नई दिल्ली: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन ने कविता कृष्णन को पार्टी के सभी पदों और जिम्मेदारियों से ‘मुक्त’ कर दिया है, जिसे चीन से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर नेतृत्व के साथ उनके मतभेदों का नतीजा माना जा रहा है.
कविता कृष्णन ने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में एक स्टूडेंट एक्टिविस्ट के तौर पर शुरुआत की थी और पिछले दो दशकों से अधिक समय से भाकपा (माले) पोलित ब्यूरो और इसकी केंद्रीय समिति की सदस्य थीं.
This is totalitarianism not “socialism” in any sense that Marx meant it. China is a dystopian nightmare. If any Indian communist thinks it’s ok for “communists” to rule like this, then they should ask themselves what kind of democracy they’re fighting for in India? https://t.co/mAEFOXrliL
— Kavita Krishnan (@kavita_krishnan) June 26, 2022
कृष्णन ने गुरुवार को एक फेसबुक पोस्ट में घोषणा की थी कि कुछ ‘ज्वलंत राजनीतिक सवालों’ के साथ एक भाकपा (एमएल) नेता के तौर पर अपनी जिम्मेदारियों को आगे बढ़ना उनके लिए संभव नहीं हो पा रहा है.
वहीं, भाकपा (माले) ने अपनी तरफ से कहा है कि उसने ‘भारी मन से’ उनके इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया ताकि वह मुक्त रूप से कुछ ऐसे सवालों का जवाब तलाश सकें जिन्हें वह सबसे ज्यादा जरूरी मानती हैं.
भाकपा (माले) केंद्रीय समिति के सदस्य प्रभात कुमार ने कहा कि पार्टी ने अगस्त में विजयवाड़ा में हुई एक बैठक के दौरान उनके अनुरोध पर यह निर्णय किया.
भाकपा (माले) ने कहा, ‘सीसी (केंद्रीय समिति) पार्टी के साथ इतने लंबे तक सक्रियता से जुड़ी रहने के दौरान उनकी भूमिका की सराहना करती है और उम्मीद करती है कि भारत में लोकतंत्र, न्याय और सामाजिक परिवर्तन के लिए चल रही लड़ाई में उनका निरंतर योगदान जारी रहेगा.’
अपनी फेसबुक पोस्ट में कृष्णन ने तीन सवाल उठाए हैं, जिसमें सत्तावादी लोकलुभावनवाद के बढ़ते स्वरूप के खिलाफ सभी खामियों के साथ उदार लोकतंत्रों के बचाव की अहमियत समझने की आवश्यकता शामिल है. उन्होंने इस पर ध्यान देने की जरूरत भी बताई कि ‘स्टालिन शासन, यूएसएसआर, या चीन को विफल समाजवाद के रूप में ही याद नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इनकी चर्चा दुनिया के सबसे खराब सत्तावादी ताकतों के रूप में भी की जानी चाहिए.’
कृष्णन ने दिप्रिंट को बताया कि वह अपने पूरे राजनीतिक जीवनकाल में ऐसे सवालों से जूझती रही हैं लेकिन अब ये और भी ज्यादा जरूरी हो गए है क्योंकि उन्हें (वामपंथी नेताओं को) ‘भारत के संविधान और कमजोर, दोषपूर्ण लोकतंत्र 2014 के बाद से हिंदू वर्चस्ववादी फासीवादी शासन से’ बचाने के लिए आगे आना चाहिए.’
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘स्पष्ट तौर पर आज हम भारत में जो सबसे ज्यादा जरूरी समझते हैं वो है लोकतंत्र को मजबूत करना, लोकतंत्र और न्याय की व्यवस्था ऐसी हो जो केवल कागजी वादों तक ही न सिमटी रहे, बल्कि भोजन, पानी, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के अधिकार आम नागरिकों के वास्तविक अधिकार बन सकें. इसके साथ समान रूप से संघ, राजनीतिक और कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हो और असहमति को राष्ट्र विरोधी होने का ठप्पा लगाए बिना स्वीकार किया जाए.’
उन्होंने कहा, ‘अगर हमें ऐसे भारत के लिए संघर्ष करना है तो क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि चीन के लोग भी ऐसा चीन चाहते होंगे? यह कि उइगुर और तिब्बती चाहते हैं कि उनकी स्वतंत्रता के हनन से जुड़ी सच्चाई हम स्वीकारें? क्या उनके उत्पीड़न और पीड़ा को स्वीकारने के लिए हमें पूर्व रूसी और सोवियत उपनिवेशों के लोगों का आभारी नहीं होना चाहिए?’
कृष्णन ने कहा कि उन्हें लगता है कि भारत में उदार राजनीति लोकतंत्र मजबूत करने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘मोदी सरकार ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ इस्तेमाल के लिए चीन से चेहरा पहचानने की तकनीक ली है—और, निस्संदेह, भविष्य में मुसलमानों को एक जगह तक सीमित करने के उद्देश्य से कंसेंट्रेशन कैंप बनाने की कोशिश होगी जैसे चीन ने ‘आतंक के खिलाफ जंग’ के नाम पर उइगर मुसलमानों के लिए बना रखे हैं. मुझे लगता है कि भारत में ‘उदारवादी’ राजनीति की न कोई दिलचस्पी बची है और न ही लोकतंत्र को मजबूत करने पर ध्यान दिया जा रहा है. हालांकि मार्क्सवादी-लेनिनवादी मूवमेंट ने भारतीय समाज और राजनीति को लोकतांत्रिक बनाने के लिए बहुत कुछ किया है लेकिन वाम आंदोलन वास्तव में लोकतंत्र के बारे में अपनी सोच के स्तर पर पूरी तरह दृढ़ प्रतिज्ञ और स्पष्ट नहीं रहा है.’
पार्टी से बाहर निकलने के बारे में इस एक्टिविस्ट का कहना है, निर्णय परस्पर सहमति और सौहार्दपूर्ण तरीके से लिया गया. और साथ ही जोड़ा कि पार्टी के साथ उनके रिश्ते घनिष्ठ और मैत्रीपूर्ण बने रहेंगे.
कृष्णन ने इस सवाल पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया कि क्या उनका बाहर होना उनकी टिप्पणियों से जुड़ा था, जो रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान सोशलिस्ट शासन पर उनके रुख से जुड़ी थीं.
एक्टिविस्ट ने अपने ट्वीट में कहा था कि वाम दल या तो यूएसएसआर द्वारा यूक्रेनी किसानों के हिंसक दमन के बारे में अज्ञानी हैं या फिर जानबूझकर इसे नकारते रहे हैं.
How much of the Left is ignorant of – or in wilful denial of – this fact? That the “miraculous industrialisation of USSR”under Stalin was possible because of the violent subjugation of Ukraine’s peasants (starvation, execution, exile) & colonial expropriation of Ukraine’s grain. https://t.co/WgmvA0YK1k
— Kavita Krishnan (@kavita_krishnan) July 3, 2022
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भाकपा (माले) की प्रतिक्रिया
भाकपा (माले) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने कहा कि सोच में अंतर जैसी कोई बात नहीं है क्योंकि सभी ‘साझे दुश्मन’ के खिलाफ लड़ रहे हैं.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘यह घटनाक्रम दुर्भाग्यपूर्ण जरूर है लेकिन वह ऐसा ही चाहती थीं और हमने इसे स्वीकार कर लिया. जाहिर तौर पर उन्हें पार्टी में बनाए रखने के प्रयास किए गए…पार्टी कभी भी किसी कॉमरेड के साथ छोड़ने से खुश नहीं हो सकती और खासकर जब वह कविता जैसी कोई वरिष्ठ सहयोगी हो.’
उन्होंने कहा, ‘यह पार्टी का केंद्रीय एजेंडा है और हम इसमें साथ हैं. दुश्मन एक ही हो तो उसके खिलाफ कौन अंतर कर सकता है? हम सभी एक विचारधारा के खिलाफ लड़ रहे हैं और हर दिन बहुत कुछ करते रहते हैं.’
भट्टाचार्य ने आंतरिक स्तर पर मतभेदों की अटकलों को खारिज करते हुए कहा कि कृष्णन का बाहर निकलना एक निजी फैसला था और पार्टी इसका सम्मान करती है.
उन्होंने बताया, ‘युद्ध के दौरान (यूक्रेन के साथ) हमारा रुख रूस विरोधी था और हमने रूस की निंदा की और तुरंत युद्ध रोकने की मांग भी की. उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि वह पार्टी का हिस्सा बनने के बजाये स्वतंत्र रूप से कुछ सवाल उठाना चाहती हैं.’
भाकपा (माले) के वरिष्ठ नेता संजय शर्मा ने भी यही बात दोहराई. उन्होंने कहा, ‘यह आपसी समझ से तय किया गया है और पार्टी अपने बयान में लिखी गई बातों से आगे कुछ भी नहीं जोड़ना चाहती.’
बतौर एक्टिविस्ट कृष्णन की सियासी पारी की शुरुआत लेफ्ट से जुड़े अखिल भारतीय छात्र संघ (आइसा) सदस्य के तौर पर हुई थी. वह 1995 में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी छात्र संघ की संयुक्त सचिव चुनी गईं. बाद में उन्होंने भाकपा (माले) की महिला विंग अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ के सचिव के तौर पर भी कार्य किया.
कृष्णन ने कहा कि उनके अपने सहयोगियों के साथ रिश्ते टूटे नहीं हैं. उन्होंने कहा, ये (साथी कॉमरेड) अभी भी भारतीय राजनीति और समाज में सबसे अच्छे लोग हैं. उनका काम मुझे हमेशा प्रेरित करता रहेगा.’
कृष्णन ने यह घोषणा भी की है कि वह किसी पार्टी में शामिल होने या नई पार्टी बनाने का इरादा नहीं रखती हैं, हालांकि वह सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय रहेंगी.
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