पटना: हालांकि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार सरकार द्वारा सोमवार को जारी किए गए जाति डेटा का राष्ट्रीय राजनीति के लिए संभावित रूप से विघटनकारी प्रभाव होने की संभावना है, खासकर 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले, लेकिन राज्य में इसका अधिक प्रभाव नहीं पड़ने वाला है. बिहार की राजनीति पर नजर रखने राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने दिप्रिंट को बताया.
राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसा जाति जनगणना के नतीजों के कारण हुआ है – जिसके अनुसार राज्य की 63 प्रतिशत आबादी अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) समुदायों से है, जबकि उच्च जातियां राज्य की जनसंख्या का केवल 15.5 प्रतिशत है. यह केवल राज्य में जाति जनसांख्यिकी के बारे में आम तौर पर प्रचलित विचारों को मान्यता प्रदान करता है.
राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार राज्य में उच्च जाति की आबादी में कमी कोई आश्चर्य की बात नहीं है. उनका मानना है कि “बड़े पैमाने पर प्रवासन के कारण” और राज्य में उनकी संख्या प्रभावित करने वाले एक कारक हैं.
बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य और लेखक प्रेम कुमार मणि ने कहा, “वास्तव में इस तथ्य को छोड़कर कुछ भी नहीं बदला है कि EBC आबादी जो 29 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया था वह वास्तव में 34 प्रतिशत से अधिक है. जिसका उद्देश्य समाज के निचले स्तर की स्थितियों में सुधार लाना है.”
हालांकि, जातिगत रिपोर्ट व्यापक पिछड़ी जातियों की श्रेणी के भीतर अब तक जो सच माना जाता था उससे कुछ भिन्नताएं दिखाती है.
उदाहरण के लिए, 1931 की अंतिम जाति जनगणना और जाति नेताओं द्वारा किए गए दावों के आधार पर, अब तक आबादी का छह प्रतिशत माने जाने वाले कुशवाहा (OBC) बिहार की आबादी का सिर्फ चार प्रतिशत से थोड़ा अधिक पाए गए हैं. ऐसा कहा जाता है कि बीजेपी द्वारा बिहार इकाई के अध्यक्ष के रूप में सम्राट चौधरी को चुनने के पीछे कुशवाहा वोटबैंक में सेंध मारने की कोशिश की थी.
इसी तरह, दलित (अनुसूचित जातियां), जो 1931 में राज्य की आबादी का 16 प्रतिशत थे, अब बिहार में लगभग 20 प्रतिशत के आस-पास हैं.
यह नीतीश और उनके राष्ट्रीय जनता दल के सहयोगी लालू प्रसाद यादव के लिए चिंता का विषय हो सकता है, क्योंकि राज्य में सबसे अधिक पहचाने जाने वाले दलित चेहरों में से दो, चिराग पासवान और जीतन राम मांझी, दोनों बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) का हिस्सा हैं.
कहा जाता है कि बिहार में नीतीश कुमार द्वारा लाए गए शराबबंदी कानून की कीमत उन्हें दलित वोटों के रूप में चुकानी पड़ी, क्योंकि इसके कारण उनमें से एक वर्ग (पासी, या ताड़ी निकालने वाले) को उनके पैतृक पेशे से वंचित कर दिया गया है.
बिहार कैबिनेट ने पिछले साल जून में जाति सर्वेक्षण को मंजूरी दी थी. जनगणना का पहला चरण इस साल जनवरी में आयोजित किया गया था, जबकि दूसरा चरण अप्रैल और मई के बीच आयोजित किया गया था. नतीजे सोमवार को घोषित किए गए.
जबकि राजद नेता और बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने बिहार जाति रिपोर्ट को एक “मील का पत्थर” बताया है, जो “वंचित वर्गों को उनका हक मिलना सुनिश्चित करेगा”. जदयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा ने कहा कि “यह सामाजिक न्याय के मार्ग को मजबूत करेगा”.
इस बीच, बीजेपी सांसद सुशील मोदी ने कहा है कि जाति जनगणना कराने का निर्णय तब लिया गया था जब राज्य में जदयू और बीजेपी के गठबंधन की सरकार थी. जबकि राजद विपक्ष में थी. बाद में नीतीश कुमार की जदयू ने राजद से हाथ मिला लिया था.
विपक्ष पहले से ही बिहार की जातिगत जनगणना को राष्ट्रीय स्तर पर कराने की मांग कर रहा है. हालांकि, राजनीतिक विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह मांग 2024 के आम चुनाव से पहले पिछड़ी जातियों को एकजुट करने के लिए एक बड़ा मुद्दा बन सकता है.
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‘छोटे समुदाय को मिलेगी आवाज़’
बीजेपी, जिसे ‘अक्सर ऊंची जातियों की पार्टी का टैग दिया जाता है’, पार्टी की बिहार इकाई में भी कई सवर्ण नेता हैं (राज्य में ऊंची जाति की आबादी की तुलना के हिसाब से अधिक).
जबकि एक बीजेपी नेता ने दिप्रिंट को बताया कि राज्य “उच्च जाति बनाम पिछड़ी जाति” की राजनीति से आगे बढ़ गया है, राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार, पार्टी राज्य में पिछड़ी जातियों के बीच समर्थन बनाने की कोशिश कर रही है, जो ज्यादातर सत्तारूढ़ पार्टी के पीछे हैं.
मणि ने कहा, “1990 में बिहार की राजनीति में लालू के उदय और उत्तर और मध्य बिहार में जातीय हिंसा के बाद, उच्च जातियों का दिल्ली, बेंगलुरु, कोलकाता और देश भर में बड़े पैमाने पर प्रवास हुआ. इसके अलावा ऊंची जातियां आम तौर पर अधिक शिक्षित होती हैं और आम तौर पर उनके दो से अधिक बच्चे नहीं होते हैं. इसलिए 1931 की जाति जनगणना में 13 प्रतिशत से घटकर लगभग 10 प्रतिशत हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. इसका मतलब यह नहीं है कि उनका राजनीतिक प्रभाव समाप्त हो जाएगा.”
1990 के दशक में मध्य बिहार में उच्च जाति, खासकर भूमि के मालिक भूमिहारों को निशाना बनाकर की गई नक्सली हिंसा के कारण समुदाय के कई लोगों को राज्य छोड़ना पड़ा. मणि के अनुसार लगभग उसी समय उत्तरी बिहार में उच्च और पिछड़ी जाति समुदायों के बीच जातीय हिंसा के परिणामस्वरूप तेजी से पलायन भी हुआ.
2000 में, बिहार को विभाजित करके झारखंड राज्य बनाया गया. जबकि एकीकृत राज्य में नौकरियों और शिक्षा में अनुसूचित जनजाति (ST) के लोगों के लिए 9 प्रतिशत आरक्षण था, और क्योंकि राज्य के अधिकांश आदिवासी बहुल क्षेत्र विभाजन के साथ झारखंड का हिस्सा बन गए, राज्य में ST आरक्षण को घटाकर एक प्रतिशत कर दिया गया.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि आठ प्रतिशत की गिरावट के परिणामस्वरूप सत्ता के पदों पर यादवों (OBC का एक हिस्सा) का प्रतिशत तेजी से बढ़ गया.
नाम न छापने की शर्त पर एक जदयू विधायक ने दिप्रिंट से कहा, “यादव प्रमुख पिछड़ा वर्ग होने के कारण (1931 में 11 प्रतिशत थे, अब उनकी संख्या कुल जनसंख्या का 14 प्रतिशत हो गया है) मूल नियम यह है कि हर दूसरी जाति इस प्रमुख जाति के खिलाफ हाथ मिला लेगी.”
पटना में एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डॉ. डी. एम. दिवाकर ने कहा, जाति सर्वेक्षण कुछ छोटे समूहों को उनकी संख्या के बारे में जागरूक करके सौदेबाजी को बढ़ावा दे सकता है.
इनमें नाईस भी शामिल हैं जो सोमवार की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 10 प्रतिशत के आस-पास हैं. इसमें नोनिया (1.9 प्रतिशत), कुम्हार (1.4 प्रतिशत) और मल्लाह (2.6 प्रतिशत) हैं जो पिछड़े वर्ग या OBC का हिस्सा हैं.
(संपादन : ऋषभ राज)
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