नई दिल्ली: हरियाणा के देवीलाल 1970 के दशक में सोशलिस्ट खेमे के सबसे बड़े नेता थे. शरद यादव उस समय जबलपुर से सांसद थे. कहा जाता है कि जब वह देवीलाल से मिलते थे, तब उनके साथ दो आम चेहरे अक्सर दिखाई देते थे: लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार. उस जमाने के लोग याद करते हैं कि देवीलाल कभी-कभी मजाक में शरद यादव से दोनों नेताओं के बारे पूछते थे- कहां गए तेरे चंगू-मंगू ? आने वाले समय में दोनों ही नेता बिहार के मुख्यमंत्री बने.
रविवार को शरद यादव की पार्टी लोकतांत्रिक जनता दल (एलजेडी) का विलय लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) में हो गया. इसी के साथ बिहार की राजनीति जहां से शुरू हुई एक बार फिर से वहां आ गई है. साल 1997 में शरद यादव से मतभेद के बाद लालू प्रसाद यादव जनता दल से अलग हो गए थे और आरजेडी का गठन किया था.
दिलचस्प बात है कि शरद यादव यादव के ‘चंगू-मंगू’ राजनीति में अपने पूर्व मार्गदर्शक से काफी आगे निकल गए.
यह सच है कि 1999 के लोकसभा चुनाव में शरद यादव ने मधेपुरा संसदीय क्षेत्र से लालू प्रसाद यादव को हराया था. यह उनके राजनीतिक जीवन की महत्वपूर्ण घटना रही. गौरतलब है कि लालू प्रसाद यादव ने ही उन्हें साल 1991 में मधेपुरा से चुनाव लड़वाया था. उस समय लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे. साल 1999 में मिली जीत की वजह से उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री पद भी मिला.
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राजनीति में लंबी पारी
राज्य सभा के एक पूर्व सांसद ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘संक्षेप में कहें तो, साल 1974 में राष्ट्रीय नेता का कद हासिल करने के बाद वह मुलायम सिंह के पास गए. इसके बाद, वह लालू प्रसाद यादव से जुड़े. वह लालू प्रसाद यादव को छोड़कर नीतीश कुमार से जुड़े और अब वह फिर से लालू (प्रसाद यादव) के पास लौट गए हैं. उन्होंने राजनीति सिर्फ अपने फायदे के लिए की, कभी आम जनता के लिए नहीं. यही वजह है कि बिहार में इतने लंबे समय तक रहने के बावजूद उनके पास जनता का समर्थन नहीं है.’
यादव पहली बार 1974 में चर्चा में आए, जब जयप्रकाश नारायण ने उन्हें उपचुनाव में उनके गृह राज्य मध्य प्रदेश की जबलपुर सीट से कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी का उम्मीदवार बनाया. यादव ने इसके बाद 1977 में हुए चुनाव में लगातार दूसरी बार यहां से जीत दर्ज की. हालांकि, वह साल 1980 में चुनाव हार गए. यादव ने इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री ली है.
यही वह समय था, जब शरद यादव, मुलायम सिंह यादव के करीब आए. उस समय मुलायम सिंह यादव लोकदल के सदस्य थे. साल 1986 में शरद यादव लोकदल के टिकट पर राज्य सभा सदस्य बने. इसके बाद, साल 1989 के लोकसभा चुनाव में वह मुलायम सिंह यादव की मदद से उत्तर प्रदेश की बदायूं सीट से जीतने में कामयाब रहे.
समय के साथ, शरद यादव और मुलायम सिंह यादव के बीच मतभेद पैदा हो गए लेकिन इस बीच कभी उनके अनुयायी रहे लालू प्रसाद यादव का कद बिहार की राजनीति में बढ़ गया और वह बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. साल 1991 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने मधेपुरा से शरद यादव को जनता दल का उम्मीदवार बनाया. जनता पार्टी का गठन कई सोशलिस्ट पार्टियों के विलय से हुआ था. मधेपुरा में यादव जाति का दबदबा है. यादव साल 2004 तक यहां के सांसद रहे. यहां तक कि उन्होंने साल 1999 में लालू प्रसाद यादव को भी चुनाव में हरा दिया.
साल 1999 से 2004 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में शरद यादव ने कई मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली. साल 2003 में वह जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के अध्यक्ष बने. इस पार्टी में उनके साथ एक दूसरे अनुयायी नीतीश कुमार भी थे. साल 2004 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद नीतीश कुमार ने उन्हें राज्य सभा भेजने में मदद की. साल 2009 में वह फिर एक बार मधेपुरा से लोकसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे. लेकिन साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जद(यू) के हारने के बाद यादव और नीतीश कुमार के रिश्तों में खटास आ गई. इसके बावजूद, नीतीश ने उन्हें राज्य सभा में भेजा. साल 2014 का लोकसभा चुनाव जद(यू) ने सीपीआई के साथ मिलकर लड़ा था.
साल 2017 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में जद(यू) ने बीजेपी के साथ मिलकर बिहार विधानसभा चुनाव लड़ा. (दोनों पार्टियां 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में साथ मिलकर चुनाव लड़ी थीं.) हालांकि, शरद पवार ने इस बीजेपी-जद(यू) गठबंधन में शामिल होने से इनकार कर दिया. इसके बाद जद(यू) ने राज्य सभा से यादव के निष्कासन का प्रस्ताव दिया.
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विवाद
शरद यादव की राजनीतिक पारी जितनी लंबी है उतनी ही लंबी उनसे जुड़े विवादों की सूची भी है.
साल 2009 में यूपीए सरकार की ओर से लाये गए महिला आरक्षण बिल के विरोध में यादव ने कहा कि इस बिल से सिर्फ ‘परकटी’ (छोटे बालों वाली) महिलाओं को ही फायदा होगा. उन्होंने इस बिल के पास होने पर आत्महत्या करने की धमकी भी दी थी.
साल 2015 में वह तब विवादों से घिर गए, जब उन्होंने भारत की एक पार्टी की महिलाओं के बारे में सेक्सिस्ट टिप्पणी की थी और उनके रंग के बारे में कमेंट किया था. जब स्मृति ईरानी ने प्रदर्शन किया था, तब भी उन्होंने इसी तरह की टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था, ‘मुझे पता है कि आप किस तरह की महिला हैं’. हालांकि, बाद में उन्होंने इस टिप्पणी के लिए माफी मांगी थी.
साल 2018 में राजस्थान में कैंपेन के दौरान शरद यादव ने लोगों से मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को आराम देने को कहा था, क्योंकि ‘वह मोटी हो गई हैं’. उन्होंने कहा, ‘वसुंधरा को आराम दो, बहुत थक गई हैं, बहुत मोटी हो गई हैं, पहले पतली थीं. हमारे मध्य प्रदेश की बेटी हैं.’
साल 2016 में यादव ने एक बार फिर पटना में विवादित बयान दिया, ‘बेटी की इज्जत से वोट की इज्जत बड़ी है.’ इस बयान के बाद राष्ट्रीय महिला आयोग ने उन्हें नोटिस भेजा था. हालांकि, उन्होंने कहा कि उनके बयान को गलत तरीके से पेश किया गया है.
सिर्फ महिलाएं ही उनकी विचारहीन टिप्पणियों का निशाना नहीं बनीं. साल 2011 में उन्होंने राजनेताओं का मजाक उड़ाने के लिए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के मुख्य चेहरा रहे अन्ना हजारे की निंदा की. उन्होंने हजारे और उनके समर्थकों को चेतावनी भरे लहजे में कहा था, ‘आप अपनी भाषा सभ्य रखेंगे, तो हम भी रखेंगे.’
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जॉर्ज और यादव का समीकरण
1990 के दशक में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, पूर्व केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव, ये सभी जनता दल के सदस्य थे. उस जमाने के एक सोशलिस्ट नेता ने कहा कि उन दिनों फर्नांडिस और यादव बहुत करीब नहीं थे, क्योंकि यादव, लालू के करीबी थे और फर्नांडिस खुद को सीनियर सोशलिस्ट नेता मानते थे. लेकिन साल 1994 में जब नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव अलग हो गए, तब समता पार्टी बनाने के लिए फर्नांडिस और नीतीश कुमार दिल्ली में शरद यादव से मिले और उनसे जुड़ने को कहा.
इस मीटिंग में शामिल जेडी(यू) के एक नेता ने बताया, ‘शरद ने उनसे कहा कि आगे बढ़िए और पार्टी (जनता दल) को बांट दीजिए लेकिन यह भी कहा कि फिलहाल वह लालू के साथ ही रहेंगे.’
आखिरकार, साल 2003 में शरद यादव ने जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार से हाथ मिलाया और यादव के धड़े वाली जनता दल और नीतीश कुमार की समता पार्टी के विलय से जेडी(यू) अस्तित्व में आई.
हालांकि, 2005 के बिहार विधानसभा चुनावों के बाद फंड संबंधित मुद्दों को लेकर फर्नांडिस और नीतीश कुमार के रिश्तों में तल्खी आ गई. इसके बाद नीतीश कुमार ने फर्नांडिस को जेडी(यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटा दिया और यादव पार्टी के नए अध्यक्ष बने.
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लालू और नीतीश से शरद यादव का अलग होना
साल 1996 में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले की वजह से परेशानियों में घिर गए. वह दोबारा जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना चाहते थे. लेकिन तब के कार्यकारी अध्यक्ष शरद यादव ने इस पद के लिए अपनी दावेदारी ठोक दी. गौरतलब है कि लालू प्रसाद यादव ने शरद यादव को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था. लालू प्रसाद यादव, शरद यादव को पार्टी में नहीं देखना चाहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि उनका पूर्व ‘मार्गदर्शक’ जनता दल में उनका प्रतिद्वंदी बन रहा है. कहा जाता है कि नाराज लालू ने शपथ ली थी कि वह फिर कभी किसी ‘बाहरी’ (बिहार से नहीं) पर भरोसा नहीं करेंगे.
उक्त वरिष्ठ सोशलिस्ट नेता ने कहा कि इस मतभेद की वजह से लालू प्रसाद यादव ने आखिरकार जनता दल छोड़ दिया और 1997 में आरजेडी का गठन किया.
शरद यादव ने इसके तुरंत बाद ही अपने पूर्व अनुयायी नीतीश कुमार से हाथ मिला लिया. यह भी सच है कि शरद यादव के पास कोई जनसमर्थन नहीं था लेकिन तब की जनता पार्टी के कई नेता उनकी बात मानते थे. यादव ने उन्हें जेडी(यू) में शामिल होने के लिए मना लिया और जेडी(यू) को सामाजिक न्याय के विकल्प के तौर पर पेश करने में सफल रहे.
जेडी(यू) के एक पूर्व नेता ने कहा कि नीतीश कुमार से उनकी नाराजगी तब शुरू हुई जब मुख्यमंत्री ने यादव की सलाह लिए बिना ही पार्टी से जुड़े कई फैसले लिए. पूर्व नेता ने कहा कि साल 2013 में नीतीश कुमार ने शरद यादव को बिना बताए जेडी(यू) को बीजेपी के साथ गठबंधन से अलग कर लिया.
जेडी(यू) के पूर्व नेता ने कहा कि साल 2017 में भी नीतीश कुमार, शरद यादव को बताए बिना ही आरजेडी के साथ महागठबंधन से अलग हो गए. बाद में यादव ने सार्वजनिक रूप से कहा कि उन्होंने महागठबंधन तोड़ने की मंजूरी नहीं दी थी.
जेडी(यू) के एक पूर्व सांसद ने कहा कि नीतीश कुमार और शरद यादव के बीच अविश्वास की शुरुआत साल 2015 में तब हुई, जब नीतीश कुमार अपने लिए रास्ता बनाने के लिए जेडी(यू) नेता जीतन राम मांझी को बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे थे. मांझी को पर्याप्त विधायकों का समर्थन नहीं होने की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. उन्होंने इसके बाद कहा कि यादव ने उन्हें इस्तीफा नहीं देने को कहा था, चाहे ऐसा करने के लिए वह कुछ भी करें.
जेडी(यू) के एक पूर्व सांसद ने कहा, ‘मांझी का बयान आने के बाद नीतीश कुमार को महसूस हुआ कि शरद यादव ने उनकी पीठ पर वार किया है और जेडी(यू) में शरद यादव का कोई भविष्य नहीं बचा था.’
साल 2017 में नीतीश कुमार से अलग होने के बाद साल 2018 में उन्होंने एलजेडी का गठन किया. इसके बाद वह कभी दोस्त रहे लालू प्रसाद के फिर से करीब आए. साल 2019 में वह चारा घोटाला मामले में जेल में बंद लालू प्रयास यादव से रांची में मिले.
आरजेडी के एक नेता के मुताबिक, लालू प्रसाद यादव की मदद से शरद यादव की बेटी सुभाषनी राज राव को 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का टिकट मिला. हालांकि, राव चुनाव हार गईं.
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लालू-शरद की दोस्ती
ऐसा नहीं है कि शरद यादव ने लालू यादव की दोस्ती का सिर्फ फायदा ही लिया है. अतीत में उन्होंने लालू यादव की मदद भी की है.
उक्त वरिष्ठ सोशलिस्ट नेता ने कहा कि साल 1990 में बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल को मिली निर्णायक जीत के बाद लालू यादव तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह की पहली पसंद नहीं थे. वह पूर्व मुख्यमंत्री श्याम सुंदर दास को राज्य का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे. लेकिन शरद यादव ने देवीलाल को लालू प्रसाद यादव का नाम आगे करने के लिए मना लिया.
इस बीच पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने रघुनाथ झा को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया. जनता दल के विधायकों के बीच मुख्यमंत्री पद के लिए होने वाले इस अहम चुनाव में झा ने राम सुंदर दास के पक्ष के वोट को बांट दिया. झा को सिर्फ 23 वोट मिले. वहीं, लालू मात्र तीन वोट से सीएम पद का चुनाव जीतने में कामयाब रहे.
उक्त वरिष्ठ सोशलिस्ट नेता ने कहा कि शरद यादव ने ही लालू प्रसाद यादव को जितवाने के लिए चंद्रशेखर को अपना उम्मीदवार उतारने के लिए कहा.
यही वजह रही कि 1997 में अलग होने के बावजूद भी लालू प्रसाद यादव, शरद यादव का कर्ज उतारते रहे हैं और यही उन्हें एक बार फिर साथ लाया है.
पूर्व सांसद शिवानंद तिवारी ने दिप्रिंट से कहा, ‘शरद यादव राष्ट्रीय राजनीति में पिछड़ी जाति के जाने-माने चेहरा हैं. मंडल कमीशन के बाद के युग में वह सबसे ज्यादा मुखर रहे हैं. हालांकि, लालू के साथ उनकी व्यक्तिगत मतभेद की शुरुआत के बाद उनकी राजनीति की दिशा बदली. मतभेद वैचारिक स्तर पर कभी नहीं था.’
पिछले महीने, लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव दिल्ली में शरद यादव के घर उनका आर्शीवाद लेने पहुंचे. शरद यादव ने कहा कि आरजेडी का नेतृत्व करने के लिए उनका आर्शीवाद सिर्फ तेजस्वी के लिए ही है.
आरजेडी के एक पूर्व सांसद ने कहा, ‘इसका प्रतीकात्मक महत्व है जब कोई नेता अपने लंबे राजनीतिक कैरियर के आखिरी पड़ाव पर कभी फॉलोवर रहे किसी व्यक्ति का नेतृत्व स्वीकार करता है.’
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