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Saturday, 27 April, 2024
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बिहार BJP अब जाति को लेकर नीतीश कुमार की लाइन पर चल रही, यह चुनाव से पहले JDU-RJD की जीत है

1970 के दशक में कर्पूरी ठाकुर या 1990 के दशक में लालू प्रसाद के विपरीत, आज बिहार में नीतीश कुमार की कोटा राजनीति में ठीक वही बात नहीं है, जिसका भाजपा फायदा उठा सके.

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सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का मुद्दा 1970 के दशक से बिहार की राजनीति का हिस्सा रहा है जब कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत कोटे को आगे बढ़ाया था. गुरुवार को, बिहार विधानसभा ने सर्वसम्मति से नए आरक्षण विधेयक को मंजूरी दे दी है, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग, अत्यंत पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए कोटा सीमा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दी गई है, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने टिप्पणी की, “आइए केंद्र से अपील करें कि जाति पर राष्ट्रीय जनगणना कराए और जरूरत पड़ने पर आरक्षण बढ़ाए.”

राज्यपाल की मंजूरी मिलते ही बिहार, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में जैसे उन राज्यों में शामिल हो जाएगा जहां कोटा 50 प्रतिशत से ऊपर है. 2024 के लोकसभा चुनाव से 6 महीने से भी कम समय पहले, यह राजनीतिक कदम, चुनावी अभियान को शुरू करने वाला है और जेडीयू-आरजेडी के लिए एक तरह की जीत का प्रतीक है, जिस तरह कि बीजेपी को कोटा लाइन पर चलने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. यही कारण है कि बिहार में 65 प्रतिशत कोटा वृद्धि दिप्रिंट के लिए न्यूजमेकर ऑफ दि वीक है.

पृष्ठभूमि

बिहार में कोटा बढ़ाने की कोशिशें नीतीश कुमार के राजद से हाथ मिलाने से पहले से ही चल रही थीं. लालू प्रसाद की तरह नीतीश ने भी हमेशा जातीय जनगणना की वकालत की थी. यहां तक कि जब वह एनडीए के साथ थे, तब भी उन्होंने अगस्त 2021 में जाति सर्वेक्षण की मांग करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने के लिए एक सर्वदलीय बैठक का नेतृत्व किया था. हालांकि पीएम मोदी ने धैर्यपूर्वक सुना, लेकिन उन्होंने मांग को ठुकरा दिया. इसने महागठबंधन (महागठबंधन) में उनकी वापसी के बीज बोए, जिसमें जाति जनगणना एक प्रमुख कारक के रूप में उभरी, जिसने उन्हें राजद के करीब ला दिया.

बिहार में जाति जनगणना दो चरणों में की गई- 7 जनवरी से 24 जनवरी 2023, और 15 अप्रैल 2023 से 5 अगस्त तक. कानूनी बाधाओं के कारण दूसरे चरण में देरी हुई क्योंकि पटना उच्च न्यायालय ने जुलाई में ही जनगणना पर रोक लगा दी थी. जाति सर्वेक्षण के नतीजे 2 अक्टूबर को जारी किए गए.


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मुश्किल में बीजेपी

जातीय सर्वे ने बिहार बीजेपी को बचाव की मुद्रा में ला दिया है. जहां बीजेपी की राज्य इकाई ने जाति सर्वेक्षण और कोटा में वृद्धि का समर्थन किया है, वहीं पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व इसमें शामिल नहीं है. जाति सर्वेक्षण जारी होने के बाद पीएम मोदी ने कहा कि गरीब सबसे बड़ी जाति है.

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गुरुवार को, भाजपा विधायकों ने आरक्षण को लेकर अपने ऐतिहासिक ट्रैक रिकॉर्ड की बात करते हुए इसका बचाव किया. पूर्व मंत्री नंद किशोर यादव ने बढ़े हुए कोटा पर बहस को लेकर कहा, “पिछड़ी जातियों को आरक्षण तब दिया गया जब हम 1970 के दशक में कर्पूरी ठाकुर सरकार का हिस्सा थे. 2005 में जब हम नीतीश कुमार सरकार का हिस्सा थे, तब पंचायत चुनावों में ईबीसी के लिए आरक्षण दिया गया. यह राजद नहीं, बल्कि हम थे जिन्होंने आरक्षण दिया.” बहस जुबानी जंग में बदल गई है, जिसका श्रेय महागठबंधन और बीजेपी दोनों लेने में लगे हैं.

भाजपा, नीतीश के इस कदम को लेकर तैयार नहीं थी, क्योंकि जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट उसके लिए बैकफायर कर गई है. ‘उच्च जाति’ चुप रही, और उसके पिछड़ी जाति के नेताओं ने सत्तारूढ़ गठबंधन पर अन्य जाति समूहों की जनसंख्या के आंकड़ों को कम करते हुए अपने समर्थक जातियों की संख्या बढ़ाकर सर्वेक्षण में हेरफेर करने का आरोप लगाया है. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने टिप्पणी की, ”आरक्षण संख्या बढ़ाए बिना, नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से लाभ नहीं उठा सकते.” बिहार में ऊंची जाति की पार्टी के रूप में पहचाने जाने के बावजूद भाजपा को नीतीश की राह पर चलना होगा.

नीतीश की जरूरतें

नीतीश कुमार के प्राथमिक समर्थन आधार में कुर्मी, कुशवाह और ईबीसी का एक वर्ग शामिल है.

2014 के लोकसभा चुनाव में, जब उन्होंने अकेले चुनाव लड़ा था तो उनका वोट प्रतिशत 15 फीसदी से थोड़ा ऊपर था. हाल के उपचुनावों से पता चलता है कि भाजपा उनके वोट बैंक में सेंध लगा रही है.

दिसंबर 2022 में राजद, कांग्रेस और कम्युनिस्टों के समर्थन के बावजूद भाजपा कुरहनी विधानसभा सीट महागठबंधन से छीनने में सफल रही. जदयू के एक मंत्री ने कहा, “समर्थन आधार बढ़ाने के लिए कोटा बढ़ाने और मंडल 2.0 से बेहतर तरीका क्या हो सकता है,” उन्होंने बताया कि ओबीसी और ईबीसी बिहार की आबादी का 63 प्रतिशत हिस्सा हैं. हालिया बढ़ोत्तरी में ओबीसी के लिए कोटा 12 फीसदी से बढ़ाकर 18 फीसदी, ईबीसी के लिए कोटा 18 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी, एससी के लिए 16 फीसदी से बढ़ाकर 20 फीसदी और एसटी के लिए कोटा 1 फीसदी से बढ़ाकर 2 फीसदी कर दिया गया है.

कोटा पॉलिटिक्स

ऐतिहासिक रूप से, बिहार में कोटा की राजनीति हलचल मचाने वाली रही है, जिससे सामाजिक तनाव पैदा हुआ है. 1970 के दशक में जब कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू किया तो उनके खिलाफ सार्वजनिक रूप से गालियां दी गईं. 1993 में जब लालू प्रसाद ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू किया तो इससे बिहार में कई जगहों पर जातीय हिंसा भड़क उठी.

इसके विपरीत, हालिया जाति सर्वेक्षण ने शायद ही ऊंची जातियों में कोई हलचल पैदा की हो. पूर्व एमएलसी और कभी नीतीश कुमार के करीबी रहे प्रेम कुमार मणि का मानना है कि संशोधित कोटा का कोई सार्थक प्रभाव नहीं पड़ेगा.

उन्होंने कहा, “शुरुआती दिनों में, राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं ने वर्गहीन समाज बनाने के लिए जाति की राजनीति अपनाने की बात की थी. 1990 के बाद, नेता वर्ग को भूल गए और खाप (पंचायत) नेताओं की तरह जाति पर जोर देने लगे. बात ये है कि आरक्षण उस गाय की तरह हो गया है जो अब दूध नहीं देती. एक ही मुद्दे को बार-बार इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.”

(अनुवाद और संपादन : इन्द्रजीत)

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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