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Saturday, 2 November, 2024
होमराजनीतिदांव पर है ‘ओल्ड गार्ड’ की साख, होगा ‘रेवड़ी संस्कृति’ का इम्तहान- आगामी विधानसभा चुनावों के ये हैं रुझान

दांव पर है ‘ओल्ड गार्ड’ की साख, होगा ‘रेवड़ी संस्कृति’ का इम्तहान- आगामी विधानसभा चुनावों के ये हैं रुझान

पांच राज्यों— मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, और मिजोरम— में होने जा रहे चुनावों में किन पांच मुद्दों पर होगा फैसला ?

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पूरे देश में आज जो खबरें सबसे ज्यादा सुर्खियों में हैं वे और कुछ नहीं बल्कि पांच राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, और मिजोरम) के आसन्न चुनाव से संबंधित ही हैं.

जहां तक मिजोरम की बात है, वह एक छोटा-सा राज्य भले है मगर वह उत्तर-पूर्व में राजग गठबंधन के उस गुलदस्ते का एक फूल है, जिसके बूते भाजपा यह दावा करती है कि आज पूरे उत्तर-पूर्व में या तो वह खुद या उसका कोई सहयोगी दल सत्ता में है.

यहां हम चार बड़े राज्यों— मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना—की बात करेंगे. इन राज्यों की आंतरिक राजनीति में झांके बिना हम अपने राजनीतिक संपादक डी.के. सिंह की मदद से मोटे तौर पर पांच प्रमुख रुझानों पर नजर डालेंगे.

पहली बात, ये चुनाव पुरानी पीढ़ी (‘ओल्ड गार्ड’) के वजूद का, या शायद उसके आखिरी खेल का मामला साबित हो सकते हैं. दूसरे, ये यह दर्शाते हैं कि भाजपा की रणनीति और काँग्रेस की रणनीति किस तरह छत्तीस के आंकड़े जैसी दिखती है. तीसरे, ये चुनाव भाजपा के नेतृत्व वाले राजग गठबंधन और विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन के भविष्य का फैसला कर सकते हैं. चौथे, ये रेवड़ी की राजनीति या जनकल्याण के उपायों की परीक्षा भी साबित होंगे. और पांचवें, इन चुनावों में महिला वोटरों की भूमिका अहम साबित हो सकती है.

नेता कौन होगा?

सबसे पहले, इन चार राज्यों में नेतृत्व पर नजर डालिए. तेलंगाना में केसीआर 69 के हो चुके हैं. वे अपनी पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री की गद्दी के उम्मीदवार हैं और पार्टी में उन्हें कोई चुनौती नहीं है. अगर वे चुनाव जीत जाते हैं तो इस बात की संभावना न के बराबर है कि 74 साल की उम्र में वे फिर चुनाव लड़ेंगे, क्योंकि पांच साल बाद वह समय होगा जब उन्हें अपने उत्तराधिकारी के बारे सोचना पड़ सकता है. और इस बार अगर वे नहीं जीते तब भी इसकी संभावना कम ही होगी कि अगली बार वे उम्मीदवार बनेंगे.

File photo of BRS chief K Chandrashekar Rao (KCR) | ANI

छत्तीसगढ़ में, रमन सिंह ने सबसे लंबा इंतजार किया है. भाजपा ने साफ-साफ तो नहीं कहा है कि वे मुख्यमंत्री पद के पार्टी उम्मीदवार होंगे, लेकिन वह उन्हें मोर्चे पर आगे रख रही है. और फिलहाल तो वे छत्तीसगढ़ में भाजपा के सबसे अग्रणी नेता हैं, और 71 के हो चुके हैं. जो भी हो, अगले चुनाव तक वे भी भाजपा में निर्धारित 75 साल की आयुसीमा को पार कर चुके होंगे.

राजस्थान में, वसुंधरा राजे 70 की हैं. उनके लिए भी यह आखिरी चुनाव ही हो सकता है.

इसी के साथ, छत्तीसगढ़, और राजस्थान में भी भाजपा ने अपने पुराने नेताओं की जगह युवा उम्मीदवार को नहीं खड़ा किया है. यह इसी विचार की तस्दीक करता है कि यह चुनाव भी पुरानी पीढ़ी की मजबूती को ही उजागर करता है.

राजस्थान में, अशोक गहलोत 72 साल के हैं. यह नामुमकिन ही है कि वे अगला चुनाव लड़ेंगे. उन्हें सचिन पाइलट के रूप में एक चुनौती मिली थी. यानी, इस राज्य में कांग्रेस पार्टी के पास एक युवा नेता है लेकिन उसने उनकी जगह पुराने नेता को तरजीह दी.

File photo of Ashok Gehlot (L) & Sachin Pilot (R) | ANI
अशोक गहलोत (बाएं) और सचिन पायलट (दाएं) की फाइल फोटो | एएनआई

मध्य प्रदेश में भी, नेता उतने पुराने नहीं हुए हैं. शिवराज सिंह चौहान 64 साल के हैं. लेकिन आभास यही होता है मानो वे काफी समय से काबिज हैं. मुख्यमंत्री के रूप में वे चार कार्यकाल बिता चुके हैं. अब पांचवें कार्यकाल के लिए उनके चुने जाने की संभावना बहुत मजबूत नहीं है. ऐसा लगता है कि यह उनकी आखिरी पारी, सत्ता के लिए यह उनका अंतिम दांव है.

और मध्य प्रदेश में भाजपा के पास कुछ युवा नेता भी हैं. उदाहरण के लिए, ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं, लेकिन उसने प्रदेश के चुनाव में उन्हें नहीं उतारा है. भाजपा यह नहीं कह सकती कि वे उसके केंद्रीय नेता हैं; उसने तीन वर्तमान केंद्रीय मंत्रियों समेत कुल सात वर्तमान सांसदों को इस चुनाव में उम्मीदवार बनाया है, लेकिन सिंधिया को नहीं क्योंकि तब उन्हें तुरंत चौहान के लिए चुनौती के रूप में देखा जाता. यानी, भाजपा का सबसे वरिष्ठ नेता बिना यह कहे पार्टी का नेतृत्व कर रहा है कि वह मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार है.

File photo of Union minister Jyotiraditya Scindia (L) and Shivraj Singh Chouhan (R) | ANI
केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया (बाएं) और शिवराज सिंह चौहान (दाएं) की फाइल फोटो | एएनआई

कांग्रेस पार्टी को देखें तो मध्य प्रदेश में उसके एक केंद्रीय नेता 76 वर्षीय दिग्विजय सिंह हैं, जो चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं. टिकट बंटवारे में उनकी भूमिका प्रमुख रही है लेकिन उनसे ज्यादा महत्वपूर्ण दिख रहे हैं कमलनाथ. इस चुनाव अभियान में (मिजोरम को छोड़कर) जुटे सभी नेताओं में कमलनाथ वरिष्ठ उम्मीदवारों में सबसे पुराने हैं. कुछ सप्ताह में, नवंबर में वे 77 के हो जाएंगे. काँग्रेस ने मध्य प्रदेश में युवा नेताओं की जगह उन्हें तरजीह दी है.

वास्तव में, मध्य प्रदेश में हमें ज्यादा युवा नेता नहीं दिखते, और कांग्रेस ने कमलनाथ को पार्टी को पुनर्गठित करने की छूट दी है. टिकट बंटवारे में उनकी सबसे ज्यादा चली. अगर वे सत्ता में आते हैं तो पूरी संभावना है कि उनके उत्तराधिकारी को तैयार किया जाएगा.

एक अहम बात यह है कि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह, दोनों के बेटे राजनीति में पहले से सक्रिय हैं. कमलनाथ के बेटे सांसद हैं, 2019 में मध्य प्रदेश में काँग्रेस के लिए एकमात्र लोकसभा सीट उन्होंने ही जीती थी. यह उनके परिवार की पारंपरिक सीट रही है, जहां से कमलनाथ चुनाव जीता करते थे. और दिग्विजय सिंह के बेटे विधायक हैं. दोनों की अगली पीढ़ी तैयार है लेकिन अभी वह विरासत संभालने को तैयार नहीं है.

छत्तीसगढ़ की तस्वीर थोड़ी गड्डमड्ड है क्योंकि वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, जिन्हें काँग्रेस पार्टी ने फिर उम्मीदवार बनाया है, भारतीय राजनीति के पैमाने से काफी युवा हैं. वे 62 साल के हैं. और पुराने नेता टी.एस. सिंहदेव के लिए, जो उनके लिए चुनौती रहे हैं, यह शायद आखिरी चुनाव ही है और ऐसा लगता है कि वे नेतृत्व की दौड़ में हैं भी नहीं.

File photo of Bhupesh Baghel (L) and TS Singh Deo (R) | ANI
भूपेश बघेल (बाएं) और टीएस सिंह देव (दाएं) की फाइल फोटो | एएनआई

मिजोरम में, वर्तमान मुख्यमंत्री, एमएनएफ के 79 वर्षीय जोरमथंगा लंबे समय तक भूमिगत मिज़ो लड़ाके रहे. यहां तक कि उन्हें चुनौती देने वाले काँग्रेस नेता ललसवता भी 77 साल के हैं.

हमारा निष्कर्ष यह है कि ये चुनाव कई तरह से पुरानी पीढ़ी की मजबूती को ही उजागर कर रहे हैं. यह 70 साल से ऊपर की उम्र वाले नेताओं का चुनाव है.


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रणनीति क्या है?

अब, परस्पर विरोधी रणनीतियों की बात. अतीत में, काँग्रेस एक ऐसी पार्टी थी जो आलाकमान के कमांड से चलती थी, राज्य इकाइयों की कोई ताकत नहीं थी. भाजपा में भी आलाकमान था लेकिन उसके प्रादेशिक नेता ताकतवर थे, जो अपने लिए बहुत सारे फैसले खुद करते थे. यही वजह थी कि राजस्थान में वसुंधरा राजे, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह, उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह, महाराष्ट्र में देवेंद्र फडनवीस और उनसे पहले नितिन गडकरी उभरे.

अब यह स्थिति नहीं रह गई है. भाजपा अब आलाकमान के कमांड पर चलने के मामले में कांग्रेस से भी ज्यादा आगे बढ़ गई है. दूसरी ओर, काँग्रेस अब आलाकमान के इशारे पर कम चलने लगी है. ऐसा लगता है कि भाजपा ने खुद को काँग्रेस की पुरानी आलाकमान वाली छवि और शैली में ढालने की कोशिश की है, जबकि कांग्रेस ढील-ढाले आलाकमान और ताकतवर प्रादेशिक इकाइयों वाली पुरानी भाजपाई शैली में ढलने की कोशिश कर रही है.

File photo of BJP central election committee meet in New Delhi | ANI
नई दिल्ली में भाजपा केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक की फाइल फोटो | एएनआई

मध्य प्रदेश में काँग्रेस ने शुरू से यह बिलकुल साफ कर दिया है कि कमलनाथ उसकी ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. उसे इसकी घोषणा करने की भी जरूरत नहीं पड़ी, स्थानीय पार्टी नेताओं ने ही कहना शुरू कर दिया था कि “कमलनाथ हमारे भावी मुख्यमंत्री हैं”. कांग्रेस आलाकमान ने न कभी इसका खंडन किया और न कभी इनकार किया.

भाजपा ने चौहान को चुनाव लड़ने का टिकट तो दिया मगर पार्टी आज यह कहने को तैयार नहीं है कि वे उसकी ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. खुद चौहान या उनके समर्थक भी यह नहीं कह सकते. बल्कि भाजपा ने कहा है कि प्रधानमंत्री ही इस चुनाव में पार्टी के चेहरा होंगे.

मध्य प्रदेश के मतदाताओं के नाम लिखे अपने पत्र में प्रधानमंत्री ने कहा है कि वे उन्हें ठीक उसी तरह ‘सीधा समर्थन’ दें जिस तरह 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में दिया था. यानी, वे अपने लिए वोट मांग रहे हैं और टिकट वितरण पार्टी आलाकमान ने किया है, जो स्थानीय नेताओं या एजेंसियों या शायद सर्वेक्षणों से मिली जानकारियों के आधार पर किया गया है. लेकिन वह भाजपा की प्रादेशिक इकाई का फैसला नहीं है.

File photo of Digvijaya Singh (L) and Kamal Nath (R) | ANI
दिग्विजय सिंह (बाएं) और कमल नाथ (दाएं) की फाइल फोटो | एएनआई

मध्य प्रदेश में कमलनाथ को कांग्रेस के भीतर से कोई चुनौती नहीं दी गई है, जबकि भाजपा के ताकतवर महासचिव कैलास विजयवर्गीय समेत चौहान के तमाम प्रतिद्वंद्वियों को चुनाव मैदान में उतार दिया गया है. चौहान के साथ तीन केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, प्रह्लाद पटेल, फग्गन सिंह कुलस्ते भी मैदान में होंगे.

अब राजस्थान को देखें, कि वह इस कसौटी पर कितना खरा उतरता है. काँग्रेस ने अशोक गहलोत को ही आगे रखा है, और सचिन पाइलट पर लगाम कसी है, जो हाल के दिनों में कम से कम बयान दे रहे हैं. टिकट वितरण में गहलोत की ही मुख्य भूमिका रही है, क्योंकि अंततः प्रदेश का पार्टी नेता ही तय करता है कि चुनाव में टिकट किसे देना है.

वहां भी भाजपा में लगभग जो कुछ हुआ है वह आलकमान की ओर से ही हुआ है. प्रदेश की सबसे अग्रणी नेता वसुंधरा राजे को नामजद किए जाने के लिए अंत तक इंतजार करवाया गया. शुरू में तो उनके कई करीबियों को छोड़ दिया गया था मगर फाइनल लिस्ट में ऐसे कुछ नेताओं को जगह दे दी गई. एक समय तो भाजपा के दिवंगत नेता भैरों सिंह शेखावत के दामाद नरपत सिंह रजवी को भी छोड़ दिया गया था. शेखावत अटल बिहारी वाजपेयी युग में भाजपा के सबसे ताकतवर तथा सम्मानित नेता थे, जो राजस्थान के मुख्यमंत्री भी रहे और देश के उप-राष्ट्रपति तक बने.

File photo of Vasundhara Raje and PM Narendra Modi | ANI
वसुंधरा राजे और पीएम नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो | एएनआई

उनके दामाद रजवी को पहली लिस्ट में शामिल नहीं किया गया था और उनके चुनाव क्षेत्र विद्याधर नगर से जयपुर के राजपरिवार की राजकुमारी और राजसमंद से वर्तमान सांसद दीया कुमारी को टिकट दिया गया. ऐसा लगा कि भाजपा वसुंधरा राजे के ढोलपुर राजपरिवार को किनारे करके जयपुर राजपरिवार को आगे लाना चाहती है. इसके कारण भाजपा के अंदर अच्छी-खासी बगावत भड़क गई और रजवी ने दीया कुमारी का नाम लिये बिना काफी कड़ा बयान दे डाला. उन्होंने कहा, “पार्टी उन लोगों के प्रति काफी मेहरबान दिख रही है, जिन्होंने मुगलों के आगे घुटने टेके थे; पार्टी राणा प्रताप से लड़ने वालों के प्रति भी काफी उदार दिख रही है. भैरों सिंह शेखावत ने आजीवन जो सेवा की उसे खारिज किया जा रहा है.”

अंततः रजवी को जगह दी गई, मगर दूसरी सीट से. एक बार फिर, फैसला केंद्र ने किया.

तेलंगाना में भाजपा के अध्यक्ष बंदि संजय कुमार खासे लोकप्रिय हैं मगर विवादास्पद भी हैं और रूखे भी. पार्टी उनके रूखेपन से नाराज नेताओं और बीआरएस से भाजपा में आए इटाला राजेंदर के कारण काफी दबाव में थी. केंद्र की ओर से संजय कुमार को हटा कर जी. किशन रेड्डी को भेज दिया गया.

File photo of Union ministers G Kishan Reddy (L) and Amit Shah (R) | ANI
केंद्रीय मंत्री जी किशन रेड्डी (बाएं) और अमित शाह (दाएं) की फाइल फोटो | एएनआई

दूसरी ओर, कांग्रेस के तेलंगाना अध्यक्ष रेवंत रेड्डी कम विवादास्पद और कम रूखे नहीं हैं. असंतुष्टों का एक दल काँग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से आकर मिला, खड़गे ने रेड्डी से बात की. मेरा ख्याल है, उन्होंने रेड्डी को भी समझाया और असंतुष्टों को भी शांत रहने को कहा.

उधर, छत्तीसगढ़ में ऐसा लग रहा था कि भाजपा किसी प्रमुख नेता को आगे न करने की अपनी राजस्थान और मध्य प्रदेश वाली नीति ही लागू करेगी, लेकिन अंतिम क्षण में उसने रमन सिंह को चुनाव मैदान में उतार दिया. पिछले पांच साल में उसने कभी नहीं कहा था कि छत्तीसगढ़ में वे उसके नेता होंगे. लेकिन अंततः जब उन्होंने पर्चा दाखिल कर दिया तब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह छत्तीसगढ़ पहुंचे.

File photo of Raman Singh (centre) | ANI
रमन सिंह की फाइल फोटो (बीच में) | एएनआई

NDA बनाम ‘इंडिया’

तीसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि ये चुनाव NDA और इंडिया, दोनों गठबंधनों का भविष्य तय कर देंगे. अगर विपक्ष, यानी फिलहाल काँग्रेस इन राज्यों में बहुत अच्छा प्रदर्शन करती है तो इंडिया गठबंधन को ताकत मिलेगी. इससे गठबंधन का नेतृत्व करने की कांग्रेस की साख और मजबूत होगी.

File photo of leaders of INDIA alliance holding a press conference | ANI
प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए भारतीय गठबंधन के नेताओं की फाइल फोटो | एएनआई

और भाजपा अगर इन पांच में से चार राज्यों को जीतने का शानदार प्रदर्शन करती है तो राजग को और मजबूत करने और पुराने सहयोगियों को जोड़ने की जरूरत कमजोर पड़ेगी. इससे राजग गठबंधन को धक्का लगेगा.

लेकिन इन चार राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन खराब रहता है तब उसे महसूस हो सकता है कि आगामी आम चुनाव में उसकी सीटें घट सकती है और तब पुराने सहयोगियों को जोड़ने पर विचार किया जा सकता है.

‘रेवड़ी’ संस्कृति का इम्तहान

इसके बाद आती है मतदाताओं को मुफ्त सुविधाएं देने या रेवड़ी बांटने के चलन के इम्तहान की बात.

इधर कुछ समय से काँग्रेस और विपक्षी दल मतदाताओं को काफी मुफ्त सुविधाएं देने के वादे कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि कर्नाटक में यह चाल कामयाब रही. तेलंगाना में भी यह काम कर गई. मध्य प्रदेश में जनकल्याण के लिए काफी सब्सिडियां दी जा चुकी हैं. और राजस्थान में कांग्रेस ने सबसे कम दाम में एलपीजी सिलिंडर देने, पुरानी पेंशन स्कीम लागू करने जैसे कई वादे किए हैं.

भाजपा या प्रधानमंत्री ने जिसे राजनीति में ‘रेवड़ी संस्कृति’ नाम दिया है, उसकी वे कुछ समय तक तो आलोचना करते रहे लेकिन हाल के दिनों में वे इस पर खामोश हैं, जो गौरतलब है. क्या उन्हें यह चिंता सता रही है कि यह विपक्ष को फायदा पहुंचा रही है?

ऐसा लगता है कि रेवड़ी की राजनीति कारगर रहती है, इसलिए अगले आम चुनाव के लिए भाजपा इस मामले पर अपना रुख पूरी तरह बदल सकती है.

महिला वोट

पांचवां मुद्दा, महिला वोट का है. इस चुनाव अभियान में भाजपा महिला आरक्षण बिल को सचमुच में बड़ा मुद्दा बना रही है, क्योंकि उसे महिला वोट की दरकार है. वह जनकल्याण कार्यक्रमों को, खासकर महिलाओं से जुड़े और वह भी मध्य प्रदेश में, ज्यादा उछाल रही है. कर्नाटक चुनाव के बाद कांग्रेस भी उन राज्यों में महिला मतदाताओं को निशाना बना रही है, जहां चुनाव होने वाले हैं.

मध्य प्रदेश में भाजपा ने काँग्रेस के एक-एक कार्यक्रम के जवाब में अपना कार्यक्रम घोषित किया है क्योंकि दावा महिला वोटों पर है.

लेकिन फिलहाल भाजपा के पास कोई मजबूत महिला चुनाव प्रचारक नहीं है. राजस्थान में वसुंधरा राजे हैं लेकिन उन्हें कुछ समय से मुख्यधारा के चुनाव अभियान से अलग रखा गया. बीते समय में उसके पास सुषमा स्वराज और उमा भारती थीं.

कांग्रेस के पास प्रियंका गांधी हैं, जिनके चलते उसका पलड़ा थोड़ा भारी दिखता है.

लेकिन महिला वोट इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया है? क्योंकि कुछ समय से देखा जा रहा है कि पुरुषों से ज्यादा संख्या में महिलाएं वोट देने के लिए आगे आ रही हैं. 2009, 2014, 2019 के लोकसभा चुनावों से महिला वोटरों का प्रतिशत बढ़ता गया है. और 2019 में वे जितनी तादाद में वोट देने आईं, उसने तस्वीर बदल दी और हर किसी को महिला वोट काफी महत्वपूर्ण लगने लगा.

इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि हिंदी पट्टी के कम-से-कम तीन राज्यों— मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़—में विभिन्न दलों को वोट देने वाले पुरुष और महिला मतदाताओं का प्रतिशत क्या रहा है.

Infographic: Soham Sen | ThePrint
इन्फोग्राफिक: सोहम सेन | दिप्रिंट

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मध्य प्रदेश की सारी सीटें जीत ली थी. वोट देने वाले कुल मतदाताओं में भाजपा को वोट देने वाले पुरुषों का प्रतिशत 54 था, तो महिलाओं का प्रतिशत 45 था. राजस्थान में यह क्रमशः 58 और 53 था. और छत्तीसगढ़ में क्रमशः 29 और 38 था.

भाजपा मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस अंतर को जरूर कम करना चाहेगी.


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