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Saturday, 2 November, 2024
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बादल, चन्नी, गांधी, अखिलेश और मायावती- 2022 के चुनावों में दिग्गज नेताओं को कैसे मुंह की खानी पड़ी

मायावती अपने जीवन की सबसे बड़ी हार हारते हुए जयंत चौधरी के बराबर आठ विधायक भी नहीं जिता पाई तो प्रियंका की कांग्रेस 'लड़की हूं लड़ सकती हूं ' के बहुप्रचारित कैंपेन के बाद भी दो सीट ही जीत पाई.

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देश के पूर्व वित्त मंत्री और बीजेपी के चुनावी रणनीतिकार (अमित शाह के चुनावी रणनीतिकार बनने से पहले) 2014 में अमृतसर से अपना पहला और आखिरी लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे. उस वक्त पंजाब में अकालियों की सरकार थी और बादल परिवार से जेटली की काफी घनिष्ठता थी, इसी कारण सीनियर बादल ने सुखबीर बादल के साले विक्रम मजीठिया को जेटली का चुनावी कैपेंन मैनेजर नियुक्त किया.

एक दिन जेटली से मैंने पूछा कि आप भोपाल, गुजरात जैसी सुरक्षित सीट छोड़कर यहां से क्यों चुनाव लड़ रहे हैं, उन्होंने कहा कि बादल साहब ने भरोसा दिया है जिताने का. फिर मैंने जेटली से कहा कि आप अपने चुनाव एजेंट की वजह से चुनाव हार रहे हैं और जेटली सचमुच चुनाव हार गए क्योंकि विक्रम मजीठिया तब तक ‘ड्रग के किंगपिन’ के रूप में पंजाब में बदनाम हो चुके थे. बीजेपी को कई राज्यों में चुनाव जिताने वाले जेटली अपना ही चुनाव हार गए.

अब आइए साल 2022 पर. 94 साल के प्रकाश सिंह बादल जिन्होंने लांबी से दस बार चुनाव जीता हो और पंजाब के पांच बार मुख्यमंत्री रहे हो, वो हालिया चुनाव में अपनी सीट नहीं बचा पाए लेकिन कहानी का सार यह है कि अनुभवी से अनुभवी राजनेता भी कई बार पब्लिक की नब्ज पहचानने में भूल कर बैठता है चाहे बादल हो या जेटली.

पंजाब की जनता ने तो राज्य के सारे बड़े चेहरों को आम आदमी पार्टी (आप) की लहर में घर बिठा दिया और संदेश बड़ा साफ था कि सुधरो वरना हम सुधार देगें, चाहे मुंख्यमंती चन्नी हो या छक्का लगाने वाले ओपनर नवजाोत सिद्धू, विक्रम मजीठिया, बादल या अकाली दल को किसानों की पार्टी से परिवार की पार्टी बनाने वाले सुंखबीर बादल. सिर्फ पंजाब में ही वोटरों ने बड़े छोटे का फर्क नहीं किया बल्कि यूपी, उत्तराखंड तक मुख्यमंत्रियों का एक जैसा हाल रहा.

मायावती अपने जीवन की सबसे बड़ी हार हारते हुए जयंत चौधरी के बराबर आठ विधायक भी नहीं जिता पाई तो प्रियंका की कांग्रेस ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं ‘ के बहुप्रचारित कैंपेन के बाद भी दो सीट ही जीत पाई. अखिलेश ने अपने वोट प्रतिशत में 11 फीसदी की बढ़ोतरी तो की पर दोबारा मुख्यमंत्री बनने का उनका सपना सपना ही रह गया.

‘लूजर्स क्लब’ में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी और नए मुख्यमंत्री बनने का सपना संजोने वाले हरीश रावत भी रहे. तो इस सप्ताह के न्यूजमेकर ऑफ द वीक में 2022 के ‘लूजर्स’ की कहानी.


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बादल परिवार

प्रकाश सिंह बादल ने जब राजनीति में प्रवेश किया था तब वे सिर्फ बीस साल के थे और देश के सबसे युवा सरंपच बने. सबसे युवा सरंपच से राज्य के मुख्यमंत्री भी वो 43 साल की उम्र में बन गए.

पांच बार के मुख्यमंत्री इस चुनाव के सबसे उम्रदराज उम्मीदवार थे. पंजाब जैसे उग्रपंथियों के दौर में नरमपंथी राजनीति करने के कारण बादल ने हिंसा और आंतकवाद से जूझ रहे पंजाब के जख्मों पर न केवल अपने दौर में मरहम लगाया बल्कि पूरे देश में एक सम्मानित राजनेता के रूप में लोगों के दिल में जगह बनाई. पीएम मोदी ने उन्हें ‘भारतीय राजनीति का नेल्सन मंडेला’ करार दिया था क्योंकि आज़ादी के आंदोलन और आपातकाल के दौरान मंडेला की तरह 17 साल उन्होंने जेल में बिताए पर इस चुनाव में न केवल बादल हारे बल्कि पूरे बादल परिवार को जनता ने घर बिठा दिया.

केवल तीन सीटें जीतने वाली अकाली दल की 1920 में गठन के बाद इतनी करारी हार कभी नहीं हुई. सीनियर बादल को आप के गुरमित कादियान ने 11,396 मतों से हराया तो 2008 के बाद पार्टी की कमान संभालने वाले सुखबीर बादल को अपने परंपरागत सीट जलालाबाद में आप के जगदीप कंबोज ने 30,000 वोट से हराया. सुखबीर के साले विक्रम मजीठिया को आप की महिला उम्मीदवार एनजीओ चलाने वाली जीवन ज्योति कौर ने अमृतसर से हराया. केवल बादल परिवार से मजीठिया की पत्नी गनीव कौर मजीठा से जीत पाई.

पंजाब की राजनीति को जानने वाले कहते हैं कि सुखबीर बादल जब 2008 में पार्टी के अध्यक्ष बने तो उसके बाद कैडर आधारित पार्टी परिवार आधारित पार्टी बन गई, किसान और कैडर दूर हो गया.

2012 के कैबिनेट में सीनियर बादल, जूनियर बादल, उनके साले विक्रम मजीठिया सबसे शक्तिशाली मंत्री थे तो प्रकाश सिंह बादल के दमाद आदेश प्रताप कैरों मंत्रिमंडल में थे, हरसिमरत सांसद और मंत्री बन गई, पार्टी दामाद, साले और पुत्र वधू की पार्टी बन गई.

वहीं आप जैसी पार्टियां लगातार अपनी राजनीति करने के तरीके में बदलाव कर रही थी पर बादल की सुई वही अटकी थी इसलिए जनता ने उन्हें नकार दिया.


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चन्नी, सिद्धू और अमरिंदर- कांग्रेस की मुसीबत

बादल की तरह ही कांग्रेस अपने 45 साल पहले 1977 के प्रदर्शन पर आ टिकी. 2017 के 77 सीटों से घटकर 18 सीटों पर आ गई. 32 प्रतिशत दलित वोटों के लिए पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री बने, चन्नी अपनी दोनों चमकौर साहिब और भदौर सीट से चुनाव हार गए. दोनों ही जगह पर आप के उम्मीदवार जीते तो ओपनर रहे सिद्धू को अमृतसर से जीवन ज्योति कौर ने चुनाव हरा दिया.

विश्लेषक कहतें है, ‘चन्नी को सीएम बनाना ब्लंडर था, दलित वोट बैंक पंजाब में उस तरह एक साथ नहीं है जैसा यूपी में है और कांग्रेस अपने सिर फुटौव्वल में इतनी मशगूल थी कि वह प्रचार से पहले ही चुनाव हार गई थी. यह राहुल गांधी के लिए सबक है.’

खैर कांग्रेस का गलतियों से सीखने का इतिहास कमजोर है तो वहीं हार के बाद भी विपक्षी नेता बनने के लिये सिर फुटौव्वल की जगह बची हुई है. दो बार के मुख्यमंत्री और कांग्रेस से मिले अपमान का बदला बीजेपी से हाथ मिलाकर लेने वाले 79 साल के पटियाला नरेश अमरिंदर सिंह के लिए जन्मदिन की इससे बड़ी बुरी खबर नहीं हो सकती थी. 80 की उम्र में नई पारी का आगाज वो भी हार के साथ.


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मायावाती की सियासत पर प्रश्न चिन्ह

1995 में कांशीराम के सोशल इंजीनियरिंग के सहारे मायावती जब देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनी थीं तो किसी ने नहीं सोचा था कि वो तीन बार यूपी की मुख्यमंत्री रहने वाली है. 22 प्रतिशत कट्टर दलित वोट पाने वाली मायावती आरएलडी और कांग्रेस के आंकड़ों को भी नहीं छू पाईं.

बसपा का प्रदर्शन राजा भैय्या की पार्टी से भी खराब रहा. दलितों की पार्टी का एक भी दलित विधायक इस बार विधानसभा में नहीं होगा.

मायावती को इस चुनाव में महज़ एक सीट मिली है. रसड़ा से उमा शंकर सिंह एक मात्र बीएसपी के विधायक चुनाव जीते हैं. बीएसपी ने 2004 में 19 लोकसभा की सीटें जीती थी और 2009 में 20. 2007 में जब मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं तो उन्हें तीस प्रतिशत वोट मिले थे और उनकी पार्टी के 206 विधायक थे.

अपनी सुविधा की राजनीति, बीजेपी से हमजोली की वजह से बीएसपी 2022 के चुनाव में महज़ 12.84 प्रतिशत वोट पा सकी है.

29 सालों में दलितों की आवाज़ और यूपी की राजनीति में मंडल पॉलिटिक्स को नई धार देने वाली मायावती का ये सबसे खराब प्रदर्शन है, यहां तक कि बीएसपी से ज़्यादा बीजेपी को मुस्लिमों ने वोट किया और बीएसपी केवल 3-4 प्रतिशत मुस्लिम वोट ही पा सकी.


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अखिलेश यादव- सपा को उबारा

अखिलेश यादव ने यूपी चुनाव में अपने वोट प्रतिशत में 11 प्रतिशत का इज़ाफा किया और 2017 में 21 प्रतिशत से 2022 में 32 प्रतिशत तक पहुंचे. उनकी सीटें 2017 की 47 से 110 हो गई पर उनका मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा नहीं हो सका.

अखिलेश छोटी जातियों को जोड़ने की मंडल की राजनीति से आगे नहीं निकल पाए और बीजेपी की वेलफेयर हिंदुत्व पॉलिटिक्स उन पर भारी पड़ी. अखिलेश की दूसरी कमी यादव-मुस्लिम की पार्टी की इमेज का नैरेटिव बीजेपी जनता तक पहुंचाने में कामयाब रही वहीं ‘गुंडा राज’ का पुराना इतिहास लोगों की स्मृतियों में ज़िंदा था.

अखिलेश से समझने में भूल हो गई कि यूपी की राजनीति बदल गई है. 2012 में 29 प्रतिशत वोट पाकर ही वह मुख्यमंत्री बन गए थे. मुलायम तो 1993 में 17.82 और 2003 में 25.38 प्रतिशत वोट पाकर मुख्यमंत्री बन गए थे पर तब ‘मोदी फैक्टर’ चुनाव में नहीं था और चुनाव त्रिकोणीय था.

कांग्रेस की यूपी में कमान संभाल रही प्रियंका गांधी ने 160 रैलियां और 40 रोड शो किए थे. तीन दशकों से राजनैतिक वनवास झेल रही कांग्रेस को 2017 में 7 सीटें मिली थी और 6.25 प्रतिशत वोट मिला था लेकिन इस बार कांग्रेस को 2.37 प्रतिशत मत के साथ 2 सीटें मिली हैं.

कांग्रेस का अपना मुख्यमंत्री अब सिर्फ राजस्थान और छत्तीसगढ़ में है और झारखंड और महाराष्ट्र में उसकी गठबंधन सरकार में भूमिका है. अगर हरीश रावत पंजाब को संभालने की जगह उत्तराखंड पर ध्यान देते तो जीवन की अंतिम पारी में हार का मुंह नहीं देखना पड़ता और पार्टी का भी भला होता.

लूजर्स केवल यूपी और पंजाब में नहीं बल्कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री धामी कांग्रेस के एक सामान्य कार्यकर्ता भुवन चंद्र कापड़ी से चुनाव हार गए लेकिन उनकी पार्टी बहुमत के साथ चुनाव जीत गई. उत्तराखंड में मुख्यमंत्री को हराने का पुराना इतिहास है. बीसी खंडूरी 2012 में और हरीश रावत 2017 में चुनाव हार गए थे. सात महीनों के मुख्यमंत्री धामी की हार की वजह अपने इलाके में नाराज़गी और विधानसभा से दूर रहना मुख्य मुद्दा बन गया.

 (व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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