सामान्य हालात में, हमें न्यूयॉर्क सिटी के मेयर चुनाव की ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए. हां, यह उस शहर के नागरिकों के लिए यह मायने रखता है, डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए भी, जो इसे अपनी वापसी की पहली उम्मीद के रूप में देख रही थी और उन अमेरिकियों के लिए भी जो सोच रहे हैं कि क्या राजनीतिक माहौल बदल रहा है, लेकिन हमारे लिए? ज़्यादा नहीं. इससे हमारी ज़िंदगी में कोई खास फर्क नहीं पड़ता. मेयर का विदेश नीति में कोई रोल नहीं होता, न ही वह टैरिफ बदल सकता है और न ही वीज़ा दे सकता है.
यही वजह है कि ज्यादातर पढ़े-लिखे भारतीय न्यूयॉर्क सिटी के पिछले तीन मेयरों के नाम भी नहीं बता सकते. एकमात्र मेयर जिनका नाम कुछ लोगों को याद है, वे रूडोल्फ गिउलियानी हैं, जिन्हें 9/11 के बाद की अवधि में दुनिया भर में प्रसिद्धि मिली थी. तो फिर ज़ोहरान ममदानी की जीत को लेकर नॉन-संघी हलकों में इतनी खुशी क्यों है?
इसका एक कारण है कि हम भारत से जुड़े किसी भी व्यक्ति की सफलता पर गर्व करने लगते हैं. उदाहरण के तौर पर, जेडी वेंस को भी इसलिए हीरो बताया गया क्योंकि उनकी पत्नी भारतीय मूल की हैं. कमला हैरिस, जिन्होंने अपने राजनीतिक करियर में खुद को ब्लैक (अश्वेत) पहचान के रूप में रखा, उपराष्ट्रपति बनने पर अचानक “हमारी” कहलाने लगीं, लेकिन ममदानी के मामले में बात थोड़ी अलग है. उनकी जीत भारत में इसलिए ज्यादा चर्चा में है क्योंकि यह हमें बताती है कि अमेरिका में भारतीय डायस्पोरा कैसा है और पश्चिमी दुनिया में हमारी क्या जगह है.
पिछले 10 सालों में, सोशल मीडिया की वजह से अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की आवाज़ ज्यादा सुनाई देने लगी और धीरे-धीरे हमने एक खास तरह के भारतीय मूल वाले अमेरिकी व्यक्ति की छवि बना ली — जो आमतौर पर हिंदू होता है, अपनी हिंदू पहचान पर जोर देता है, अमेरिका में रूढ़िवादी/दक्षिणपंथी विचारों के साथ खड़ा होता है और हमें विश्वास दिलाता है कि (ज्यादातर श्वेत) अमेरिकी भारत और भारतीयों को बहुत पसंद करते हैं.
इस छवि का एक बड़ा हिस्सा था डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी का रिश्ता. हमें बताया गया कि जब तक ट्रंप सत्ता में हैं, भारत के हित सुरक्षित हैं. ट्रंप भारत को पसंद करते हैं और हमारे दुश्मनों के खिलाफ हमारे साथ खड़े रहेंगे.
भारतीयों को अब PIO का मतलब मालूम
तीन चीज़ों ने इस पहले वाली छवि को खत्म कर दिया है. पहला, वे सभी अमेरिकी दक्षिणपंथी लोग, जिनके बारे में हमें भरोसा दिलाया गया था कि वे भारतीय मूल के लोगों के दोस्त हैं, अब उनका रवैया बदल गया है. अब PIOs सोशल मीडिया पर उनका पसंदीदा निशाना बन गए हैं — उन पर अमेरिकी नौकरियां छीनने से लेकर उनकी संस्कृति तक सब पर हमला किया जा रहा है. इनमें से कई पोस्ट इतने गंदे हैं कि यहां बताना मुश्किल है, लेकिन इतना साफ है कि PIO और अमेरिकी राइट-विंग का जो गठजोड़ बताया जाता था, वह अब टूट चुका है. यहां तक कि जिस जेडी वेंस को हीरो बताया जाता था, अब उससे पूछा जा रहा है कि उसकी पत्नी अभी भी हिंदू क्यों है.
दूसरा कारण है ट्रंप-मोदी रिश्ते का खराब होना. ट्रंप भले ही कहते रहें कि मोदी उनके दोस्त हैं, लेकिन उनके काम भारत के हितों के उलट जा रहे हैं. अब इसमें संदेह नहीं कि इस समय वह भारत से ज्यादा पाकिस्तान को तरजीह दे रहे हैं.
भारत ने इस रिश्ते को सुधारने की कोशिश की, लेकिन हमारी विदेश नीति टीम ट्रंप को ठीक से समझती ही नहीं (अगर समझती, तो मामला इस स्थिति तक आता ही नहीं). ट्रंप जो मांग रहे हैं — जैसे रूस से तेल खरीद बंद करना — वह पूरा करवाना चाहते हैं और अब लगता है कि कई महीनों की बातें और नाटक के बाद, भारत को वही करना पड़ेगा जो ट्रंप चाहते हैं, खासकर तेल के मुद्दे पर.
तीसरा कारण है—अमेरिका में PIOs की भूमिका पर भारत में फिर से सोच-विचार होना. कई सालों तक हमने उन्हें भारत की राजनीति पर बड़ा प्रभाव रखने वाला माना — वे मोदी की तारीफ करते थे और अमेरिका में रहकर सोशल मीडिया पर बताते थे कि भारत कैसे चलना चाहिए. हमने खुद ही मान लिया कि भारत की पहचान बदल चुकी है, इसलिए न्यू जर्सी या डालास में रहने वाला भारतीय मूल का कोई व्यक्ति भी भारत के घरेलू मामलों पर भाषण दे सकता है.
लेकिन जब अमेरिका के साथ हमारे रिश्ते बिगड़े, तो PIOs में से बहुत कम लोग भारत के पक्ष में बोले या अपने सांसदों से भारत के लिए मदद मांगी — जैसा शशि थरूर और अन्य ने भी कहा है. अब भारत में लोग पूछने लगे हैं — अगर वे हमारे लिए खड़े नहीं होते, तो हम उनकी बातों को इतना महत्व क्यों दें?
कुछ PIOs ने जवाब दिया कि उनका काम भारत सरकार के लिए लॉबिंग करना नहीं है — यह ठीक है, लेकिन अब हमें पता है कि वे कहां खड़े हैं.
जड़ों से जुड़े रहना
कुछ मामलों में, PIOs को अमेरिकी दक्षिणपंथ से जोड़ना हमेशा गलत था. भले ही भारत की विदेश नीति ने उत्साह में (और शायद बेवकूफी में) मान लिया था कि ट्रंप भारत के लिए अच्छे होंगे, लेकिन सर्वे बताते थे कि अमेरिका में रहने वाले लगभग 3 में से 2 PIOs, ट्रंप की बजाय कमला हैरिस को पसंद करते थे, लेकिन हमने उन पर ध्यान ही नहीं दिया. हम तो ट्रंप और उन PIOs के मोह में फंसे रहे जो कहते थे कि मोदी और ट्रंप साथ मिलकर दक्षिणपंथी बदलाव लाएंगे.
ममदानी उस पूरी सोच के उलट हैं. अभी तक उन्होंने भारत पर ज्यादा कुछ नहीं कहा, बस कभी-कभी मोदी की आलोचना की है — जो मेयर उम्मीदवार होने के नाते सामान्य है, क्योंकि उनका विदेश नीति से कोई लेना-देना नहीं.
लेकिन भारत में उनकी चर्चा इसलिए है क्योंकि वे उन अमेरिकी दक्षिणपंथी नेताओं के बिल्कुल उलट हैं, जिनका हमने पिछले सालों में बढ़-चढ़कर समर्थन किया.
और कई अन्य भारतीय मूल के नेताओं (जैसे बॉबी जिंदल, निक्की हेली) के विपरीत, उन्होंने ईसाई धर्म नहीं अपनाया और न ही अपनी भारतीय पहचान को छोटा दिखाया. वैसे भी उनके लिए यह करना मुश्किल है — क्योंकि उनकी मां मीरा नायर भारत में बहुत सम्मानित फिल्म निर्देशक हैं.
उनके सिंबल्स भी उनकी भारतीय पहचान छिपाते नहीं हैं—उन्होंने अपनी विजय भाषण में नेहरू को उद्धृत किया. उनकी मां उनके साथ हैंडलूम साड़ी में मंच पर खड़ी थीं और हिंदी फिल्म का गाना बज रहा था.
इसका मतलब यह नहीं कि हमें उनकी नीतियों का समर्थन करना होगा, लेकिन यह मानना मुश्किल है कि दुनिया के सबसे बड़े शहरों में से एक के मेयर के रूप में, वे आधुनिक भारत की असली पहचान को नहीं दिखाते—एक गुजराती खोजा पिता, एक पंजाबी हिंदू मां, भारतीय इतिहास की समझ और भारतीय पॉप संस्कृति पर गर्व.
मुझे नहीं लगता कि अगर उनके पास विदेश नीति में कोई ताकत होती (जो कि नहीं है), तो भी उन्हें भारत के लिए काम करना चाहिए और न ही यह उनकी जिम्मेदारी है. उनकी जिम्मेदारी न्यूयॉर्क के लोगों के प्रति है — न कि उनके माता-पिता के जन्मस्थान के प्रति.
लेकिन उनकी जीत दिखाती है कि अमेरिका में भी भारतीय पहचान पर गर्व करते हुए, अलग विचार रखते हुए और फिर भी चुनाव जीतना संभव है. यह अपने आप में जश्न मनाने लायक है और ऐसे समय में जब अमेरिका के दक्षिणपंथ के पीछे भागना भारी असफल रहा है, ममदानी दिखाते हैं कि एक दूसरा रास्ता भी है.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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