नई दिल्ली: झारखंड में पिछले महीने हुए विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी में वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास की सक्रिय राज्य की राजनीति में वापसी पर अफवाहों का बाज़ार गर्म हो गया है.
अभी तक भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व झारखंड में सत्ता के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध दास को राज्य में वापस लाने के लिए उत्सुक नहीं था और 2023 में उन्हें ओडिशा के राज्यपाल के पद पर पदोन्नत किया गया.
मंगलवार को दास ने “व्यक्तिगत कारणों” का हवाला देते हुए अपना कार्यकाल पूरा किए बिना राज्यपाल के पद से इस्तीफा दे दिया और अनुमान लगाया जा रहा है कि उन्हें भाजपा की झारखंड इकाई में कोई महत्वपूर्ण भूमिका मिल सकती है.
दास के अगले कुछ दिनों में राज्य संगठन महासचिव करमवीर, क्षेत्रीय संगठन महासचिव नागेंद्र त्रिपाठी और राज्य सदस्यता अभियान प्रभारी राकेश प्रसाद की मौजूदगी में भाजपा में शामिल होने की संभावना है.
गुरुवार को दिप्रिंट से बात करते हुए दास ने कहा, “संगठन में मेरी भूमिका तय करना भाजपा नेतृत्व पर निर्भर है”.
उन्होंने कहा, “जब मैं 1980 में भाजपा में शामिल हुआ था, तो चाहे मैं बूथ स्तर पर काम करता था, मंडल स्तर पर या राज्य स्तर पर, या राष्ट्रीय उपाध्यक्ष था, यह पार्टी ही थी जो मेरे लिए भूमिका तय करती थी. जब पार्टी ने मुझे झारखंड का सीएम बनने के लिए कहा, तो मैंने लोगों की सेवा की. जब पार्टी ने मुझे राज्यपाल बनने के लिए कहा, तो मैंने ओडिशा में सेवा की. मेरा उपयोग करना पूरी तरह से पार्टी पर निर्भर है.”
झारखंड चुनावों से पहले, ओबीसी नेता दास ने राज्य की राजनीति में लौटने के संकेत दिए थे, लेकिन भाजपा नेतृत्व सतर्क था क्योंकि उन्हें 2014 से 2019 तक सीएम के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान आदिवासियों के एक बड़े वर्ग को अलग-थलग करने वाला माना जाता था.
भाजपा के एक सूत्र ने दिप्रिंट को बताया कि दास ने झारखंड में अपनी वापसी पर चर्चा करने के लिए अगस्त में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भी मुलाकात की थी. हालांकि, नेतृत्व आदिवासी कारक को ध्यान में रखते हुए उन्हें चुनाव में उतारने के लिए सहमत नहीं हुआ. भाजपा ने इसके बजाय दास की बहू पूर्णिमा साहू को जमशेदपुर पूर्वी सीट से चुनाव लड़ने के लिए चुना, जहां उन्होंने जीत हासिल की.
माना जाता है कि राज्य इकाई में दास के प्रतिद्वंद्वियों ने भी उनकी वापसी को रोकने के प्रयास किए.
हालांकि, झारखंड में भाजपा की लगातार दूसरी हार के बाद अब सब कुछ बदल गया है. पार्टी पदाधिकारियों के अनुसार, दास के खिलाफ आरक्षण कमज़ोर हो गया है और भाजपा की नई प्राथमिकता अपने ओबीसी और गैर-आदिवासी वोट बैंक की रक्षा करना और अगले पांच वर्षों के लिए राज्य में संगठन का निर्माण करना है.
दिप्रिंट से बात करते हुए झारखंड भाजपा के एक पदाधिकारी ने कहा, “पहले, यह चिंता थी कि रघुवर दास की घर वापसी से आदिवासी अलग-थलग पड़ जाएंगे, लेकिन बदली परिस्थितियों में पार्टी को मजबूत करने और हेमंत सोरेन (झारखंड मुक्ति मोर्चा) सरकार के खिलाफ अगले पांच साल तक सड़क पर लड़ने की ज़रूरत है.”
उन्होंने जोर देकर कहा, “हम आदिवासी बेल्ट में सीटें नहीं जीत पाए और अब हमें गैर-आदिवासी और ओबीसी के अपने मूल वोट बैंक की रक्षा करनी है. चूंकि, दास सीएम और राज्यपाल के रूप में काम कर चुके हैं, इसलिए वे राज्य अध्यक्ष की भूमिका में फिट बैठते हैं या पार्टी के राष्ट्रीय संगठन में, यह सब केंद्रीय नेतृत्व के दृष्टिकोण और आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच नेतृत्व की भूमिका को कैसे संतुलित करना चाहते हैं, इस पर निर्भर करता है.”
दास के बारे में बात करते हुए पार्टी के झारखंड उपाध्यक्ष ने उन्हें “एक बड़ा ओबीसी नेता बताया जो भाजपा आलाकमान के बहुत करीब है”.
उन्होंने कहा, “वे राज्य में रहेंगे या केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए राज्यसभा सीट लेंगे या भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेंगे, यह सब पार्टी नेतृत्व को तय करना है. हालांकि, चूंकि झारखंड में पार्टी की हार के तुरंत बाद राज्यपाल पद से उनका इस्तीफा आया, इसलिए यह निश्चित है कि भाजपा नेतृत्व ने राज्य चुनाव में हार को गंभीरता से लिया है.”
राजनीतिक मजबूरियां और प्रतिद्वंद्विता
2019 और 2024 के विधानसभा चुनावों में लगातार दो हार के बाद, भाजपा ने अपना एक बड़ा वोट आधार खो दिया है, जिसमें आदिवासी और ओबीसी के कुछ वर्ग शामिल हैं. आदिवासी चेहरे बाबूलाल मरांडी के पार्टी की राज्य इकाई के प्रमुख होने के बावजूद आदिवासी वोट बैंक को जीतने के प्रयासों से लाभ नहीं हुआ है.
भाजपा को अब जाति संतुलन की रणनीति को फिर से समझना होगा और अगर वे आदिवासी समुदाय से विपक्ष का नेता चुनती है, तो उसे राज्य अध्यक्ष के रूप में गैर-आदिवासी को चुनना होगा.
भाजपा की चल रही राज्य इकाई के चुनाव समाप्त होने के बाद, एक नया राज्य अध्यक्ष चुना जाएगा. माना यह भी जा रहा है कि मौजूदा मरांडी विपक्ष के नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि उस पद के लिए दूसरे दावेदार चंपई सोरेन हैं, जो एक आदिवासी नेता हैं और जिन्होंने राज्य चुनावों में जीत हासिल की है. दास को तब राज्य अध्यक्ष के रूप में समायोजित किया जा सकता है या उन्हें राष्ट्रीय भूमिका दी जा सकती है।
झारखंड भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष रवींद्र राय ने दिप्रिंट से कहा कि पार्टी “राज्य में 28 प्रतिशत आदिवासी आबादी को यूं ही नहीं छोड़ सकती है, इसलिए यह देखा जाएगा कि आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों वर्गों को नेतृत्व की भूमिका में कैसे समायोजित किया जा सकता है”.
दास की बहू साहू, जो जमशेदपुर पूर्वी सीट से विधायक चुनी गई हैं, जिसका प्रतिनिधित्व उन्होंने लगातार पांच बार किया है, ने दिप्रिंट से कहा कि “हमें बहुत खुशी है कि वह झारखंड की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं, क्योंकि राज्य इकाई को मजबूत नेतृत्व की ज़रूरत है. कार्यकर्ता उनकी भूमिका का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं”.
उन्होंने कहा कि उपचुनाव की स्थिति में वे सीट से इस्तीफा देकर दास के लिए रास्ता बनाने में खुश होंगी.
दास को राज्य इकाई में प्रतिद्वंद्वी खेमे से भी जूझना पड़ रहा है, जिसमें एक तरफ पूर्व सीएम अर्जुन मुंडा और दूसरी तरफ मरांडी और गोड्डा के सांसद निशिकांत दुबे शामिल हैं.
पार्टी सूत्रों के अनुसार, ये नेता दास की वापसी की संभावना से घबराए हुए हैं, लेकिन चुनाव हारने के बाद अब उनकी हिस्सेदारी कम हो गई है. उन्होंने कहा कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने राज्यपाल के पद से दास के इस्तीफे को हरी झंडी दे दी है, जिससे यह पता चलता है कि पार्टी झारखंड में अपनी रणनीति को नए सिरे से तय करने पर विचार कर रही है.
सूत्रों ने यह भी बताया कि चूंकि, मरांडी दिल्ली के दौरे पर हैं, इसलिए दास के भाजपा की सदस्यता ग्रहण करने के समय उनके मौजूद रहने की संभावना नहीं है.
सितंबर के अंत में दुबे ने एक्स पर एक पोस्ट डाली थी, जिसमें कहा गया था कि दास “ओडिशा में नई सरकार का मार्गदर्शन करते रहेंगे.”
उन्होंने लिखा था, “भाजपा में कोई भ्रम नहीं है, क्योंकि केंद्रीय नेतृत्व ने रघुबर जी को ओडिशा का राज्यपाल नियुक्त किया है. पहली बार ओडिशा में हमारी अपनी सरकार है. रघुबर जी को मंत्री, मुख्यमंत्री और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष होने का अनुभव है. इसलिए, वे ओडिशा में नई सरकार का मार्गदर्शन करते रहेंगे.”
झारखंड में दास का सफर
झारखंड के पहले गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री दास को 2014 में राज्य के शीर्ष पद के लिए चुना जाना एक आश्चर्यजनक कदम था, जहां अनुमानित 28 प्रतिशत आबादी आदिवासी है. अनुमान है कि अन्य 45 प्रतिशत लोग ओबीसी समूहों से हैं, जिन्होंने राज्य में बड़े पैमाने पर भाजपा का समर्थन किया है.
2000 में राज्य के गठन के तुरंत बाद, वाजपेयी युग के दौरान, भाजपा ने सीएम का शीर्ष पद एक आदिवासी के लिए रखा था. पहले मरांडी को सीएम बनाया गया और बाद में मुंडा को. 2009 में जब भाजपा झामुमो के साथ गठबंधन में थी और शिबू सोरेन सीएम थे, तब दास उपमुख्यमंत्री थे. उन्होंने मरांडी और मुंडा मंत्रिमंडल में भी काम किया, लेकिन 2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री बने, तो भाजपा नेतृत्व ने उस साल झारखंड का नेतृत्व करने के लिए दास को चुना.
अपने कार्यकाल के दौरान दास ने अपने ओबीसी वोट बैंक को मजबूत करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें आदिवासी समुदाय के विरोध का सामना करना पड़ा. राज्य सरकार द्वारा छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम में संशोधन करने के (असफल) प्रयासों, जो आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को बेचने पर प्रतिबंध लगाते हैं, ने आदिवासी समुदाय में असंतोष पैदा किया, जिसका मानना था कि सरकार उनकी भूमि हड़पने की कोशिश कर रही है.
भाजपा 2019 में विधानसभा चुनाव में झामुमो से हार गई और राज्य में आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 सीटों में से केवल दो सीटें ही जीत पाई. उस साल झामुमो ने 1932 के खतियान विधेयक के रूप में आम तौर पर जाने जाने वाले प्रस्तावित कानून को लागू करने के वादे पर आदिवासी वोटों को एकजुट किया — जो राज्य के अधिवास मानदंड के रूप में 1932 से पहचान और ज़मीन के रिकॉर्ड का उपयोग करेगा — साथ ही एक अलग सरना धार्मिक संहिता भी.
इस साल लोकसभा चुनावों में भाजपा ने राज्य की सभी पांच आदिवासी सीटें खो दीं और पिछले महीने विधानसभा चुनावों में, उसने 28 आरक्षित सीटों में से केवल एक जीती, जबकि झामुमो के नेतृत्व वाले गठबंधन ने बाकी सीटों पर जीत हासिल की.
झारखंड भाजपा के एक पूर्व प्रमुख ने राज्य में जीत के लिए पार्टी के असफल प्रयासों और इसकी राजनीतिक मजबूरियों के बारे में बात की.
उन्होंने कहा, “पिछले पांच सालों में भाजपा ने आदिवासी मतदाताओं को वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास किया है. मरांडी को राज्य में खुली छूट दी गई, जबकि कई आदिवासी नेताओं को शामिल किया गया, लेकिन समुदाय ने चुनावों में झामुमो का समर्थन किया. यहां तक कि मुंडा लोकसभा चुनाव हार गए और उनकी पत्नी विधानसभा चुनाव हार गईं. केवल चंपई सोरेन ही अपनी सीट वापस जीत पाए. उनके समर्थित सभी अन्य उम्मीदवार हार गए. अमित शाह ने खुद सरना को एक अलग धार्मिक संहिता के रूप में मांग पर विचार करने का वादा किया था, लेकिन कुछ भी काम नहीं आया.”
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “दास की वापसी के खिलाफ इन (प्रतिद्वंद्वी) नेताओं का कोई भी तर्क अब कैसे काम करेगा? यह सच है कि उनकी सरकार ने आदिवासियों को अलग-थलग कर दिया था, लेकिन अब हमारा गैर-आदिवासी आधार भी खतरे में है.”
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