नई दिल्ली: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस महीने एनडीए का साथ छोड़कर राजद, कांग्रेस और अन्य दलों के साथ महा गठबंधन सरकार बना लेने के बाद उनकी पूर्व सहयोगी पार्टी भाजपा को राज्य में अपने बलबूते पर खड़े होने की कठिन चुनौती का सामना करना पड़ रहा है.
पार्टी सूत्रों के मुताबिक, 2024 के लोकसभा चुनाव और उसके एक साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से पूर्व नीतीश कुमार को कमजोर करने के लिए दोहरी रणनीति पर काम चल रहा है.
इसके तहत सबसे पहले तो अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) का समर्थन हासिल करने की रणनीति अपनाई जानी है. ईबीसी का इस्तेमाल अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) और महादलितों के बीच आर्थिक रूप से सबसे गरीब तबके के संदर्भ में होता है और 2007 में यह शब्द 22 अत्यंत गरीब दलित वर्गों के संदर्भ में खुद नीतीश कुमार ने ही गढ़ा था. नीतीश के नेतृत्व वाले जदयू ने कल्याणकारी योजनाओं और आरक्षण आदि के जरिये इन तबकों को अपने साथ जोड़ा.
दूसरा कदम, दो अपेक्षाकृत लो-प्रोफाइल पूर्व उपमुख्यमंत्रियों, तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी से इतर किसी आक्रामक और बिहार की राजनीति में स्वीकार्य नेता को भाजपा का ‘चेहरा’ बनाना है.
बिहार के एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘हमारी तात्कालिक प्राथमिकता दोनों सदनों (विधान मंडल) में नेता विपक्ष के साथ ही उपनेताओं और एक मुख्य सचेतक का चयन करना है. इन नेताओं का चयन लोकसभा चुनाव की तैयारियों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण होगा. उन्हें मुखर, जुझारू और विधायी तौर पर सक्षम होना चाहिए.’
उन्होंने कहा, ‘अगर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की सहमति होती है, तो हम कुछ ईबीसी नेताओं का चयन कर सकते हैं क्योंकि नीतीश को सबसे ज्यादा मजबूती इसी समूह से मिलती है.’
बिहार भाजपा प्रवक्ता प्रेम रंजन पटेल ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि पार्टी जातिगत राजनीति और हिंदुत्व के बीच संतुलन साधने की उम्मीद कर रही, विशेषकर जब नीतीश राज्यव्यापी जाति जनगणना करा रहे हैं जिसे तमाम लोगों ने मंडल 2.0 के तौर पर वर्णित किया है.
पटेल ने आगे कहा, ‘नीतीश मंडल 2.0 के लिए जाति जनगणना के अपने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो उन्हें और उनके साथ राजद के भी मुफीद बैठता है. भाजपा के सामने दुविधा यह है कि मंडल की राजनीति और हिंदुत्व के बीच संतुलन कैसे साधे.’
बिहार में मंगलवार को नए मंत्रिमंडल में सीएम नीतीश कुमार और राजद के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के अलावा 31 मंत्रियों को शामिल किया गया. बिहार भाजपा नेता सुशील मोदी ने कथित तौर पर मुसलमानों और यादवों को ‘33 प्रतिशत’ मंत्री पद देने और ‘ईबीसी को हाशिए पर रखने; को लेकर नई सरकार की आलोचना का मौका नहीं गंवाया.
सूत्रों ने कहा कि बिहार भाजपा के कोर ग्रुप ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के साथ तीन घंटे की बैठक की, जहां ज्यादातर चर्चा राज्य में लोकसभा चुनाव के लिए रणनीतियों पर केंद्रित रही.
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एक प्रमुख ईबीसी चेहरे की आवश्यकता
ईबीसी तबका बिहार की आबादी का लगभग 25 प्रतिशत होने का अनुमान है और चुनाव पूर्व जाति समीकरणों में एक प्रमुख फैक्टर है.
अब तक, भाजपा इस मोर्चे पर गठबंधन सहयोगी के तौर पर जदयू पर निर्भर रही है, लेकिन अब पार्टी नेताओं को अच्छी तरह पता है कि उन्हें इस समुदाय के साथ-साथ महादलितों को लुभाने के प्रयास भी तेज करने होंगे, जो कि राज्य की आबादी में लगभग 10 प्रतिशत हैं.
भाजपा के एक दूसरे वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘हमारा प्रमुख वोटबैंक अब तक खासकर सवर्ण और गैर-यादव ओबीसी रहे हैं, जबकि नीतीश को मुख्य रूप से ईबीसी और महा दलितों का समर्थन हासिल है. चूंकि प्रधानमंत्री (नरेंद्र मोदी) खुद ओबीसी समुदाय से हैं, हमें बिहार के कुछ इलाकों में ईबीसी वोट मिले थे, लेकिन अब पार्टी के लिए इस वोटबैंक को साधना वास्तव में जरूरी हो गया है.’
इस नेता के मुताबिक, नीतीश ‘उम्रदराज हो रहे हैं’ और ‘बिहार से उनके जाने के बाद’ एक खालीपन रह जाएगा जिसे भाजपा भर लेने की उम्मीद कर रही है.
उक्त नेता ने कहा, ‘बिहार में ऐसा कोई मजबूत नेता नहीं होगा जो ईबीसी वोट हासिल कर सके, इसलिए हमें भाजपा में ईबीसी नेतृत्व को और अधिक अहमियत देनी होगी.’
हालांकि, भाजपा नेता इस बात से सहमत हैं कि उन्हें ऐसे नेता चुनने होंगे जो दो पूर्व डिप्टी सीएम ईबीसी समूह से आने वाली रेणु देवी और ओबीसी नेता तारकिशोर प्रसाद की तुलना में अधिक प्रभावशाली हों.
एक तीसरे भाजपा नेता ने कहा, ‘पार्टी ने इस समुदाय के नेतृत्व के लिए नोनिया जाति से रेणु देवी को डिप्टी सीएम चुना था, लेकिन पिछले दो वर्षों में वह इनकी आवाज नहीं बन पाईं. तारकिशोर एक सज्जन व्यक्ति हैं और उन्हें केंद्रीय नेतृत्व का समर्थन हासिल था, लेकिन वह भी पार्टी का चेहरा नहीं बन पाए.’ साथ ही जोड़ा, ‘मौजूदा सामाजिक समीकरण के बलबूते हम 25-30 लोकसभा सीटें (40 में से) तो जीत सकते हैं, लेकिन विधानसभा में हम 40 से ज्यादा (243 में से) सीटें नहीं जीत पाएंगे.’
भाजपा के इस नेता ने और अधिक ‘प्रभावशाली’ नेताओं के बारे में कुछ अनुमान भी लगाए जिन्हें पार्टी संभावित तौर पर अपने उद्देश्यों को आगे बढ़ाने में इस्तेमाल कर सकती है.
उन्होंने कहा, ‘ओबीसी समुदाय के सम्राट चौधरी विधान परिषद में नेता के तौर पर पार्टी की पसंद बन सकते हैं. हमें नेता विपक्ष के तौर पर एक प्रभावी चेहरे की जरूरत है और वह कोई ऐसा व्यक्ति हो जो नीतीश और तेजस्वी को टक्कर दे सके. तारकिशोर और रेणु देवी को चुना जाएगा या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि हमें किसी और आक्रामक चेहरे की जरूरत है.’
उनके मुताबिक, बतौर डिप्टी सीएम रेणु देवी और तारकिशोर प्रसाद के पूर्ववर्ती भाजपा नेता सुशील मोदी का मुख्य रूप से भाजपा-जदयू गठबंधन टूटने के मद्देनजर मीडियाकर्मियों को संबोधित करना यही बताता है.
इस साल के शुरू में भाजपा ने ईबीसी धानुक समुदाय से आने वाले शंभू शरण पटेल को राज्यसभा सांसद के तौर पर चुना था. पार्टी नेताओं ने दावा किया कि यह आगे की रणनीति में बदलाव का ही संकेत है. ऊपर उद्धृत दूसरे भाजपा नेता ने कहा, ‘पार्टी को एहसास है कि उसने पर्याप्त संख्या में ईबीसी नेताओं को तैयार न करके गलती की है. हम आने वाले दिनों में ऐसे और नेता देखेंगे.’
बिहार में अभी भाजपा अध्यक्ष संजय जायसवाल हैं, जिनका कार्यकाल अक्टूबर में समाप्त हो रहा है. पार्टी सूत्रों ने कहा कि भाजपा इस पद पर भी कोई ऐसा चेहरा लाने पर विचार कर रही है जो उसके जाति समीकरणों में संतुलन बना सके.
‘भूपेंद्र यादव का फॉर्मूला भाजपा के फायदेमंद नहीं रहा’
पूर्व महासचिव भूपेंद्र यादव के केंद्रीय मंत्री बनने के बाद से भाजपा के पास फिलहाल बिहार के लिए कोई प्रभारी नहीं है.
ऊपर उद्धृत पहले भाजपा नेता ने कहा कि जब भूपेंद्र यादव बिहार में पार्टी प्रभारी थे, तो उन्होंने राजद का यादव वोटबैंक साधने के लिए केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय के नाम का फायदा उठाने की कोशिश की, लेकिन उनका यह तरीका ज्यादा सफल नहीं रहा.
उन्होंने कहा, ‘इससे पार्टी को यादव वोटों का एक बड़ा हिस्सा हासिल करने में मदद नहीं मिली. लालू और तेजस्वी अभी भी यादवों के सबसे बड़े नेता हैं. बिहार में हमारा प्रयोग विफल रहा. लेकिन अब हमने महसूस किया है कि हमें ईबीसी समूह पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि यह सबसे पिछड़ा वर्ग है और प्रधानमंत्री की कल्याणकारी योजनाओं का सबसे बड़ा लाभार्थी भी है.
पिछले यानी 2020 के विधानसभा चुनावों में भाजपा पारंपरिक तरीके से सवर्ण जातियों पर भरोसा करने की अपनी रणनीति पर अड़ी रही, जो कि बिहार की आबादी में लगभग 16 प्रतिशत हैं. 243 विधानसभा सीटों के लिए इसके 110 उम्मीदवारों में से 51 सवर्ण जातियों के थे.
पार्टी ने ईबीसी समुदाय से केवल पांच उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जबकि जदयू के 26 और राजद के 24 उम्मीदवार इस वर्ग के थे.
भाजपा ने मल्लाह नेता मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के लिए 11 सीटें छोड़ी थीं, लेकिन बाद में दोनों दलों के बीच रिश्ते टूट चुके हैं. अप्रैल में भाजपा को बोचहां विधानसभा क्षेत्र (आरक्षित) के उपचुनाव में अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा, जिसे उसने सहनी से हथियाने की कोशिश की थी.
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