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Saturday, 21 December, 2024
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गठबंधन राजनीति से मतदाता की चुनने की आजादी खतरे में

बड़े गठबंधन करके मतदाताओं के सामने केवल दो विकल्प रखने की कोशिश बहुदलीय लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है.

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वर्तमान राजनीति का दौर गठबंधन की राजनीति का है. 2014 में अरसे बाद एक दल को बहुमत जरूर मिला, लेकिन इसे एक अपवाद के तौर पर ही देखा जा सकता है. किसी एक दल को बहुमत न मिल पाने की स्थिति में तो गठबंधन करके सरकार बनाना जरूरी हो ही जाता है, साथ ही, चुनाव पूर्व भी इतने बड़े-बड़े गठबंधन किए जा रहे हैं कि एक गठबंधन में 45 से 50 दल तक शामिल हो रहे हैं. वास्तव में, बड़े गठबंधन करके मतदाताओं के सामने केवल दो विकल्प रखने की कोशिश बहु दलीय लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है. ऐसे में मतदाता के सामने दो उम्मीदवारों के अलावा किसी अन्य को वोट देने का विकल्प ही नहीं बचता.

जो गठबंधन इस समय किए जा रहे हैं, उनमें हर छोटे-बड़े दल को शामिल करने का दबाव इस कदर बढ़ता जा रहा है कि बड़े-बड़े दलों के लिए सीटें तक नहीं बच पा रही हैं और जिन नेताओं की सीटें गठबंधन के सहयोगियों को जा रही हैं, वो अपनी-अपनी पार्टी छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं. मिसाल के लिए उत्तर प्रदेश को लें, तो कभी 2004 के लोकसभा चुनावों में इस राज्य से 36 सीटें जीत चुकी समाजवादी पार्टी अब केवल 37 सीटों पर लड़ रही है और इसमें से भी उसे कुछ सीटें कुछ छोटे दलों मसलन, पीस पार्टी, निषाद पार्टी को देनी है.


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इतनी बड़ी संख्या में सीटें छोड़ने के बावजूद, उस पर यह भी दबाव है कि वह कांग्रेस को भी साथ ले जो किसी भी सूरत में 12 से 15 सीटों से कम पर मानने को तैयार नहीं है. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को भी भाजपा विरोधी वोट बंटने से रोकने के नाम पर साथ लेने का दबाव सपा और राजद जैसे दलों पर पिछले कई चुनावों से रहता है. एनडीए में उपेक्षित चल रहे अपना दल और सुहैलदेव भारतीय समाज पार्टी को भी साथ न ले पाना सपा-बसपा-रालोद गठबंधन की नाकामी माना जा रहा है.

इसी तरह की स्थिति बिहार में है, जहां भाजपा विरोधी मत बंटने से रोकने के लिए राजद के महागठबंधन में अब तक कांग्रेस, हम, रालोसपा, सीपीआई, वीआईपी, लोकतांत्रिक जनता दल जैसे दल आ चुके हैं. पप्पू यादव की जनाधिकार पार्टी और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एआईएम को भी महागठबंधन में लेने का दबाव बन रहा है. अगर रामविलास पासवान ने हिम्मत दिखाई होती तो शायद उनकी लोक जनशक्ति पार्टी भी महागठबंधन का हिस्सा हो चुकी होती.

सवाल यह है कि अब सारी सीटें गठबंधन के नेता ही आपस में बांट लेंगे तो आधे से ज्यादा चुनाव तो मतदाताओं के हाथों से निकल ही गया. भारत में ऐसी भी कोई व्यवस्था नहीं है जिसमें पार्टियां उम्मीदवार तय करते समय जनता की राय लेती हों, तो फिर मतदाता के पास दो गठबंधनों के अतिरिक्त कोई तीसरा सशक्त विकल्प बचता ही नहीं.

देश में बहुदलीय लोकतंत्र को यहां की विविधता को ध्यान में रखते हुए ही स्वीकार किया गया था जहां निर्दलीय या छोटे दल से जीते सांसद का भी वही महत्व होता है जो किसी बड़े दल के सांसद का. बड़े दल के सांसद भी दल बदल कानून के डर से, अपनी कोई स्वतंत्र राय नहीं रख पाते और उन्हें हर हाल में पार्टी व्हिप का पालन करना ही होता है.

सबसे बड़ी समस्या तब होती है जब किसी बड़े राज्य में सबसे बड़े दो या अधिक दल आपस में तालमेल कर लेते हैं. इस समय यह यूपी में हो रहा है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों यूपी की सबसे बड़ी पार्टियों में शुमार हैं, और दोनों ही एक-एक बार तो अपने-अपने बूते पर सरकार बना चुकी हैं. अब दोनों ने गठबंधन करके खुद का भी विस्तार रोक दिया और मतदाताओं के सामने विकल्प सीमित कर दिए. पहले कई बार सपा या बसपा के उम्मीदवार चयन से नाराज मतदाता के पास कुछ विकल्प रहते थे, लेकिन इस बार वो नहीं होंगे.


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यह तो राहत की बात रही कि कांग्रेस इस सपा-बसपा-रालोद गठबंधन में शामिल नहीं है, वरना मतदाता पूरी तरह से दो विकल्पों तक सीमित हो जाता.राजनीतिक दलों ने भी दलीय लोकतंत्र को बढ़ावा देने, और अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास करने के बजाय किसी न किसी तरह सत्ता में भागीदारी पाने का ये रास्ता देख लिया है,जिसमें केवल नेतृत्व या कुछ बड़े नेताओं की कदर होती है.

वहीं अपनी अनदेखी से नाराज कोई नेता अपनी जाति-बिरादरी के लोगों को लेकर जब अलग पार्टी बना लेता है तो उसे ये बड़े दल एक-दो सीटें देकर गठबंधन में शामिल कर लेते हैं. आदर्श स्थिति यही है कि सभी दल स्वतंत्र रूप से हर सीट पर अपनी-अपनी दावेदारी करें और जिस दल को सबसे ज्यादा मत मिलें, वह विजयी घोषित किया जाए. यहां गठबंधन की राजनीति उस दौर में पहुंच चुकी है कि एक तरह से एक दल किसी सीट पर अपने को मिलने वाले मतों को दूसरे दल के हाथों बेच रहा होता है, और मतदाता देखता रह जाता है.

एनडीए का गठबंधन तो करीब 45 दलों तक पहुंच गया था जिसमें से अब दलों ने निकलना शुरू किया है. अगर ये दल एक समान विचारधारा के ही हैं तो ये सब विलय करके एक नया दल क्यों नहीं बना लेते? कम से कम अलग होने का भ्रम तो मतदाता के सामने पैदा नहीं होना चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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