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Thursday, 25 April, 2024
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गुजरात-राजस्थान सरकार में क्या समानता है? दोनों पर यूनिवर्सिटी में ‘लोकतंत्र’ को कमजोर करने का लगा आरोप

राजस्थान में कांग्रेस सरकार छात्र चुनावों को स्थगित करने पर विरोध का सामना कर रही है, जबकि गुजरात में भाजपा सरकार विश्वविद्यालयों में निर्वाचित निकायों को हटाने की कोशिश के लिए आलोचना कर रही है.

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नई दिल्ली: दो राज्यों में निर्वाचित निकायों और विश्वविद्यालयों में लोकतंत्र पर राजनीतिक विवाद तेजी से फैल रहा है, एक पर कांग्रेस का शासन है और दूसरे पर भाजपा का राज है. जहां कांग्रेस को राजस्थान में छात्र चुनाव स्थगित करने पर विरोध का सामना करना पड़ रहा है, वहीं गुजरात में निर्वाचित विश्वविद्यालय संचालन निकायों को खत्म करने की कोशिश के लिए भाजपा की आलोचना की जा रही है.

राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार इस एकैडमिक सेशन में छात्र संघ चुनाव नहीं कराने के अपने फैसले को लेकर आलोचनाओं का शिकार हो गई है. इसका मतलब यह है कि छात्र चुनाव नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव के खत्म के बाद ही होंगे.

राजस्थान सरकार के 12 अगस्त के आदेश में छात्र चुनावों में धन और बाहुबल के इस्तेमाल पर विश्वविद्यालय के कुलपतियों की चिंताओं का हवाला दिया गया है. हालांकि, विपक्षी भाजपा ने दावा किया है कि राज्य चुनावों से पहले छात्र चुनावों को रोके जाने का असली कारण गहलोत सरकार को अपनी हार का डर लग रहा है.

छात्र समूह- जिनमें कांग्रेस की छात्र शाखा, नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) भी शामिल है- भी चुनावों पर अपना विरोध दर्ज कराने के लिए धरना दे रही हैं. क्योंकि अगस्त के अंत में होने वाले चुनाव अब नहीं हो रहे हैं.

लेकिन जहां भाजपा नेता राजस्थान के विश्वविद्यालयों में “लोकतांत्रिक प्रक्रिया” की पैरवी कर रहे हैं, वहीं गुजरात में यह एक अलग कहानी है.

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वहां, भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार एक विधेयक लाने की कगार पर है जो राज्य विश्वविद्यालयों में निर्वाचित शासी निकायों को समाप्त कर देगी, उनकी जगह सरकार द्वारा नियुक्त सदस्यों को नियुक्त करेगी. विपक्षी कांग्रेस का आरोप है कि यह कदम विश्वविद्यालय की स्वायत्तता को खतरे में डालता है और राज्य नियंत्रण को मजबूत करना चाहता है.

गुजरात कॉमन यूनिवर्सिटीज़ बिल 2023, जिस पर सितंबर में राज्य विधानसभा के मानसून सत्र में चर्चा होने की उम्मीद है, में विश्वविद्यालय मामलों के प्रबंधन के लिए निर्वाचित सिंडिकेट और सीनेट को हटाने का प्रस्ताव है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले महीने, मसौदा विधेयक पर चर्चा आमंत्रित करते समय, राज्य शिक्षा विभाग ने यह भी कहा था कि विश्वविद्यालयों में “राजनीति और चुनावों के बजाय अध्ययन पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए”.

शैक्षणिक संस्थानों के भीतर लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व को कमजोर करने के लिए विपक्षी कांग्रेस के साथ-साथ शिक्षा जगत के कुछ सदस्यों द्वारा मसौदा विधेयक की आलोचना की गई है.

यहां विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण को कड़ा करने के संबंध में शुरू हुए विवादों और चिंताओं पर एक नजर डाली गई है.


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राजस्थान में ‘हार का डर’?

राजस्थान के मुख्यमंत्री गहलोत हाल ही में राज्य में छात्र चुनाव कैसे आयोजित किए जाते हैं, इसकी आलोचना करते रहे हैं और कथित तौर पर दावा करते रहे हैं कि उम्मीदवार पैसे खर्च कर रहे हैं जैसे कि वे राज्य या लोकसभा चुनाव लड़ रहे हों. उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह की प्रथाएं 2006 में लिंगदोह समिति द्वारा छात्र चुनावों के लिए उल्लिखित सिफारिशों के खिलाफ थीं.

राजस्थान सरकार ने शनिवार को आदेश जारी किया, जिससे छात्र चुनावों को स्थगित कर दिया, आदेश में परीक्षा घोषणाओं और प्रवेश प्रक्रिया में देरी के साथ-साथ मौद्रिक और शारीरिक प्रभाव के खिलाफ लिंगदोह समिति के दिशानिर्देशों के उल्लंघन का भी हवाला दिया गया था.

घोषणा के तुरंत बाद, एनएसयूआई के साथ-साथ आरएसएस की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने अपना विरोध दर्ज कराने के लिए धरना दिया. एबीवीपी के लिए, जो पहले से ही पेपर लीक के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहा है, स्थगन एक और रैली का बिंदु बन गया है.

इस बीच, विपक्षी बीजेपी ने भी इस मुद्दे को लेकर गहलोत सरकार पर निशाना साधा है.

दिप्रिंट से बात करते हुए, राजस्थान में विपक्ष के नेता, राजेंद्र सिंह राठौड़ ने कहा कि यह निर्णय गहलोत सरकार के “डर” से प्रेरित था कि एनएसयूआई को हार का सामना करना पड़ेगा, जो विधानसभा चुनावों से पहले बड़े पैमाने पर कांग्रेस की छवि को नुकसान पहुंचा सकता है.

उन्होंने कहा, “पिछली बार, एनएसयूआई किसी भी विश्वविद्यालय में नहीं जीती थी. इस बार हार से बचने के लिए तानाशाह सरकार ने छात्र संघ चुनाव पर रोक लगा दी है. वे लिंगदोह समिति की सिफारिशों के नाम पर केवल बहाने बना रहे हैं.”

उन्होंने यह भी कहा, “यह ध्यान भटकाने वाली रणनीति है क्योंकि अगर वे हार गए तो यह विधानसभा चुनाव से पहले उन्हें बेनकाब कर देगा. राजनीति में नेता छात्र संघों और विश्वविद्यालयों से आते हैं. ”

पिछले अगस्त में राजस्थान में छात्र संघ चुनावों में एनएसयूआई को 14 विश्वविद्यालयों में एक भी सीट नहीं मिली, जबकि एबीवीपी ने सात में जीत हासिल की. सीपीआई (एम) की छात्र शाखा, स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) ने दो में जीत दर्ज की, जबकि निर्दलीय उम्मीदवारों ने शेष पांच में जीत हासिल की.

इस साल के छात्र चुनाव की तैयारियां कम से कम एक महीने से जोरों पर हैं.

राठौड़ ने कहा,“यहां तक कि एनएसयूआई के प्रदेश अध्यक्ष अभिषेक चौधरी ने भी कहा है कि चुनाव होना चाहिए क्योंकि छात्र पहले से ही तैयारी में थे. हम सरकार से चुनाव कराने की मांग करते हैं क्योंकि यह छात्रों को चुनाव और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल करने का पहला कदम है. ”

राजस्थान विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष, भाजपा विधायक अशोक कुमार लाहोटी ने कांग्रेस सरकार की ओर से “डर” का हवाला देते हुए राठौड़ जैसी ही कई चिंताओं को दोहराया.

उन्होंने कहा, “कांग्रेस कोई मौका नहीं लेना चाहती थी क्योंकि छात्र संघ चुनाव हारना पार्टी की कहानी के खिलाफ होता.”

लाहोटी ने कहा,“दूसरी बात, गहलोत सरकार ने बेरोजगारी भत्ते के वादे को ठीक से पूरा नहीं किया है, और इसके बजाय कई शर्तें लगा दी हैं. उन्होंने अनुमान लगाया है कि चूंकि छात्र पेपर लीक और बेरोजगारी भत्ते को लेकर नाराज हैं, इसलिए एनएसयूआई प्रदर्शन नहीं करने जा रही है, और इसलिए चुनाव से बचना बेहतर है. ”

उन्होंने यह भी अनुमान लगाया कि सरकार ने पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) को खत्म कर दी गई नई पेंशन योजना में नियोक्ताओं के योगदान को वापस जमा करने की एक शर्त पर विश्वविद्यालय के शिक्षकों की आपत्तियों को ध्यान में रखा होगा.

उन्होंने कहा, “प्रोफेसरों का विरोध विधानसभा चुनाव से पहले युवा मतदाताओं को प्रभावित कर सकता है.”


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‘गुजरात के विश्वविद्यालयों पर कड़ा होगा सरकारी नियंत्रण’

भले ही राजस्थान भाजपा विश्वविद्यालयों में ‘लोकतंत्र’ की वकालत करती है, गुजरात में भाजपा सरकार निर्वाचित विश्वविद्यालय शासी निकायों, अर्थात् सीनेट और सिंडिकेट को खत्म करने पर विचार कर रही है.

जबकि एक सीनेट में आम तौर पर प्रोफेसर, छात्र और अन्य हितधारक शामिल होते हैं और विश्वविद्यालय की नीतियों और दिशा के लिए जिम्मेदार होते हैं, सिंडिकेट अनिवार्य रूप से एक कार्यकारी परिषद है, जिसमें वीसी जैसे नियुक्त सदस्यों के साथ-साथ निर्वाचित सदस्य भी शामिल होते हैं.

इंडियन एक्सप्रेस की 30 जुलाई की एक रिपोर्ट के अनुसार, गुजरात शिक्षा विभाग ने पिछले महीने एक बयान में कहा था कि इन निकायों के बिना, विश्वविद्यालय “बिना किसी प्रभाव के” मुद्दों को हल कर सकते हैं और “संस्थागत गतिविधियों पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, जहां सिंडिकेट का गठन केवल नामांकन के आधार पर किया जाएगा”.

राज्य के 16 सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में से, 2004 से पहले गठित आठ विश्वविद्यालय गुजरात कॉमन यूनिवर्सिटीज़ बिल 2023 के दायरे में आते हैं. इनमें राज्य के उच्च शिक्षा के दो सबसे बड़े संस्थान शामिल हैं: गुजरात विश्वविद्यालय और महाराजा सयाजीराव (एमएस) बड़ौदा विश्वविद्यालय.

मसौदा विधेयक में सरकार को विश्वविद्यालयों पर अधिक अधिकार देने वाले विभिन्न उपायों का भी प्रस्ताव है.
विधेयक के मसौदे में कहा गया है कि सरकार के पास संयुक्त निदेशक से कम रैंक के किसी अधिकारी द्वारा विश्वविद्यालय और उसके संबद्ध कॉलेजों का निरीक्षण करने के साथ-साथ जब भी उचित समझा जाए, उनका ऑडिट करने की भी शक्ति होगी.

एक अन्य प्रावधान राज्य सरकार को रजिस्ट्रार, वित्त अधिकारी और परीक्षा नियंत्रक जैसे पदों पर एक अधिकारी को नियुक्त करने की अनुमति देता है “यदि विश्वविद्यालय के अधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन करने में विफल रहते हैं”.

नाम न छापने की शर्त पर बोलते हुए, गुजरात विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने दिप्रिंट को बताया कि विधेयक का “असली कारण” विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण को कड़ा करना था.

प्रोफेसर ने कहा, “वे विश्वविद्यालयों को सरकारी विभागों की तरह बनाने की योजना बना रहे हैं. विधेयक में प्रावधान है कि उन्हें (विश्वविद्यालय के अधिकारियों और शिक्षकों को) सिविल सेवाओं की तरह नियमों का पालन करना होगा- उन्हें मीडिया से बात करने या राय व्यक्त करने के लिए अनुमति लेनी होगी, जैसा कि सिविल सेवकों के लिए निर्धारित है.”

उन्होंने कहा कि गुजरात विश्वविद्यालय में कई वर्षों से कोई छात्र संघ चुनाव नहीं हुआ है और अब सरकार “शिक्षकों पर कब्जा करना और प्रतिरोध खत्म करना” चाहती है.

उन्होंने कहा, “इस विधेयक के माध्यम से वे छात्रों के किसी भी प्रतिरोध के बिना वित्त, परीक्षा और प्रशासन की जांच और नियंत्रण के लिए अपने अधिकारियों को नियुक्त कर सकते हैं.”

विश्वविद्यालयों द्वारा “शैक्षणिक स्वायत्तता” खोने पर चिंता व्यक्त करते हुए प्रोफेसर ने कहा कि एक वैचारिक एजेंडा चल सकता है.

उन्होंने कहा, “सरकार पहले गुजरात विश्वविद्यालय में अपने व्यक्ति को नियुक्त करना चाहती थी, जिसका विश्वविद्यालय प्रशासन ने विरोध किया था. सरकार ने सोचा होगा कि सार्वजनिक विश्वविद्यालय उनके हाथ से फिसलते जा रहे हैं. विश्वविद्यालयों में भाजपा के लिए विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए अपनी मशीनरी का उपयोग करने की बहुत बड़ी संभावना है.”

हालांकि, एमएस बड़ौदा यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अमित ढोलकिया ने कहा कि यह बिल फायदे के साथ-साथ नुकसान भी लेकर आया है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “इस विधेयक के माध्यम से सरकार विश्वविद्यालय मामलों के नियमन में एकरूपता ला सकती है. नुकसान यह है कि चूंकि कोई निर्वाचित सदस्य नहीं होगा और केवल सरकार या वीसी द्वारा चुने गए लोगों को नियुक्त किया जाएगा, इससे विश्वविद्यालय की स्वायत्तता बाधित होगी.”

‘साजिश’ के आरोप

गुजरात कांग्रेस ने दावा किया है कि कॉमन यूनिवर्सिटी बिल के मूल में एक खतरनाक उद्देश्य शामिल है.

इस महीने की शुरुआत में पत्रकारों से बात करते हुए, विधानसभा में कांग्रेस नेता अमित चावड़ा ने आरोप लगाया कि यह विधेयक राज्य में “50,000 करोड़ रुपये” मूल्य की विश्वविद्यालय भूमि पर कब्ज़ा करने की “साजिश” का हिस्सा था. उन्होंने यह भी कहा कि प्रस्तावित कानून से अनुदान प्राप्त विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को खतरा है, जिससे वंचित परिवारों के छात्रों को लाभ मिलता है.

उन्होंने कहा, “वे निर्वाचित निकायों को खत्म करते हुए विपक्ष पर अंकुश लगाना चाहते हैं.”

राज्य सरकार ने तुरंत एक बयान में इन दावों को “निराधार” बताया.

बयान में कहा गया है, “राज्य सरकार की पूर्व लिखित सहमति के बिना विश्वविद्यालय की संपत्ति का कोई पट्टा, बिक्री या हस्तांतरण नहीं किया जाएगा.”

इसमें यह भी कहा गया कि विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा. बयान में दावा किया गया, “[ए] यूजीसी मानदंडों के अनुसार विश्वविद्यालय और उसके संबद्ध शैक्षणिक संस्थानों को शैक्षणिक, प्रशासनिक और वित्तीय स्वायत्तता प्रदान की जाएगी.”

विशेष रूप से, गुजरात में छात्र सक्रियता से प्रेरित राजनीतिक आंदोलनों का एक समृद्ध इतिहास है. उदाहरण के लिए, 1974 में अहमदाबाद इंजीनियरिंग कॉलेज में हॉस्टल मेस फीस के मुद्दे पर नवनिर्माण विरोध प्रदर्शन ने राष्ट्रीय राजनीति की दिशा बदल दी, जिसके कारण सीएम चिमनभाई पटेल को इस्तीफा देना पड़ा और इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी आंदोलन मजबूत हुआ.

आज भी, गुजरात के कई प्रमुख राजनेता विश्वविद्यालय और सीनेट निकायों से उभरे हैं, जैसे कि भाजपा नेता और राज्यसभा सांसद नरहरि अमीन, जो कभी गुजरात विश्वविद्यालय के सिंडिकेट सदस्य थे.

(अनुवाद- पूजा मेहरोत्रा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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