पटना: बिहार विधानसभा के आगामी चुनाव के मद्देनज़र राष्ट्रीय जनता दल के गढ़ माने जाने वाले दरभंगा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एम्स बनाने की घोषणा ने एक बार फिर से नीतीश कुमार की उस प्रवृत्ति की तरफ इशारा किया है जिसमें वो केंद्रीय योजनाओं को चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल करते हैं.
केंद्रीय योजनाओं और फंड्स अटल बिहारी वाजपेयी की कैबिनेट में मंत्री के दिनों से ही नीतीश कुमार की राजनीति के लिए जरूरी रहा है. और अपने पूर्ववर्ती लालू प्रसाद यादव के विपरीत जिन्होंने सारण में तीन रेलवे कारखाने खोलने की घोषणा की और अभी तक उसका राजनीतिक रूप से लाभ नहीं ले सके. लेकिन नीतीश समय और स्थान के महत्व को बखूबी समझते हैं.
वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री के रूप में नीतीश ने कई नई ट्रेनों और रेलवे परियोजनाओं और अन्य केंद्रीय योजनाओं को लॉन्च किया जिससे उन्हें ‘विकास पुरुष’ की छवि हासिल करने में मदद मिली.
उन्होंने थर्मल पावर प्लांट और आधा दर्जन केंद्रीय परियोजनाओं के शुभारंभ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जो कि बाढ़ के 50 किलोमीटर के दायरे में है. नीतीश कुमार हाईवे के ईस्ट-वेस्ट कॉरिडोर को मधेपुरा, सुपौल और दरभंगा से जोड़ने में कामयाब रहे चूंकि ये लालू यादव की पार्टी राजद के लिए मुख्य यादव बहुल क्षेत्र है.
नीतीश ने लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन को हरा दिया और भाजपा के साथ मिलकर प्रदेश की कमान संभाली.
तब से ही जातीय समीकरण के साथ केंद्र की योजनाएं नीतीश के लिए चुनावी हथियार रहा है. जो योजना उन्हें पसंद नहीं आती उसे वो भुला देते हैं और आगे बढ़ जाते हैं.
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दरभंगा में बिहार का दूसरा एम्स
पीएम मोदी ने मंगलवार को दरभंगा में बिहार के दूसरे एम्स की घोषणा की, जब उनके मंत्रिमंडल ने इसे मंजूरी दे दी. हालांकि, एक साल पहले उनकी ही सरकार ने 1946 में स्थापित दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (डीएमसीएच) को संभालने के लिए बिहार सरकार के प्रस्ताव को रद्द कर दिया था ताकि इसे एम्स में बदला जा सके.
एम्स पटना के बाद बिहार के लिए दूसरा एम्स, 2015-16 के केंद्रीय बजट में दिवंगत केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा घोषित किया गया था लेकिन तब से इसके स्थान को लेकर रस्साकशी जारी थी. वरिष्ठ भाजपा नेता और केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे इसे अपने गृहनगर भागलपुर में चाहते थे जबकि सीएम नीतीश कुमार दरभंगा में एम्स चाहते थे.
केंद्र ने परियोजना के लिए 500 एकड़ जमीन के अधिग्रहण की मांग की और राजनीतिक प्रतिद्वंदियों ने नीतीश कुमार को जमीन उपलब्ध नहीं कराने को लेकर निशाना साधा. एक केंद्रीय टीम ने डीएमसीएच को अपने अधिकार में लेने के प्रस्ताव पर कई आपत्तियां जताईं- एक पुराने मेडिकल कॉलेज को एम्स में अपग्रेड करने का कोई प्रावधान नहीं था. जल निकासी की कोई व्यवस्था नहीं थी, जिससे प्रस्तावित नया एम्स जल भराव की चपेट में आ जाता, पुराने कॉलेज परिसर में कई कार्यालय और बैंक स्थित थे और राज्य सरकार ने रेलवे ट्रैक से भूमि के विभाजन की पेशकश की थी.
ये सभी मुद्दे अभी भी मौजूद हैं लेकिन केंद्र सरकार ने यू-टर्न ले लिया और चुनाव से पहले नीतीश की मांगों को मान लिया.
केंद्रीय विश्वविद्यालय और कांग्रेस
यूपीए-2 सरकार ने देश भर में 12 केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए 2009 में केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम बनाया था. बिहार में भी एक आवंटित किया गया था लेकिन इसके स्थान को लेकर तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल और सीएम नीतीश कुमार के बीच वाकयुद्ध शुरू हो गया था.
सिब्बल गया में केंद्रीय विश्वविद्यालय चाहते थे क्योंकि ये सड़क, ट्रेन और हवाई मार्ग से जुड़ा था जबकि नीतीश इसे मोतिहारी में चाहते थे जिसे उन्होंने महात्मा गांधी की कर्मभूमि बताया. नीतीश की आपत्तियों के बावजूद सिब्बल गया पर अड़े रहे.
फिर भी 2012 में केंद्र सरकार ने मोतिहारी में एक और केंद्रीय विश्वविद्यालय खोलने पर सहमति व्यक्त की. उस समय, जद(यू)-बीजेपी गठबंधन में फूट के संकेत थे क्योंकि नीतीश की पार्टी ने एनडीए समर्थित पीए संगमा के बजाए भारत के राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने का फैसला किया था. कांग्रेस नीतीश को खुश करना चाहती थी.
मोतिहारी में विश्वविद्यालय की मांग का कारण भी राजनीतिक था- वह पूर्व और पश्चिम चंपारण के भाजपा के गढ़ों में सेंध लगाना चाहते थे. लेकिन इससे चुनावी फायदा नहीं मिला, जो नीतीश चाहते थे क्योंकि लालू की आरजेडी और कांग्रेस के साथ उनके ‘महागठबंधन’ ने 2015 के चुनावों में इन जिलों में ज्यादातर सीटें बीजेपी के हाथों गंवा दीं.
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मुसलमानों को साधना
नीतीश ने कई मौकों पर भाजपा के विचार के खिलाफ जाकर भी काम किया है. उन्होंने मुस्लिम बहुल किशनगंज जिले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का एक केंद्र स्थापित करने की वकालत की, जिसकी भाजपा नेताओं और आरएसएस ने कड़ी आलोचना की. शुरुआत में, यूपीए सरकार ने भी इस विचार पर गौर नहीं किया लेकिन नीतीश ने आगे बढ़कर इसके लिए 200 एकड़ भूमि आवंटित कर दी.
2008 में एएमयू ने केरल, पश्चिम बंगाल और बिहार में केंद्र खोलने के लिए सहमति व्यक्त की और किशनगंज केंद्र का उद्घाटन 2013 में यूपीए अध्यक्ष और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा किया गया था, नीतीश के भाजपा के साथ संबंध तोड़ने से ठीक पहले.
इस पूरी अवधि के दौरान, नीतीश मुसलमानों को जद(यू) के पाले में खींचने की कोशिश कर रहे थे- यह 2010 के चुनावों में उनकी मुख्य कोशिशों में से एक थी, बावजूद इसके कि बीजेपी इस समुदाय से बहुत दूर थी. 2013 में भाजपा से दूर होने के बाद नीतीश की धर्मनिरपेक्ष साख बढ़ी.
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फायदे के लिए केंद्रीय योजनाओं को रोका
कुछ केंद्रीय योजनाएं, जैसे विक्रमशिला विश्वविद्यालय, वास्तव में खारिज कर दी गई हैं, राज्य सरकार ने इसके लिए भूमि आवंटित करने से इनकार कर दिया.
यूपीए के जमाने में बिहार में केंद्रीय विद्यालय खोलने के लिए नीतीश ने 11 स्थानों पर पांच एकड़ जमीन देने से इनकार कर दिया, यह कहकर कि यह उनके लिए प्राथमिकता नहीं थी.
पटना विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एनके चौधरी ने इस मुद्दे पर कहा, ‘नीतीश कुमार एक कुशल राजनीतिक रणनीतिकार हैं. वह तभी किसी प्रोजेक्ट पर हामी भरते हैं जब वो उनके राजनीतिक एजेंडे के अनुकूल होती है. केंद्रीय निधियों के लिए भी यही स्थिति है. केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए मोतिहारी सही जगह नहीं थी, यह पटना होना चाहिए था. लेकिन राजनीतिक तौर पर पटना से उन्हें फायदा नहीं मिलता.’
एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘नीतीश जानते हैं कि केंद्रीय परियोजनाओं का उपयोग अपने लाभ के लिए कैसे किया जाता है- जैसे कि एएमयू केंद्र जब वह मुसलमानों को लुभा रहे थे और चंपारण में अपनी पहुंच बनाने के लिए मोतिहारी में केंद्रीय विश्वविद्यालय चाहते थे. अब वह मिथिलांचल के मतदाताओं को आश्वस्त करना चाहते हैं कि वह उनके साथ हैं, इसलिए दरभंगा में एम्स की घोषणा हुई है.’
हालांकि, पटना में एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के अर्थशास्त्री पीपी घोष ने सतर्कता की बात कही.
घोष ने कहा, ‘केंद्रीय योजनाओं का राजनीतिक लाभ लेने में कुछ भी गलत नहीं है, सभी राजनेता ऐसा करते हैं. हालांकि, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि केंद्रीय परियोजनाएं उस उद्देश्य को पूरा करें, जिसके लिए वे शुरू किए गए थे. सार्वजनिक धन को केवल राजनीतिक लाभ के लिए बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए.’
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