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Saturday, 16 November, 2024
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530 पन्नों की किताब, कॉन्फ्रेंस, एप– उद्धव सरकार किस तरह फिर से उठा रही कर्नाटक के साथ पुराना सीमा विवाद

उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद का मुद्दा उठा रहे हैं, लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि यह सीमावर्ती क्षेत्रों में बहुत कम महत्व रखता है और बाकी महाराष्ट्र में इसकी कोई चुनावी अहमियत नहीं है.

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मुम्बई: फरवरी 1969 में, जब उप-प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने मुम्बई का दौरा किया, तो बड़ी संख्या में जमा हुए शिव सैनिक, उनकी कार रोक कर मांग करना चाहते थे कि केंद्र अपनी दख़लअंदाज़ी करके, बेलगाम और उसके आसपास के प्रमुख मराठी-भाषी क्षेत्रों पर चल रहा विवाद सुलझाए, जिन्हें मैसूर राज्य का हिस्सा बना दिया गया था.

जब मुम्बई पुलिस ने बल प्रयोग करते हुए, डिप्टी पीएम का रास्ता साफ कराया और उनकी कार रुक कर शिव सैनिकों का अभिवादन किए बिना, वहां से गुज़रती चली गई तो शहर, हिंसक विरोध प्रदर्शनों की चपेट में आ गया. उनके राजनीतिक जीवन में ऐसा भी पहली बार हुआ था कि शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे को, निवारक निरोध अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया गया.

क़रीब 50 वर्षों के बाद, उनके बेटे, महाराष्ट्र मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, इस मुद्दे पर वो बीड़ा उठाने की कोशिश कर रहे हैं.

बुधवार को एक अधिकारिक आयोजन में, उद्धव ठाकरे ने उन दिनों को याद करते हुए कहा, ‘मैं वो शाम कभी नहीं भूलूंगा…मैं 7-8 साल का था… हमें फोन आ रहे थे किसी जगह पर गोली चल गई है, दूसरी जगह पर आंसू गैस छोड़ी गई है…’

उन्होंने कहा, ‘जब हम घर के लिए निकले, तो मैं बालासाहेब और मां के साथ कार में था. बालासाहेब ने कहा, ‘मां बाई, मेरा बैग तैयार रखो. लगता है कि कल हमें उठा लिया जाएगा…इस बीच शहर में 10 दिन तक उपद्रव मचता रहा. वो किसी के नियंत्रण में नहीं था’.

उन्होंने आगे कहा, ‘हमें इसे फिर से जगाना है’.

कर्नाटक के साथ सात दशक पुराने सीमा विवाद पर, मुख्यमंत्री के शब्दों की आक्रामकता कोई नई बात नहीं है. फिलहाल कर्नाटक में शामिल, 814 सीमावर्ती गांवों और बेलगाम शहर को, महाराष्ट्र में शामिल करने के लिए विरोध प्रदर्शन, शिवसेना का एक प्रमुख राजनीतिक एजेंडा रहा है.

लेकिन, जो चीज़ नई है वो है इन विवादास्पद इलाक़ों पर महाराष्ट्र का दावा ठोंकने के लिए, ठाकरे की अगुवाई में राज्य सरकार के भीतर चल रहीं गतिविधियों की हड़बड़ाहट.

शुरुआत के लिए, बुधवार को राज्य सरकार ने इस मुद्दे पर, सरकार द्वारा प्रायोजित 530 पन्नों की एक पुस्तक जारी की, जिसका शीर्षक है ‘महाराष्ट्र कर्नाटक सीमावाद: संघर्ष अणि संकल्प’ (महाराष्ट्र कर्नाटक सीमा विवाद: संघर्ष और संकल्प), जिसकी कर्नाटक के राजनीतिक नेताओं ने आलोचना की.

पुस्तक के विमोचन के लिए सीएम ठाकरे ने सुनिश्चित किया कि सभी राजनीतिक दलों – सत्तारूढ़ कांग्रेस, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और शिवसेना, जो मिलकर महा विकास अघाड़ी (एमवीए) हैं, और विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)- के सदस्य इस मुद्दे पर राजनीतिक एकता दिखाने के लिए, मंच पर मौजूद हों.

इसके अलावा, महाराष्ट्र सरकार विवादित क्षेत्रों में एक कॉन्फ्रेंस आयोजित करने की योजना भी बना रही है, जिसमें महाराष्ट्र सरकार की स्कीमों के लिए, इस इलाक़े से और अधिक लाभार्थियों को सूचीबद्ध किया जाएगा और ऐसे सभी लोगों का डेटाबेस तैयार किया जाएगा, जिन्हें इस रस्साकशी में महाराष्ट्र का साथ देने के लिए लामबंद किया जा सके.

पुस्तक विमोचन के मौक़े पर बोलते हुए, ठाकरे ने ये भी मांग उठाई, कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक, विवादित इलाक़े को एक केंद्र-शासित क्षेत्र घोषित कर दिया जाए. इस मामले में एक केस 2004 से सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.

सामान्य प्रशासन विभाग के प्रमुख सचिव श्रीकांत देशपाण्डे, जो सीमा विवाद पर राज्य सरकार के एक प्रकोष्ठ के प्रमुख भी हैं, ने कहा, ‘सीएम इस मुद्दे को लेकर बहुत आतुर हैं’.

उन्होंने कहा, ‘महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद प्रकोष्ठ, पिछले 25 सालों से वजूद में है, लेकिन अब हमें कहीं ज़्यादा देखा जा रहा है. पैसे का अनुरोध या फाइलों की मंज़ूरी, अब ज़्यादा तेज़ी से हो रही है. प्रकोष्ठ को इस मुद्दे पर एक ग़ैर-सरकारी विशेषज्ञ के आने से भी मज़बूती मिली है, जो ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी हैं’.


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ठाकरे सरकार ने पुराने सीमा विवाद को आगे ढकेला

जब से वो सीएम बने हैं, ठाकरे ने महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद पर बहुत से हितधारकों के साथ कई बैठकें की हैं.

पिछले साल और इस साल भी, जब ठाकरे ने संसद के बजट सत्र से पहले, सांसदों की एक बैठक की अध्यक्षता की, तो उन्होंने उनसे कहा कि पार्टी लाइन के बावजूद वो केंद्र के साथ इस मुद्दे को उठाएं.

मुख्यमंत्री ने समय समय पर, बीएस येदियुरप्पा की अगुवाई वाली कर्नाटक सरकार को सुईं चुभोने के लिए, विवादित इलाक़ों का उल्लेख कर्नाटक के क़ब्ज़े वाले महाराष्ट्र के तौर पर किया है और केंद्र पर इस विवाद में, बीजेपी-शासित राज्य का पक्ष लेने का आरोप लगाया है.

2019 में सत्ता में आने के बाद ठाकरे सरकार के सबसे पहले फैसलों में एक था दो वरिष्ठ नेताओं को नोडल मंत्री नियुक्त करना, जिनका काम शीर्ष अदालत में सीमा विवाद मामले पर तेज़ी लाने के लिए सरकार के प्रयासों की निगरानी करना था.

हालांकि, सीमा विवाद के लिए ऐसे नोडल मंत्री की अवधारणा, पहली बार 2015 में पेश की गई थी, लेकिन इस ज़िम्मेदारी के लिए ठाकरे का मंत्रियों का चुनाव- शिवसेना के एकनाथ शिंदे और एनसीपी के छगन भुजबल- महत्वपूर्ण था.

शिंदे और भुजबल दोनों, शिवसैनिकों के नाते अतीत में, आक्रामक रूप से इस मुद्दे से जुड़े रहे हैं. बीजेपी की अगुवाई वाली पिछली सरकार में, पूर्व सीएम देवेंद्र फडणवीस ने ये ज़िम्मा, चंद्रकांत पाटिल को दिया हुआ था.

एक वरिष्ठ सिविल सर्वेंट ने कहा, ‘एकनाथ शिंदे और छगन भुजबल, अतीत में किसी भी दूसरे मंत्री की अपेक्षा, इस बारे में ज़्यादा सक्रिय रहे हैं’. उन्होंने आगे कहा, ‘दोनों नेता ऐसे हैं जो अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से, इस मुद्दे से क़रीब रहे हैं’.

पहली बार ऐसा हुआ, कि दोनों मंत्रियों ने राज्य मंत्रिमंडल से ये फैसला करा लिया कि महाराष्ट्र के सभी मंत्री एक नवंबर को, अपनी कलाई पर काली पट्टी बांधेंगे, जो कर्नाटक दिवस है.

ये एक ऐसी परंपरा है, जो विवादित क्षेत्रों में स्थित कुछ मराठी-भाषी संगठन, कर्नाटक दिवस पर हर साल निभाते हैं. इस बार महाराष्ट्र सरकार का अधिकारिक समर्थन मिलने से, उनका उत्साह और बढ़ गया है.

लेकिन कन्नड़भाषियों की एक्शन कमेटी ने इसे, अनावश्यक और कोर्ट की अवमानना क़रार दिया है.

अधिकारियों का कहना है कि सीएम ठाकरे के अंतर्गत, राज्य सरकार का महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद प्रकोष्ठ भी अब अधिक सक्रिय है.

प्रकोष्ठ के ऊपर कोर्ट के मुक़दमे से जुड़े, वकीलों और गवाहों के संपर्क में रहने और आवश्यक कागज़ात तथा ज़मीनी रिसर्च के साथ, उनकी मदद करने का ज़िम्मा है. सेल की एक ज़िम्मेदारी ये भी है कि वो विवादित सीमावर्त्ती क्षेत्रों के निवासियों के बीच, उनके लिए चलाई जा रहीं राज्य सरकार की स्कीमों के बारे में जागरूकता फैलाएं.

महाराष्ट्र सरकार ने इंजीनियरिंग, मेडिकल और फार्मेसी कॉलेजों में, विवादित सीमावर्त्ती क्षेत्रों के छात्रों के दाख़िले के लिए, एक विशेष कोटा रखा हुआ है. इन इलाक़ों में रहने वालों को भी, महाराष्ट्र का ही निवासी समझा जाता है और वो सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन कर सकते हैं. लेकिन उन्हें आरक्षण का फायदा नहीं मिलता.

इसी तरह, सीमा विवाद पर राज्य सरकार की एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का अब फिर से गठन किया गया है और अब ये पहले से अधिक बैठकें कर रही है. सबसे हालिया बैठक बुधवार को, सीएम की मौजूदगी में हुई.

दीपक पवार, जिन्हें पिछले साल सेल में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी के तौर पर लाया गया, ने कहा, ‘सीएम से हमें ये आभास होता है, कि वो इस मसले का जल्द समाधान चाहते हैं, चूंकि लोग धैर्य खो रहे हैं. उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में सभी राजनीतिक पार्टियां, एक मंच पर होनी चाहिए और बेलगाम में स्थानीय नेतृत्व भी, जो महाराष्ट्र में शामिल होने के पक्ष में हैं, एकमत होने चाहिए’.

पुस्तक का विमोचन, जिसके पवार संपादक हैं, इसी दिशा में एक ‘राजनीतिक संदेश’ था, जिसमें एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बालासाहेब थोराट और राज्य विधान परिषद में बीजेपी के नेता प्रतिपक्ष, प्रवीण दारेकर मौजूद थे.

दीपक पवार ने कहा, ‘हम सीमावर्त्ती क्षेत्रों में रहने वाले मराठी लोगों के कल्याण के लिए शिक्षा और रोज़गार के मामले में, हर संभव सहायता पहुंचाना चाहते हैं’.


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‘सीमा परिषद’, ‘मोबाइल एप’ और एक डेटाबेस

देशपांडे ने कहा कि महाराष्ट्र सरकार सीमावर्त्ती क्षेत्रों में, ‘सीमा परिषद’ नाम से एक कॉन्फ्रेंस आयोजित करने पर काम कर रही है, जहां राज्य सरकार इस मुद्दे पर मज़बूती से अपना रुख़ रखेगी. सरकार सीमा पर रहने वालों की अपेक्षाओं का भी संज्ञान लेगी, जो उन्हें महाराष्ट्र सरकार से हैं, और उसी हिसाब से उनके विकास के लिए स्कीमें और कार्यक्रम तैयार करेगी.

देशपांडे ने कहा, ‘सीमा परिषद मुद्दे से जुड़े हर व्यक्ति को, एक छत के नीचे लाएगी’. उन्होंने आगे कहा, ‘जो स्थानीय नेतृत्व इस ध्येय के लिए लड़ रहा है, उसमें बहुत सारे गुट हैं. इस प्लेटफॉर्म के ज़रिए हम उन्हें एकजुट करने का प्रयास करेंगे’.

देशपांडे ने कहा कि एक वेबसाइट और मोबाइल एप लाने की भी तैयारी चल रही है, जिसकी सहायता से बेलगाम और उसके आसपास रहने वाले स्थानीय लोग, राज्य सरकार से संपर्क कर सकते हैं, और एक ‘दो-तरफा संचार’ कर सकते हैं.

इसके अलावा, राज्य सरकार एक डेटाबेस भी तैयार कर रही है, जिसमें महाराष्ट्र सरकार की स्कीमों के मौजूदा और संभावित लाभार्थियों को सूचीबद्ध किया जा रहा है और साथ ही इस मुद्दे से जुड़े दस्तावेज़ों और पत्राचार के औपचारिक अभिलेख भी रखे जा रहे हैं.

एक शिवसेना लीडर ने, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते थे, कहा, ‘बेलगाम, निपानी, कारवाड़ और अन्य विवादित क्षेत्रों की युवा पीढ़ी का, इस मुद्दे से उतना जुड़ाव नहीं है, जितना पुरानी पीढ़ी का है. इस अभियान के बारे में जानकारी देने के लिए वेबसाइट, मोबाइल एप और पुस्तक जैसे क़दम, युवा पीढ़ी के बीच इस मुद्दे के बारे में जागरूकता फैलाने में बहुत सहायक सिद्ध होंगे’.

उन्होंने आगे कहा, ‘शिक्षा तथा रोज़गार की ख़ातिर युवा पीढ़ी के लिए, स्कीमों को विस्तार देने पर फोकस करने से, सरकार और पार्टी दोनों को फायदा होगा’.

लेकिन, राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश बाल ने कहा कि शिवसेना एक भावनात्मक मुद्दे को फिर से उभारने की कोशिश कर रही है, लेकिन न तो इसका वोटर्स पर कोई असर पड़ने वाला है, न ही इससे सीमाओं की यथा स्थिति में कोई बदलाव होने जा रहा है.

बाल ने कहा, ‘इससे कुछ निकलने नहीं जा रहा है, लेकिन ज़्यादा से ज़्यादा ये सरकार दबाव बना सकती है और इस बात पर ज़ोर दे सकती है कि सीमावर्त्ती क्षेत्रों में मराठी संस्कृति, परंपरा, और भाषा को संरक्षित रखा जाए’.

उन्होंने आगे कहा, ‘बेलगाम की नई पीढ़ी का इस विवाद से कोई लेना-देना नहीं है. उनकी शिक्षा कन्नड़ में हुई है और वो एक अलग संस्कृति में पले बढ़े हैं’. उन्होंने ये भी कहा, ‘पुरानी पीढ़ी जो इसकी परवाह करती है, वो बहुत अल्पमत में है. बॉर्डर के निकट कुछ जगहों को छोड़कर, शेष महाराष्ट्र में भी ये विवाद कोई मुद्दा नहीं है. शिवसेना एक भावनात्मक मुद्दे को उभारने की कोशिश कर रही है, लेकिन इसके नतीजे में वोटों में भी कोई ख़ास बदलाव नहीं होने जा रहा है’.

विवाद

बेलगाम ज़िले में, जो महाराष्ट्र के कोल्हापुर की सीमा से लगा हुआ है अच्छी ख़ासी मराठी-भाषी आबादी है और ये बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा हुआ करता था.

राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 के अनुसार बेलगाम को मैसूर राज्य को सौंप दिया गया था जिसे 1973 में आज का कर्नाटक नाम दिया गया. इस फैसले का विरोध करने वाले आज भी कहते हैं कि 1956 में वहां रह रहे मराठी-भाषियों की संख्या, कन्नड़ बोलने वालों से ज़्यादा थी.

आख़िरकार, केंद्र ने इसके समाधान के लिए 1966 में महाजन आयोग का गठन किया, जिसमें महाराष्ट्र और तत्कालीन मैसूर दोनों के प्रतिनिधियों को शामिल किया गया था.

1967 में कमीशन ने 264 गांवों को, महाराष्ट्र को सौंपने की सिफारिश की, जिसका गठन 1960 में हुआ था और बेलगाम तथा 247 अन्य गांवों को, दक्षिणी राज्य के साथ छोड़ दिया. लेकिन, महाराष्ट्र ने उस रिपोर्ट को तर्कहीन बताते हुए ख़ारिज कर दिया.

2004 में, कांग्रेस और एनसीपी के अंतर्गत महाराष्ट्र सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई और समीपता तथा हर गांव में मराठी-भाषी आबादी का हवाला देते हुए, कर्नाटक से 814 गांवों की मांग की. मामला अभी भी कोर्ट में लंबित है.

कर्नाटक सरकार ने भी बेलगाम इलाके पर अपना अधिकार फिर से जताते हुए वहां एक विधान सभा की बिल्डिंग बनाई है, और हर साल वहां अपना शीतकालीन सत्र आयोजित करती है. 2014 में उसने औपचारिक रूप से बेलगाम का नाम बदलकर बेलगावी भी कर दिया.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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