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Thursday, 5 December, 2024
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‘बिहार उपचुनाव में हार और जदयू-भाजपा के ताने’, निराश लालू यादव वापस दिल्ली लौटे

सत्तारूढ़ जदयू ने पिछले हफ्ते उपचुनावों में तारापुर और कुशेश्वर अस्थान दोनों विधानसभा सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा. एनडीए नेताओं का कहना है कि लालू यादव का चुनाव अभियान वास्तव में उनके लिए मददगार ही साबित हुआ है.

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पटना: बिहार में दो विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव में खराब प्रदर्शन ने राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रमुख लालू प्रसाद को इस कदर निराश कर दिया कि वह इस हफ्ते के शुरू में ही पटना छोड़कर राष्ट्रीय राजधानी लौट गए जबकि उन्हें तीन सप्ताह बाद लौटना था.

वह 24 अक्टूबर को पटना पहुंचे थे और कहा था कि वह करीब एक महीने तक यहीं रहेंगे. लेकिन उन्होंने बुधवार को ही दिल्ली वापसी के लिए फ्लाइट पकड़ ली. राजद एमएलसी सुनील कुमार सिंह ने कहा कि किडनी की बीमारी बढ़ने पर उन्हें चेक-अप के लिए बुलाया गया था, इसलिए वह वहां के लिए रवाना हो गए.

हालांकि, यह कदम 30 अक्टूबर को हुए दो विधानसभा सीटों—मुंगेर जिले की तारापुर और दरभंगा में कुशेश्वर अस्थान—के उपचुनाव में इन पर सत्तारूढ़ जदयू का कब्जा बरकरार रखने के एक दिन बाद ही उठाया गया था.

राजद नेताओं के मुताबिक, इस साल के शुरू में चारा घोटाला के मामलों में जेल से रिहा हुए पार्टी के बुजुर्ग नेता दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में चुनावी सभाएं करने के बाद से ही निराश थे.

राजद के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘वह निराश थे और यह उनके चेहरे से नजर आ रहा था. आखिरकार, स्वास्थ्य संबंधी तमाम दिक्कतों के बावजूद, उन्होंने दोनों जगहों पर बड़े पैमाने पर चुनावी सभाएं कीं और कम से कम तारापुर नें जीत की उम्मीद कर रह थे.’

एनडीए नेताओं ने तो यहां तक कि तंज कसा कि उन्होंने वास्तव में सत्तारूढ़ जदयू की मदद ही की, क्योंकि छह साल बाद किसी चुनाव अभियान में उनकी मौजूदगी ने मतदाताओं को उनके समय के ‘जंगल राज’ की यादें ताजा करा दीं.

जदयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा ने दिप्रिंट से कहा, ‘लालूजी ने लोगों को लालू-राबड़ी शासनकाल के ‘जंगल राज’ और उस दौरान एक जाति का ही वर्चस्व होने की याद दिला दी.’

भाजपा नेताओं की भी यही राय रही है. भाजपा विधायक ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू ने दिप्रिंट को बताया, ‘लालू जी के दौरे से एनडीए को दोनों विधानसभा सीटों पर 6,000 से 7,000 वोट ज्यादा ही मिले होंगे. उनकी जनसभाएं काफी बड़ी थीं. लेकिन इसमें सिर्फ दो ही वर्गों का दबदबा था. उनके इस ऐलान के कि अगर राजद दोनों सीटें जीतती है तो वह नीतीश सरकार को गिरा देंगे, ने दरअसल एनडीए के मतदाताओं खासकर महिलाओं को बूथ तक आने के लिए ज्यादा प्रेरित किया.’


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लालू प्रसाद यादव 1990 और 2005 के बीच बिहार की राजनीति के बेताज बादशाह थे. लेकिन बिहार के इतिहास में इस समय को ज्यादातर एक अराजकता भरे माहौल के तौर पर याद किया जाता है.

फिर उन्होंने मित्र से शत्रु बने नीतीश कुमार के हाथों सत्ता गंवा दी, जिन्होंने लालू के हाथ से फिसले अत्यंत पिछड़े वर्गों (ईबीसी) वोटबैंक को साध लिया. ईबीसी बिहार की आबादी का 29 फीसदी है. इसके बाद लालू के पास सिर्फ मुस्लिम और यादव वोट बचे थे जो 30 प्रतिशत से अधिक हैं लेकिन चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.

नीतीश तब से लगातार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं. दोनों पूर्व मित्र 2015 में राज्य के चुनाव के दौरान एक बार फिर महागठबंधन के बैनर तले कुछ समय के लिए साथ आए लेकिन नीतीश 2017 में एनडीए में वापस लौट गए और लालू को चारा घोटाला मामलों में न्यायिक हिरासत में जाना पड़ा.

इस साल अप्रैल में जमानत मिलने के बाद लालू अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती के दिल्ली स्थित आवास पर चले गए, जहां उनका कई बीमारियों का इलाज चल रहा है.

राजद को सहानुभूति वोट मिलने की उम्मीद थी?

2020 के विधानसभा चुनावों में राजद ने पार्टी को ‘जंगल राज’ की छाया से बाहर लाने के लिए पोस्टर-बैनर से लालू प्रसाद और उनकी पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी का चेहरा हटा दिया था.

लालू के बेटे और पार्टी नेता तेजस्वी यादव ने मुस्लिम-यादव सामाजिक जनाधार पर जोर देने के बजाये राजद को ‘ए-टू-जेड’ पार्टी बताया था जो समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है. इस रणनीति ने फायदा भी पहुंचाया और महागठबंधन ने एनडीए के 125 के मुकाबले 110 सीटें जीतीं और राजद विधानसभा में सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरा.

एनडीए और महागठबंधन के बीच 12,000 वोटों से भी कम का अंतर था, जो यह दर्शाता है कि तेजस्वी समाज के गैर-मुस्लिम-यादव वर्गों का वोट खींचने में कामयाब रहे हैं.

इस बार भी तेजस्वी ने दो विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के लिए चुनावी मुकाबले में जोरदार टक्कर दी.

चुनाव प्रचार के आखिरी दिन (27 अक्टूबर को) ही लालू प्रसाद को तारापुर और कुशेश्वर अस्थान दोनों जगह दो बड़ी जनसभाओं को संबोधित करने के लिए लाया गया था.

नाम न छापने की शर्त पर एक राजद विधायक ने कहा, ‘बिहार से लालूजी की लंबी गैरमौजूदगी और उनके स्वास्थ्य की नाजुक स्थिति ने समाज के सभी वर्गों के बीच उनके प्रति सहानुभूति पैदा की है. हमें लगा कि इसका मतलब होगा कि ज्यादा वोट मिलेंगे, लेकिन यह काम नहीं आया.’

विधायक ने कहा, ‘हम 18वें दौर के बाद तारापुर में पिछड़ने लगे क्योंकि यादवों, मुसलमानों और बनियों की आबादी उन इलाकों में कम हो गई जहां मतगणना शुरू हुई थी.’

भाजपा की राय- लालू भीड़ को वोट में नहीं बदल सकते, राजद असहमत

पूर्व डिप्टी सीएम और भाजपा सांसद सुशील कुमार मोदी ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि लालू प्रसाद 1990 के दशक से भीड़ खींचने वाले रहे हैं, लेकिन उन भीड़ को वोट में बदलना बिल्कुल अलग मामला है.

उन्होंने कहा, ‘लालू जी बिहार की राजनीति के ध्रुवीकरण में सक्षम नेता हैं. लेकिन वह केवल अपने सामाजिक जनाधार वाले के वर्गों को उत्साहित कर सकते हैं. अन्य वर्गों को उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ता.’

मोदी ने कहा, ‘राजद ने 2020 के विधानसभा चुनावों में अपने पोस्टर से उनकी तस्वीर हटा दी थी. इसने असर दिखाया. अब जब राजद ने उन्हें फिर से इसमें शामिल किया है तो उन्होंने बिहार के लोगों को याद दिलाया है कि उनका शासनकाल कैसा था.’

हालांकि, राजद एमएलसी और लालू परिवार के करीबी सहयोगी सुनील कुमार सिंह ने इसे एनडीए नेताओं का ‘सरासर ढोंग’ करार दिया.

उन्होंने कहा, ‘जब हमने लालू जी की फोटो हटाई तो उन्होंने ताना मारा कि हमें उनकी फोटो लगाने में शर्म आ रही है. इन उपचुनावों में उन्होंने जनसभाओं को संबोधित किया और अब एनडीए फिर ‘जंगल राज’ की बात कर रहा है.

उन्होंने कहा, ‘हमारी हार के बावजूद एनडीए नेताओं को यह देखना चाहिए कि हमें 2020 के विधानसभा चुनावों की तुलना में अधिक वोट मिले हैं. तारापुर में हमारा वोट शेयर 36 फीसदी से बढ़कर 44 फीसदी हो गया. यहां तक कि कुशेश्वर अस्थान में भी हमें 2020 के चुनावों में कांग्रेस को मिले वोटों से 2 प्रतिशत अधिक वोट मिले. हमें गैर-मुस्लिम और यादव वर्गों से वोट मिले हैं. यह ‘लालू मैजिक’ के कारण ही संभव हुआ है.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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