2012 के उलट, आखिरकार भाजपा को गुजरात में कुछ चुनौती मिल रही है। जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल और खुद भाजपा ही इसके कारक हैं.
आखिर, गुजरात के इस बार के चुनाव और 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में फर्क क्या है? मैं अहमदाबाद के एक स्कूल की शिक्षिका फरज़ाना शेख से पूछता हूं. वह चौड़ी मुस्कान के साथ बताती हैं, ‘इस बार यह एक चुनाव है.’
शेख कांग्रेस की जीत पर दांव लगा रही थी या कम से कम भाजपा के 100 सीटों से नीचे जाने की सोच रही थीं. जब यह लगा कि भाजपा 100 सीटों को पार कर जाएगी, शेख फिर भी आशावादी दिखीं, ‘कम से कम अब वे लड़खड़ा तो रहे हैं.’
गुजरात में 2012 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी गुजरात में मैं था, इस बार अहमदाबाद में साफ तौर पर अंतर मुझे दिख रहा है. 2012 में मैंने देखा था कि सायकल पर कांग्रेस का बड़ा होर्डिंग ले जा रहे एक कार्यकर्ता को भीड़ भरी चाय दुकान के बाहर ही धक्का दिया गया, गिरा दिया गया. जब मैं और कुछ और उसकी मदद को बढ़े, तो वहां मौजूद भाजपा समर्थकों ने कहा कि उसे तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध का कोई अधिकार नहीं है.
कुछ मामलों में, वातावरण वही है. अहमदाबाद की एक लोकप्रिय स्टैंड-अप कॉमेडियन, जो कंडोम से लेकर माहवारी तक पर चुटकुले बनाती है, ने मुझे शनिवार की रात बताया कि नरेंद्र मोदी एकमात्र विषय हैं, जिस पर वह चर्चा नहीं करेंगी.
हालांकि, राजनीतिक स्तर पर आखिरकार गुजरात में हम ‘राजनीति’ की वापसी देख रहे है. ठीक है, कांग्रेस योग्य नहीं है, खुद भी सॉफ्ट-हिंदुत्व कार्ड खेल रही है, लेकिन कांग्रेस को गुजरात में पूरी तरह खारिज नहीं किया गया, हंसी का पात्र नहीं बनाया गया. यह 2012 में हुआ था. प्रजातंत्र के समर्थकों को इस परिवर्तन पर खुश होना चाहिए, बिना विचारे कि वे किसके समर्थक हैं.
परिवर्तन के कारक
इस बदलाव के पीछे कई कारक हैं, जिसका एक बहुत छोटा हिस्सा कांग्रेस के नए अध्यक्ष राहुल गांधी के नाम भी जाता है. 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा के कई सदस्यों ने अहमदाबाद में मुझसे कहा था कि वे अब सामने आकर गुजरात पर अपनी छाप छोड़ना चाहते हैं. यह विवाद का विषय है कि वैसा हुआ नहीं, हालांकि आनंदीपटेल का छोटा लेकिन तबाही वाला मुख्यमंत्रित्व काल यह दिखाता है कि भाजपा अभी भी यह सीख रही है कि मोदी उपनाम नहीं रखनेवाले नेताओं को फलने का मौका कैसे दे?
हालांकि, अहमदाबाद में रहना मज़ेदार अनुभव है क्योंकि डिजिटल रिकॉर्डर और कैमरों के ऑफ होती ही मोदी के कई नजदीकी सहयोगी बताते हैं कि वे बस मौके का इंतजार कर रहे हैं, ताकि भाजपा को अपने हिसाब से ढाल सकें, न कि मोदी के हिसाब से। यह अभी होता है कि नहीं, देखने की बात होगी.
दूसरा कारक यह है कि गुजरात में मोदी अब अकेले महत्वाकांक्षी राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं. 2014 में आम आदमी पार्टी के उदय ने भाजपा को विकास और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर घेरनेवाला विपक्ष दिया है. ये दो मुद्दे ही हैं, जिन पर आम गुजराती के हिसाब से मोदी श्रेष्ठ हैं.
मैंने यह 2014 में देखा, जब अरविंद केजरीवाल ने अहमदाबाद में एक रैली की थी. उन्होंने अपनी ही शैली में भाषण दिया और मोदी को किसान आत्महत्या जैसे मुद्दों पर घेरा. यह दीगर बात है कि केजरीवाल के कई आंकड़े गलत थे. उनके समर्थक बताते हैं कि जिस जोश और ज़ोर से केजरीवाल बोले, वह सम्मान योग्य है. राह चलते औऱ देखते लोगों ने स्टेज पर पत्थर भी फेंके, जिसका उल्लेख आम आदमी पार्टी के समर्थक अपना आधार बढ़ाने के लिए करते हैं. वे खुद को मजबूत नेतृत्व बताते हैं, न कि मोदी को.
हां, आम आदमी पार्टी तब से अब तक बिखरी है, लेकिन आज कई सारे उम्मीदवार जो हम देख रहे हैं- जैसे जीते हुए दलित नेता जिग्नेश मेवाणी- उन्होंने अपनी शुरुआत आम आदमी पार्टी कार्यकर्ता के तौर पर की थी और उस समय ही अपना राजनीतिक आधार पाया था.
कांग्रेस को श्रेय
सच कहें तो कांग्रेस पार्टी को भी गुजरात में जारी राजनीतिक विमर्श को बढ़ाने का श्रेय दिया जाना चाहिए. इस पर काफी कुछ लिखा गया है कि इसने अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए 2012 में किस तरह मोदी को घेरा था, लेकिन उनमें से अधिकांश कमेंट कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं ने दिया था, स्थानीय कांग्रेस उम्मीदवारों ने नहीं, जिनमें से कई तो विचारशून्य और ढुलमुल प्रवृत्ति के थे. इसके विपरीत भाजपा प्रत्याशी वैसा बोले, जिसकी गुजराती प्रशंसा करते हैः निर्भय, निडर और बुलंदी के साथ बोलना.
इस बार हालांकि, कांग्रेस मे परिवर्तन आया. अहमदाबाद के उच्चवर्गीय इलाके प्रह्लादनगर में कांग्रेस प्रत्याशी मिहिर शाह, जो आखिरकार भाजपा प्रत्याशी किशोर चौहान से हार गए, ने कहा कि उन्होंने ठीक भाजपा कार्यालय के सामने कांग्रेस कार्यालय खोलने पर ज़ोर दिया. ज़ाहिर है, कांग्रेस कार्यालय बिल्कुल वीरान था और कई बार तो गुजराती व्यंजनों के बहाने लोगों को लुभाया जाता, लेकिन जैसा कि शाह ने मुझे बताया—वह कम से कम भाजपा कार्यालय के आकार का तो था.
हार्दिक पटेल एक और कारक हैं. आंकड़े बताते हैं कि अधिकांश पटेल मतदाताओं ने भाजपा से कांग्रेस की ओर पलटी नहीं मारी, लेकिन हार्दिक एक नयी और मजबूत आवाज़ हैं. पिछले हफ्ते, पटेलों के रोड-शो में एक युवा समर्थक ने मुझे बताया कि वह तो एसयूवी से बाहर लटक कर हाथ हिलाते हार्दिक पटेल की इसी छवि पर ही फिदा है.
मोदी ने काफी समय तक चौड़ी छाती वाले, फैशनपरस्त, युवाओं को चाहनेवाले नेता की छवि कायम कर रखी है, जो भावनाओं को हिलोड़ सके और भारी भीड़ को आकर्षित कर सके. आज, मोदी की उस छवि के प्रतियोगी हैं.
विडंबना
हालांकि, सबसे बड़ा कारक तो विरोधाभासी तौर पर खुद भाजपा ही हो सकती है. हालांकि, मोदी ने कई बार, खासकर ग्रामीण गुजरात में, सांप्रदायिक भाव को गहराने की कोशिश की, लेकिन मतदाताओं ने उन्हें मजबूर किया कि वे जीएसटी, किसानों की आमदनी और विमुद्रीकरण पर बोलें.
मैं तो संघ के एक स्वयंसेवक से भी मिला, जिसने इस बार कांग्रेस को वोट दिया, क्योंकि वह चाहता है कि भाजपा ‘उसके वोट को हल्के में न लें और वास्तविक मुद्दों पर बोले.’ मैं नहीं जानता कि अधिक आश्चर्य का विषय क्या है? उसने इस तरह वोट दिया यह या कि उसने सार्वजनिक तौर पर यह बोलने में हिचक नहीं दिखाई.
यह शायद इस चुनाव का सबसे बड़ा सबक हैः सबसे अधिक केसरिया प्रदेशों में से एक इस प्रदेश में भी अब रहस्य की गुंजाइश हो गयी है.
ज़ाहिर जानमोहम्मद हाइफन मैगजीन के वरिष्ठ समाचार-संपादक हैं.