्षीय सुखबीर सिंह बादल मंगलवार को हाथ में भाला लिए सेवादार की पोशाक में व्हीलचेयर पर बैठे. कई अन्य अकाली नेताओं, जिनमें ज्यादातर पूर्व कैबिनेट मंत्री थे, ने मंदिर परिसर में शौचालय साफ किए और बाद में लंगर में बर्तन धोकर सज़ा पूरी की.
अकाल तख्त ने पहले बादल को शौचालय साफ करने की सज़ा सुनाई थी, लेकिन यह देखते हुए कि पिछले महीने उनके पैर में फ्रैक्चर हो गया था और अब वे व्हीलचेयर पर हैं उनकी सज़ा में बदलाव किया गया.
बादल और ढींडसा बुधवार को भी स्वर्ण मंदिर के बाहर अपनी सज़ा जारी रखेंगे. अन्य नेताओं को अपने निवास स्थान के पास गुरुद्वारों में अपनी सज़ा जारी रखनी होगी.
बादल अपनी सज़ा की घोषणा का इंतज़ार कर रहे थे क्योंकि 30 अगस्त को अकाल तख्त ने उन्हें राज्य में सत्ता में रहने के दौरान अकाली दल द्वारा लिए गए “सिख विरोधी” फैसलों के लिए ‘तनखैया’ (धार्मिक कदाचार का दोषी, पापी) घोषित किया था.
आखिरकार, जत्थेदार ज्ञानी रघबीर सिंह ने सिखों के अधिकार वाले ‘पंज साहेबान’ के जत्थेदारों की एक संयुक्त बैठक के बाद स्वर्ण मंदिर में अकाल तख्त भवन की प्राचीर से 2 दिसंबर को उनकी सज़ा की घोषणा की.
घोषणा से पहले, जत्थेदार ने बादल के खिलाफ आरोप पढ़े — डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को माफी दिलाने में मदद करना, तत्कालीन अकाल तख्त जत्थेदारों को माफी देने के लिए प्रभावित करना, 2015 में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी करने के लिए ज़िम्मेदार लोगों को पकड़ने में विफल रहना और पंजाब में उग्रवाद के दिनों में निर्दोष युवाओं की “हत्या” करने वाले अधिकारियों को बढ़ावा देना.
बादल ने सभी आरोपों को स्वीकार किया और माफी मांगी.
इसके अलावा यह कहते हुए कि मौजूदा शिअद नेतृत्व नेतृत्व करने का अपना नैतिक अधिकार खो चुका है, जत्थेदार ने वस्तुतः पार्टी की बागडोर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष हरजिंदर सिंह धामी की अध्यक्षता में गठित छह सदस्यीय समिति को सौंप दी.
यह समिति नए सिरे से शिअद सदस्यता अभियान शुरू करेगी और नए अध्यक्ष और कार्यकारी समिति के लिए चुनावों के संचालन की देखरेख करेगी.
इस रिपोर्ट में दिप्रिंट आपको बता रहा है कि सुखबीर सिंह बादल को दी गई धार्मिक सज़ा का बादल परिवार और शिरोमणि अकाली दल के राजनीतिक भविष्य पर क्या असर पड़ेगा और विशेषज्ञों की इस पर क्या राय है.
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अकालियों के लिए इसके मायने
अमृतसर की गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी (जीएनडीयू) में राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व प्रोफेसर सिख विद्वान जगरूप सिंह सेखों ने दिप्रिंट को बताया कि सोमवार को जो कुछ भी हुआ, वह होना ही था.
सेखों ने कहा, “अकाली दल का पतन 1980 के दशक में शुरू हुआ, जब प्रकाश सिंह बादल ने अपने निहित स्वार्थों के लिए सुरजीत सिंह बरनाला की सरकार को गिरा दिया. अकाली दल पर कब्ज़ा करने के बाद, बादल ने 1990 के दशक के अंत तक शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी) पर पूरा नियंत्रण कर लिया.”
उन्होंने कहा, “गुरुचरण सिंह तोहरा, जिन्होंने कई सालों तक एसजीपीसी का नेतृत्व किया था, ने अपनी स्वतंत्रता का दावा करने की कोशिश की, लेकिन वे बादल के सामने टिक नहीं पाए. फिर, 2007 से सत्ता में दस साल तक, बादलों ने राज्य में कुशासन किया और ‘गुंडागर्दी’ और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया. अब, वह इसकी कीमत चुका रहे हैं.”
सेखों ने कहा, “अगर अकाल तख्त उन्हें (अकालियों को) सज़ा के बाद माफ भी कर दे, तो बड़ा सवाल यह है कि पंजाब के लोग उन्हें माफ करेंगे या नहीं. तनखा भुगतने के बाद बादल धार्मिक रूप से पुनर्जीवित हो सकते हैं, लेकिन उनके लिए राजनीतिक रूप से पुनर्जीवित होना संभव नहीं है.”
यह पूछे जाने पर कि क्या अकाली दल की कम होती पकड़ के कारण पंजाब में कट्टरपंथी ताकतों के बढ़ने की संभावना है, सेखों ने कहा कि राज्य में कट्टरपंथी तत्व महत्वपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि धर्म सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा नहीं है.
सेखों ने कहा, “अकाली सिखों के अलावा, राज्य में गैर-अकाली सिख भी हैं. गैर-सिख, दलित हैं…जिनके लिए राज्य की अर्थव्यवस्था और रोज़गार के लिए ऐसे धार्मिक मुद्दे गौण हैं.”
इतिहासकार सतविंदर सिंह ढिल्लों, जिन्होंने एसजीपीसी चुनावों के इतिहास पर लिखा है, ने कहा कि कट्टरपंथियों के अकाली दल पर कब्ज़ा करने की बहुत कम संभावना है.
ढिल्लों ने कहा, “अकाली दल हमेशा उदारवादी नेतृत्व के पक्ष में रहा है. पार्टी के शुरुआती सालों में खड़क सिंह और मास्टर तारा सिंह के बीच सत्ता की खींचतान थी. खड़क सिंह एक उग्रवादी या उग्रवादी रुख का प्रतिनिधित्व करते थे, जबकि मास्टर तारा सिंह को उदारवादी माना जाता था.”
ढिल्लों ने कहा, “मास्टर तारा सिंह ही थे जो खड़क सिंह को पीछे छोड़कर पार्टी में आगे बढ़े. इसी तरह, 1960 के दशक में, जब संत फतेह सिंह ने मास्टर तारा सिंह के अधिकार को चुनौती दी, तो मास्टर तारा सिंह आगे बढ़े क्योंकि वे मास्टर तारा सिंह से भी अधिक उदारवादी रुख का प्रतिनिधित्व करते थे. पंजाब में सिख हमेशा उदारवादी रहे हैं. इतिहास ने यह साबित कर दिया है.”
ढिल्लों ने कहा कि 1979 के एसजीपीसी चुनावों में अकाली दल ने संत जरनैल सिंह भिंडरावाले द्वारा मैदान में उतारे गए कई उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव लड़ा और जीता.
नए घटनाक्रम पर चर्चा करते हुए चंडीगढ़ की पंजाब यूनिवर्सिटी के पूर्व समाजशास्त्री और पूर्व प्रोफेसर मंजीत सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि अकाली दल के पुनरुत्थान और भविष्य में भाजपा के साथ संभावित गठबंधन के लिए आधार तैयार हो चुका है.
उन्होंने कहा, “पंजाब का लोकतंत्र ऐसा है कि राज्य के अल्पसंख्यक, जैसे हिंदू, तब अधिक सहज और सुरक्षित महसूस करते हैं जब उनकी पार्टी अकाली दल के साथ गठबंधन करती है.”
अमृतसर स्थित सिख इतिहासकार और विद्वान परमजीत सिंह जज ने कहा कि बादल की सज़ा के बाद जो भी स्थिति बनी, अकाली दल राख से सोना बनकर निकलेगा.
उन्होंने कहा, “अकाली दल में बादल परिवार के आधिपत्य को समाप्त करने का प्रयास किया गया है — जिससे पार्टी में नेतृत्व संघर्ष होगा. सवाल यह है कि क्या बाकी अकाली नेता पार्टी की बागडोर संभालने और इसे नई दिशा देने में सक्षम हैं.”
चंडीगढ़ के श्री गुरु गोविंद सिंह कॉलेज के इतिहास विभाग के प्रोफेसर हरजेश्वर सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि बादल और अन्य अकाली नेताओं को अकाल तख्त की सजा कई बातों का संकेत देती है.
उन्होंने कहा, “यह संकेत देता है कि पंथ अकाल तख्त की धार्मिक शाखा ने लंबे समय के बाद राजनीतिक शाखा (शिअद) पर अपना अधिकार फिर से स्थापित कर लिया है. हालांकि, खुद को पूरी तरह से अकाल तख्त के हवाले करके, क्या शिअग अपना पंजाबी चेहरा त्याग कर एक बार फिर पंथिक पार्टी बन जाएगी, यह देखना अभी बाकी है. सुखबीर बादल, अकाल तख्त द्वारा दी गई सज़ा के सामने खुद को विनम्रतापूर्वक पेश करके, अपने राजनीतिक करियर को फिर से संवार सकते हैं. सज़ा निश्चित रूप से सिख समुदाय की आहत सामूहिक अंतरात्मा को शांत करने में मदद करेगी.”
उन्होंने आगे कहा, “साथ ही, सुखबीर की सज़ा अकाली असंतुष्टों के अस्तित्व का कारण समाप्त कर देगी, जो सुखबीर बादल के खिलाफ बरगारी और राम रहीम का इस्तेमाल कर रहे हैं. वे शिअद में लौटेंगे या भाजपा में शामिल होंगे, यह देखना अभी बाकी है. सुनील जाखड़ जैसे भाजपा नेताओं द्वारा इस कदम का स्वागत करने से शिअद-भाजपा के बीच फिर से गठबंधन की अटकलें बढ़ेंगी, जो आने वाले वर्षों में भाजपा को अधिक महत्व देने के आधार पर फिर से बातचीत के जरिए एक साथ आने की संभावना है. कुल मिलाकर, राज्य की राजनीति में क्षेत्रीय और पंथिक स्थान गंभीर रूप से विभाजित, गुटीय और कमजोर बना हुआ है.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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