scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होमराजनीतिAMU से लेकर पिनरई विजयन के साथ टकराव तक-आरिफ मोहम्मद खान की कहानी फिर वहीं पहुंची जहां से शुरू हुई थी

AMU से लेकर पिनरई विजयन के साथ टकराव तक-आरिफ मोहम्मद खान की कहानी फिर वहीं पहुंची जहां से शुरू हुई थी

मोहम्मद खान अपने करीब 50 साल के राजनीतिक कैरियर में चरण सिंह के भारतीय किसान दल से लेकर कांग्रेस, जनता दल, बसपा, लोजपा और भाजपा तक का हिस्सा रहे हैं और विवादों के साथ उनका नाता तो चोली-दामन जैसा ही है.

Text Size:

नई दिल्ली: ‘अपनी स्पष्ट राय रखने वाले’, ‘राजनीति के माहिर खिलाड़ी’, ‘विरोधियों का भी सम्मान करना न भूलने वाले’—केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बारे उनके मित्रों और आलोचकों की राय कुछ इसी तरह की है, जो आजकल केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन के साथ जारी टकराव के कारण लगातार सुर्खियों में बने हुए हैं.

अभी दो दिन पहले ही खान ने आरोप लगाया है कि केरल में मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) की तरफ से ‘स्मगलिंग से जुड़ी गतिविधियों को संरक्षण’ मिल रहा और यह स्थिति उनकी ‘दखलंदाजी का आधार’ है.

दूसरी तरफ, सीएम विजयन ने राज्यपाल की तरफ से यूनिवर्सिटी कुलपतियों के खिलाफ उठाए गए कदमों को दक्षिणपंथियों के ‘भगवाकरण के एजेंडे को लागू करने’ और ‘राज्य के विश्वविद्यालयों को संघ परिवार का केंद्र बनाने की कोशिश’ करार दिया है.

इसके जवाब में, आरिफ मोहम्मद खान ने केरल में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा गठबंधन का नेतृत्व करने वाले विजयन को चुनौती दी कि वो साबित करके दिखाएं कि उन्होंने ‘किसी भी ऐसे व्यक्ति को नामित किया’ है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ा हो.

जनता दल (यूनाइटेड) के नेता और कभी तत्कालीन भारतीय क्रांति दल (बीकेडी) में आरिफ मोहम्मद के सहयोगी रहे के.सी. त्यागी कहते हैं कि कि खान और विजयन के दफ्तरों के बीच तनातनी तो अब केरल में एकदम आम बात हो गई है. गौरतलब है कि खान ने (स्वर्गीय भाजपा नेता) अरुण जेटली की अनुशंसा के बाद सितंबर 2019 में केरल के राज्यपाल का पद संभाला था.

अपने करीब 50 साल के सियासी जीवन में चौधरी चरण सिंह के बीकेडी से लेकर कांग्रेस, जनता दल, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) तक विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ रहे आरिफ मोहम्मद खान सत्तासीन नेताओं के साथ सार्वजनिक स्तर पर टकराव, रुढ़िवादी मुस्लिम प्रथाओं के विरोध और आरएसएस के साथ अपने संबंधों को लेकर अक्सर विवादों में रहे हैं.

वह 1986 में शाह बानो मामले के दौरान मुस्लिम पर्सनल लॉ बिल पारित होने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ मतभेदों के कारण काफी सुर्खियों में रहे. पिछले कुछ समय में, उन्होंने जहां मोदी सरकार के विवादास्पद तीन तलाक कानून का समर्थन किया, वहीं हिजाब विवाद पर कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले को भी सराहा और केरल के राज्यपाल के तौर पर कार्यभार संभालने के बाद से किसी न किसी मुद्दे पर राज्य सरकार के साथ उनका टकराव जारी ही है.

पिछले महीने के आखिर में उन्होंने केरल के मुख्यमंत्री से राज्य के वित्त मंत्री के.एन. बालगोपाल को बर्खास्त करने को कहा, इससे पहले, अगस्त में उन्होंने विजयन के निजी सचिव के.के. राजेश की पत्नी की कन्नूर यूनिवर्सिटी में एक एसोसिएट प्रोफेसर के तौर पर नियुक्ति रोक दी और आरोप लगाया कि 2019 में भारतीय इतिहास कांग्रेस में आमंत्रित किए जाने के दौरान उन पर हमले की साजिश रची गई थी.

उन्हें एक मुस्लिम बुद्धिजीवी के तौर पर भी जाना जाता है, जिन्हें भगवद् गीता और कुरान दोनों कंठस्थ हैं. उन्होंने राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ का उर्दू में अनुवाद भी किया है.


यह भी पढ़ेंः दिल्ली एमसीडी चुनाव के लिए 4 दिसंबर को होगी वोटिंग, 7 को आएगा परिणाम


छात्र राजनीति से राष्ट्रीय स्तर की सियासत तक

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में पढ़ने वाले आरिफ मोहम्मद ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत एक स्टूडेंट एक्टिविस्ट के तौर पर की थी और 1970 के दशक की शुरुआत में वह यूनिवर्सिटी छात्र संघ के अध्यक्ष बने.

उनके एक करीबी ने बताया, ‘अपने शुरुआती दिनों में ही वह रुढ़िवादी मुस्लिम प्रथाओं और वामपंथी विचारधारा के खिलाफ थे और एक बार तो उन्होंने यूनिवर्सिटी में मौलवियों को आमंत्रित करने से इनकार तक कर दिया था.’

एएमयू प्रोफेसर अली नदीम रिजवी के मुताबिक, खान ने ‘उसी समय वामपंथियों का विरोध किया जब एएमयू में छात्र नेता थे और उन्हें ‘मुस्लिम विरोधी’ करार दिया गया.’

रिजवी ने कहा, ‘अब जब वह हिंदुत्ववादियों के साथ हैं तो वामपंथियों को लेकर उनकी नफरत फिर अपने चरम पर है. आरिफ एक खांटी राजनेता हैं जो हवा का रुख भांपना अच्छी तरह जानते हैं.’

आरिफ मोहम्मद 1970 के दशक में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, पश्चिमी यूपी के किसान नेता और पीएम चौधरी चरण सिंह के साथ जुड़े. वह बीकेडी—जिसका बाद में जनता पार्टी में विलय कर दिया गया था—की युवा इकाई के महासचिव बने. त्यागी उस समय युवा मोर्चा के सचिव थे और स्वतंत्र पार्टी के संस्थापकों में से एक पीलू मोदी बीकेडी महासचिव थे.

त्यागी बताते हैं, ‘आरिफ उस समय मोदी के करीबी थे और हम युवा मोर्चा के सदस्य के तौर पर चरण सिंह के साथ जुड़े थे. कुछ ही समय बाद आपातकाल लगा और हम सभी को जेल में डाल दिया गया. आपातकाल हटने के बाद 1977 के चुनाव में आरिफ 26 वर्ष की उम्र में जनता पार्टी के टिकट पर पहली बार विधायक (सियाना से) बने. उन्हें यूपी में उप मंत्री बनाकर आबकारी और वक्फ विभाग का प्रभार भी सौंपा गया,लेकिन तत्कालीन सीएम राम नरेश यादव के साथ मतभेदों के चलते कुछ ही समय बाद उन्हें बर्खास्त कर दिया गया.’

खान ने 1978 के आजमगढ़ उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार मोहसिना किदवई के लिए प्रचार किया. त्यागी ने बताया, ‘उन्होंने चुनाव जीता और इसका पूरा श्रेय खान को मिला.’

1980 में आरिफ कांग्रेस में शामिल हो गए. तत्कालीन पार्टी प्रमुख इंदिरा गांधी ने आरिफ को 1980 के लोकसभा चुनाव में कानपुर से पार्टी का टिकट दिया और इस पर उन्होंने जीत भी हासिल की. और उन्हें डिप्टी मिनिस्टर के तौर पर उनकी कैबिनेट में सूचना और प्रसारण मंत्रालय का प्रभार (1982-83) मिला. फिर उन्होंने बहराइच से 1984 का चुनाव जीता और राजीव गांधी सरकार में मंत्री रहे.

शाह बानो मामला

आरिफ मोहम्मद खान 1984 से 1986 के बीच जब गृह, ऊर्जा और कंपनी मामलों के प्रभारी राज्य मंत्री हुआ करते थे, उसी दौरान सामने आया शाह बानो मामला उनके राजनीतिक कैरियर के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ.

राजीव गांधी उस समय प्रधानमंत्री थे जब सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाह बानो को गुजारा भत्ता देने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया. जिस फैसले की उलेमा और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरफ से आलोचना की जा रही थी, संसद में उसके पक्ष में बोलने के लिए कांग्रेस ने आरिफ मोहम्मद को मैदान में उतारा.

हालांकि, बाद में दबाव में आकर राजीव गांधी सरकार मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 लाई, जिसने शाह बानो पर कोर्ट के फैसले को दरकिनार कर दिया.

एएमयू के हिस्ट्री डिपार्टमेंट में प्रोफेसर अली अतहर कहते हैं, ‘कांग्रेस ने आरिफ को संसद में बोलने के लिए मैदान में उतारा था, यह उनकी निजी पसंद नहीं थी. फिर, पार्टी को एहसास हुआ कि यह दांव उल्टा पड़ जाएगा इसलिए उसने आरिफ की राय के खंडन और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए एक और मंत्री जियाउर रहमान अंसारी को आगे किया. यह आरिफ की व्यक्तिगत राय नहीं थी, बल्कि कांग्रेस का नजरिया था जो बदलता रहा था.’

1987 में राजीव गांधी ने रिश्ते में भाई लगने वाले अरुण नेहरू, पूर्व रक्षा मंत्री वी.पी. सिंह और आरिफ मोहम्मद खान को कांग्रेस से निकाल दिया था.

इसके बाद, आरिफ मोहम्मद और दोनों अन्य नेताओं ने पीएम के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन शुरू कर दिया और जनमोर्चा गठित किया, जिसका बाद में जनता दल में विलय कर दिया गया था.

1988 में जनता दल के गठन के बाद 1989 में वी.पी. सिंह ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली. वीपी सिंह की लहर पर सवार होकर आरिफ भी 1989 में जनता दल के टिकट पर बहराइच से फिर सांसद बन गए.

त्यागी बताते हैं, ‘वी.पी. सिंह को शाह बानो प्रकरण पर आरिफ की प्रगतिशील सोच का पता था, इसलिए 1991 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने उन्हें चुनाव प्रचार के लिए इलाहाबाद नहीं बुलाया क्योंकि इससे मुसलमानों का वोट नहीं मिलने की आशंका थी.

वी.पी. सिंह की सरकार गिरने के बाद आरिफ बसपा में शामिल हो गए और पार्टी महासचिव बने. उन्होंने 1996 और 1998 का चुनाव बसपा के टिकट पर ही लड़ा.

1996 और 1999 के लोकसभा चुनाव में खान को हराने वाले बहराइच के पूर्व भाजपा सांसद पदमसेन चौधरी बताते हैं, ‘पहले, आरिफ बहराइच में मेरे पिता रुद्रसेन के खिलाफ मैदान में उतरे, बाद में उन्हें मेरे खिलाफ खड़ा किया गया. मैंने उन्हें दो चुनावों में हराया, जबकि 1998 में उन्होंने बतौर बसपा प्रत्याशी मुझे हराया था.’

आरिफ मोहम्मद खान के बारे में चौधरी ने यह भी कहा कि, ‘वह दल बदलते रहे लेकिन बड़े नेताओं को प्रचार के लिए आसानी से राजी कर लेना उनकी खूब रही है. साथ ही, अपने विरोधियों का सम्मान करना भी नहीं भूलते थी. चुनाव के दौरान वह कभी मेरे घर के आसपास से गुजरते तो प्रतिद्वंद्वी होने के बावजूद मेरे परिवार के सदस्यों के साथ दुआ-सलाम करना नहीं भूलते थे.’


यह भी पढ़ेंः कैसे गुजरात पिटाई मामले ने भारतीय राजनीति की ‘सेकुलर’ चुप्पी को सामने ला दिया


भाजपा और लोजपा का साथ भी आजमाया

2002 के गुजरात दंगों के बाद आरिफ मोहम्मद ने उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ हाथ मिलाने के फैसले पर नाराजगी जाहिर करते हुए बसपा छोड़ दी. उस समय बसपा प्रमुख रहे कांशी राम को भेजे गए पत्र में उन्होंने लिखा, ‘बसपा ने भाजपा के साथ गठबंधन का फैसला किया है और चूंकि मैं सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध हूं, इसलिए नैतिक आधार पर मेरे पास अलग रास्ता अपनाने के अलावा कोई चारा नहीं है. विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ लड़ने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं.’

खान ने इसके बाद कुछ समय के लिए रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के साथ हाथ मिलाया. मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के पूर्व चांसलर जफर सरेशवाला बताते हैं, ‘गुजरात दंगों के तुरंत बाद मुझे आरिफ से मिलने का मौका मिला. आरिफ मोहम्मद और पासवान मुस्लिम बस्तियों में काम करने और उन्हें सांत्वना देने गुजरात आए थे. वह 80 दिनों से अधिक समय तक यहां रहे. वह मुसलमानों के अधिकारों और इस समुदाय में कहां कमियां हैं, को लेकर काफी स्पष्टवादी और मुखर थे.’

हालांकि, दो साल बाद आरिफ उसी पार्टी में शामिल हो गए जिसका वह बेहद कड़ा विरोध और आलोचना करते थे. उन्होंने 2004 का लोकसभा चुनाव कैसरगंज सीट से भाजपा के टिकट पर लड़ा, लेकिन हार गए.

त्यागी ने बताया, ‘उन्हें (खान को) पार्टी में वापसी के लिए (तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष) सोनिया गांधी से मिलना था, लेकिन वह भाजपा के संपर्क में आए और 2004 में उन्हें टिकट मिल गया.’

हालांकि, तीन साल बाद खान ने यूपी में दागी नेताओं को टिकट देने का आरोप लगाते हुए भाजपा भी छोड़ दी.

2007 के बाद के दशक में आरिफ खान ने अपना पब्लिक प्रोफाइल अल्पसंख्यक मुद्दों पर लिखने और बोलने वाले एक स्कॉलर और मुस्लिम बुद्धिजीवी का बना लिया. उन्होंने यह भी कहा है कि शाह बानो विवाद के बाद से उनके आरएसएस के साथ संबंध अच्छे रहे हैं.

2019 में आरिफ मोहम्मद खान केरल के राज्यपाल कैसे बने? इस पर सरेशवाला बताते हैं, ‘एक दिन, मैं (तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री) अरुण जेटली के साथ बातचीत कर रहा था, तभी उन्होंने मुझसे पूछा कि आजकल खान कहां है. मैंने आरिफ साहब को संदेश भेजा कि जेटली उन्हें याद कर रहे थे. बाद में, पता चला कि उन्हें केरल का राज्यपाल बना दिया गया है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ेंः योगेंद्र यादव ने साम्यवाद के प्रति मेरी कुढ़न को सही पकड़ा है लेकिन देश का इलाज सांप के तेल से नहीं हो सकता: शेखर गुप्ता


 

share & View comments