यदि किसी को लगता है कि पूरे यूपी में ही 60 करोड़ पेड़ नहीं होंगे तो यह उसकी अपनी समझ है. राज्य सरकार का दावा है कि योगी आदित्यनाथ के शासनकाल में अबतक 60 करोड़ 24 लाख 46 हजार 551 पौधे लगाए जा चुके हैं, ध्यान रहे इसमें पर्यावरण दिवस जैसे अन्य मौकों पर लगाए जाने वाले पौधे शामिल नहीं हैं. 25 करोड़ पौधे तो पिछले हफ्ते वन महोत्सव मनाते हुए एक ही दिन में रोप दिए गए है (बड़ी संख्या में औषधीय पौधे शामिल).
योगी आदित्यनाथ के विशाल, घने, ऊंघते अनमने जंगल में प्रवेश करते है पर उससे पहले नदी किनारे आकार ले रही एक छोटी कोशिश को देख लेते हैं.
क्विक रेवेन्यू वैल्यू नहीं इसलिए ये फेवरेट नहीं
पूर्व सैनिको के संगठन अतुल्य गंगा और ग्रीन इंडिया फाउंडेशन ने गंगा के दोनों किनारों की पैदल गंगा परिक्रमा की. उन्होंने एक वृक्षमाल बनाने की कोशिश की. उन्होंने गंगा किनारे पौधे रोपे. इन पौधों को पंचायत ऑफिस या स्कूल या किसी मंदिर, आश्रम प्रांगण में लगाया गया, हर पौधे के साथ एक छात्र को जोड़ा गया, उस पौधे को जीयो टैग किया और पौधे को नाम देकर छात्र को उसका दोस्त घोषित किया.
कुल मिलाकर पौधा लगाने से ज्यादा इस बात पर ध्यान दिया गया कि वह बड़ा हो और पेड़ बन जाए. ये कोई फलदार पौधे नहीं थे बल्कि पीपल, बरगद, नीम, पाकड़, चोडरा, डूमर आदि थे, ये पेड़ भूमि कटाव रोकते हैं इस तरह नदियों और उनकी सभ्यताओं को बचाते हैं, लेकिन इन पेड़ों की क्विक रेवेन्यू वैल्यू नहीं है. इसलिए ये किसी के फेवरेट नहीं है.
इस तरह पौधे लगाने की कोशिश ग्यारह साल तक लगातार की जाएगी, जो पौधे बच नहीं पाए उन्हें बदला जाएगा और सपना यह है कि जब ग्यारह साल बाद सैटेलाइट से गंगा को देखें तो लगे जैसे गंगा को वृक्षों की माला पहना दी गई हो.
इस परिक्रमा में करीब सात माह का समय लगा और महज कुछ हजार पौधों को रोपा गया. परिक्रमा की समाप्ति पर उस पहले पौधे के साथ लोगों ने जमकर सेल्फी ली जो सात माह का होकर शान से ऊपर बढ़ रहा है. चलिए योगी जी के इलाके में लौटते हैं.
पिछले साल भी इसी तरह वन महोत्सव के अवसर 25 करोड़ पौधे रोपे गए थे कोई नहीं जानता उन पौधों का क्या हुआ. वैसे भी कर्मयोगी पीछे देखने में विश्वास नहीं करते. उनका प्रशासन भी उन्हें चारों ओर उग रहा जंगल दिखाता है पीछे बन रहा मैदान नहीं. माननीय समझ ही नहीं पा रहे कि उनके लगातार पौधारोपण करने के बाद भी देश में जंगल कम क्यों हो रहे हैं.
पच्चीस करोड़ के रोचक दावे और रिकार्ड बनाने की इस सनक को समझने के लिए तकरीबन चार साल पहले मध्यप्रदेश घटी एक रिकार्ड ब्रेकर घटना/योजना पर नजर डालिए. हुआ यूं कि सदगुरु जग्गी वसुदेव महाराज ने दक्षिण से हिमालय तक सड़क यात्रा की ताकि वे नदियों की रक्षा के लिए जागरूकता पैदा कर सकें.
सदगुरू से प्रभावित होकर रास्ते में पड़ने वाले राज्यों ने अपनी नदियों के किनारे बड़ी संख्या में पौधे लगाने का वचन दिया. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने छह करोड़ पौधे लगाने का आदेश दे दिया. उनके अधिकारियों ने पूरे प्रदेश की नर्सरियों में मौजूद सभी पौधे खरीद लिए लेकिन छह करोड़ पूरे नहीं हुए. बड़े नर्सरी मालिकों और वन विभाग को आदेश हुआ कि कैसे भी हो, पौधे उपलब्ध कराए जाएं.
आनन फानन में उत्तर प्रदेश की नर्सरी मालिकों से संपर्क किया गया. इसके बाद यूपी – एमपी सभी जगह जिम्मेदारों ने पेड़ों की डालें तोड़ी और एक बड़ी डाल से कई छोटी – छोटी टहनियां तोड़कर उन्हे काली पोलीथिन में मिट्टी भरकर पौधे की तरह लगा दिया. इस तरह छह करोड़ पौधे मध्यप्रदेश पहुंच गए और उन टहनियों को मिट्टी सहित नदी किनारे गड्डों में लगा दिया गया. नर्मदा के तट काली पोलिथिन से पट गए. अब टहनियों में जड़े तो थी नहीं कि वे पनपते, इसलिए सूख गए. ऐसा नहीं कि सभी छह करोड़ पौधे बिना जड़ की टहनियां थी लेकिन जिनमें जड़े थी वह भी सूख गए क्योंकि उनकी देखभाल के लिए कोई इंतजाम नहीं किया गया था. उन छह करोड़ पौधों का कैजुअलटी रेट सौ फीसद रहा.
इस छोटी सी घटना के परिप्रेक्ष्य में साठ करोड़ पौधों के जंगल के भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है. उत्तर प्रदेश वन विभाग और प्रदेश की सभी नर्सरियां मिलकर भी 25 करोड़ पौधों की आपूर्ति नहीं कर सकती लेकिन जब स्थानीय मीडिया का एकमात्र समाचार स्रोत खुद सरकार हो तो सब संभव है.
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पौधारोपण किस जमीन पर होगा
नदियों के किनारे पौधारोपण के फेल होने के पर्यावरणीय और सामाजिक कारण भी होते हैं जिन पर अधिकारी विचार करना ही नहीं चाहते क्योंकि पौधा लगाना अपने आप में इतना पाजिटिव साउंड करता है कि इसका विरोध हो ही नहीं सकता.
दरअसल समस्या यह है कि हमारे यहां नदियों की अपनी कोई जमीन ही नहीं है, ऐसा कोई नोटिफिकेशन नहीं जो बताता हो कि अमुक जमीन अमुक नदी की है. नदी पथ की जमीन या तो सरकार की होती है या निजी. तो पौधारोपण किस जमीन पर होगा ?
गंगा पथ पर बिहार – झारखंड क्षेत्र में सरकारी जमीन दलदली है और उत्तर प्रदेश में ज्यादातर जमीन खेती के अलावा वन विभाग की है. निजी जमीनों पर पौधारोपण के लिए किसानों को कहा जाता है कि फलदार वृक्ष लगाने से उन्हे फायदा होगा. लेकिन सच्चाई यह है कि फलदार वृक्ष भूमि कटाव नहीं रोकते उनकी जड़ में मजबूत पकड़ नहीं होती इसलिए वे पहली बाढ़ में ही बह जाते हैं. इसे यूं समझिए – एक पौधे को पेड़ बनने में कम से कम तीन – चार साल का समय लगता है और गंगा में स्वाभाविक रूप से हर साल बाढ़ आती है. इस तरह पौधा वहां टिक ही नहीं सकता.
वन क्षेत्र की गणना का एक गणित भी देख लिजिए. जिन जंगलों को काटा जाना होता है वहां पेड़ उसी को माना जाता है जो चार फीट तक तीस सें.मी चौड़ा हो, इससे कमजोर को पेड़ ना मानकर बल्ली माना जाता है. लेकिन जब सरकार यह बताती है कि देश में वन क्षेत्र कितना बढ़ गया तो वह सारा इलाका गिन लिया जाता है जहां बड़े पैमाने पर पौधारोपण किया गया है.
इस तथ्य को कोई मतलब नहीं रह जाता है कि ओडिशा के क्योंझर में जिन साल के वृक्षों को काटा गया है उन्हे परिपक्व होने में 130 साल लगते हैं. साल के जंगल टाई और डाई प्रक्रिया से आकार लेते हैं. यानी उगते है, मरते है फिर उगते हैं. दस हजार पेड़ मिलकर भी एक पीपल के पेड़ के बराबर ऑक्सीजन पैदा नहीं कर सकते.
माहौल यूं बनाया जा रहा है मानों देश में जंगल कटने के तमाम आदेशों के बावजूद जंगल बढ़ रहे हैं क्योंकि माननीय पौधे लगा रहे हैं. माननीय समझने को तैयार ही नहीं कि बगीचे लगाए जाते है और जंगल बचाए जाते है. कितना अच्छा हो अगले वन महोत्सव में पौधारोपण के बजाए योगी अपने अधिकारियों को आदेश दें कि 60 करोड़ पौधे गिन कर बताओ.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और पर्यावरणविद हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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