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Friday, 3 May, 2024
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नाज़ी जर्मनी की ही तरह शी जिनपिंग का चीन भी बहुत जल्दी में है

हिटलर को लगता था कि अगर वो तेज़ी से आगे नहीं बढ़ा, तो मित्र राष्ट्र ताक़तवर हो जाएंगे. चीन को भी शायद लगता है कि उसे तेज़ी से आगे बढ़ना चाहिए, इससे पहले कि उसकी आबादी घटने लगे.

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ये मेरे एक लेख का सार है, जो 25 नवम्बर 2011 को इंडियन एक्सप्रेस में छपा था:

जब इस देश की राजधानी में ऑलम्पिक्स आयोजित हुए, तो बहुत एहतियात के साथ ऐसा शो किया गया कि विदेशी मेहमान प्रभावित हो जाएं. विरोधियों को उठाकर शहर से बाहर भेज दिया गया. अनचाहे और विरोध कर रहे जातीय अल्पसंख्यकों को निगरानी में रखा गया. सभी नागरिकों को निर्देश दिए गए कि वो मुस्कुराते रहें, जिससे ये संदेश जाए कि देश में सब ख़ुश हैं. आलीशान स्टेडियम्स बनाए गए. राज्य की मशीनरी का पूरा मुज़ाहिरा किया गया था, ताकि हर कोई देखकर प्रभावित हो जाए. ख़ुद ऑलम्पिक्स का आयोजन इतना दुरुस्त था, और प्रदर्शन पर इतनी बारीकी से ध्यान दिया गया था, कि आप विस्मित हुए बिना रह ही नहीं सकते थे. वास्तव में सामूहिक इंसान की घड़ी आ गई लगती थी.’

ये बयान 2008 में बीजिंग पर बिल्कुल सही बैठता था. विडम्बना और डरावनी बात ये है कि ये, 1936 में बर्लिन के लिए भी सही था.

जिस कारण मैं अपना ही हवाला दे रहा हूं, उसका मक़सद भविष्यवाणी के तोहफे, या नौ साल पहले, किसी असाधारण पूर्वज्ञान का दावा करना नहीं है, बल्कि ये सच्चाई क़ायम करना है, कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के नाज़ी जर्मनी जैसा दिखने का ये सिलसिला, कई सालों से चल रहा है. हिटलर कभी न होता अगर जर्मन राष्ट्र की बुनियाद में, अधिनायकवादी लालसा और मूर्खता से भरी, यहूदी विरोधी भावना न होती. चीन और शी के साथ भी यही है.


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जर्मनी के साथ ऐतिहासिक समानताएं

स्ट्रैटन्यूज़ ग्लोबल ने हाल ही में एक फीचर दिखाया, जिसमें चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की तुलना एडॉल्फ हिटलर से की गई थी. चैनल के एडिटर नितिन गोखले को तुरंत ही, चीनी दूतावास के एक प्रवक्ता से कॉल आ गई, जिसने ‘नतीजे’ भुगतने की चेतावनी दी, अगर फीचर को बंद नहीं किया गया. गोखले बोलने की आज़ादी के एक निडर रक्षक हैं, और भारत की निडर पत्रकारिता की मज़बूत परंपरा के प्रति प्रतिबद्ध हैं. मुझे यक़ीन है कि वो इन ‘नतीजों’ से निपट सकते हैं, जो किसी बंदी शिविर की शक्ल में भी हो सकते हैं. डाकाओ एक शुरूआती कैम्प था. वो पोलैण्ड में नहीं था, बल्कि जर्मनी के अंदर था और सितम्बर 1939 से पहले का था. वीग़र्स को ज़बर्दस्ती सुअर का मांस खिलाना, अपनी पवित्र किताब की जगह माओ को पढ़ना, पर्दा त्यागना, अपनी ज़बान छोड़कर मैण्डेरिन में बात करना, नमाज़ नहीं पढ़ना, और ‘शांतिमय व उपयोगी हुनर सीखना’ – इन सब से लगता है कि वीग़र्स को बदला जा सकता है.

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अगले चरण में ये नतीजा निकाला जा सकता है, कि वीग़र लोग बदलने या सुधरने लायक़ ही नहीं हैं. ऐसी सूरत में कुछ ‘नतीजे’ सामने आ सकते हैं- एक ऐसा शब्द जो लगता है कि चीनी अधिकारियों को पसंद है. और दुनिया ये दावा नहीं कर सकती, कि वो डाकाओ की अनदेखी के नतीज़ों, या उस ‘समाधान’ से वाक़िफ नहीं थी, जो डाकाओ के वारिसों ने पेश किया था.

एक दलील ये दी जा सकती है कि एतिहासिक समानताएं, सिर्फ वही नहीं हैं जिनका संबंध शी के चीन और हिटलर के जर्मनी के एक जैसा दिखने से है. इन समानताओं का ताल्लुक़ बाक़ी दुनिया की प्रतिक्रियाओं से भी है, जिसमें ज़ाहिर है कि पश्चिम भी शामिल है, और इस बात से भी है कि बीजिंग में बैठे मैंडेरिन्स, इन प्रतिक्रियाओं को कैसे पढ़ रहे हैं. जब डाकाओ स्थापित किया गया, तो किसी ने जर्मनी के साथ अपने कूटनीतिक रिश्ते नहीं तोड़े. क्या अभागे वीग़र लोग वास्तव में दुनिया के मानवाधिकार प्रेमियों से किसी कार्रवाई की उम्मीद कर रहे थे? बीजिंग में किसी ने शिथिल लोकतंत्रों के लापरवाह रुख के बारे में पढ़ लिया है, जिसे 1930 के दशक के जर्मन विचारकों ने अभिव्यक्ति दी थी.


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चीन बहुत जल्दी में है, जर्मनी भी ऐसा ही था

‘जल्दी में है’ की समानता भी ग़ौर करने लायक़ है. ज़ाहिरी तौर पर, हिटलर को लगता था कि अगर वो तेज़ी से आगे नहीं बढ़ा, तो मित्र राष्ट्र ज़्यादा ही ताक़तवर हो जाएंगे. चीनी रणनीतिज्ञों को भी शायद लगता है कि उन्हें तेज़ी से आगे बढ़ने की ज़रूरत है, इससे पहले कि उसकी आबादी घटने लगे, या चीन पश्चिम की मौजूदा अव्यवस्था, और गड़बड़ी से पैदा हुए अवसर को गंवा दे.

1937 में, जापान पहले ही मंचूरिया, कोरिया, शैंगडॉन्ग और शांघाई के अधिकांश हिस्से के नियंत्रण में था. कोई ज़रूरत नहीं थी कि मार्को पोलो ब्रिज पार करके, चीन पर हमला किया जाए. लेकिन जापानी सैन्य अधिकारी जल्दी में थे. अब, जब चीन ने हॉन्ग कॉन्ग को हज़म कर लिया है, और न्यूनतम अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया के साथ, वीग़र लोगों को बंदी बना ही लिया है, तो फिर एक या दो साल इंतज़ार क्यों न कर लें, ताकि दूसरे सेब भी टोकरी में आ जाएं? ऐसा लगता है कि बीजिंग में ऐसे विचारकों का समूह ज़रूर मौजूद है, जिसका मानना है कि जल्दबाज़ी करना उचित है, और एंग्लो-क्षेत्र में (यूरोप में न सिर्फ कमज़ोर सरकारें, बल्कि आम जानता भी ख़ौफनाक हद तक ख़ामोश है), जनता की राय से अलगाव का जोखिम उठाया जा सकता है.

अमेरिका के लिए रूस अभी भी एक महत्वपूर्ण विरोधी है

हो सकता है कि ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में, आम राय चीनियों के खिलाफ होने लगी हो, लेकिन अमेरिका के विद्वान और प्रभावशाली हलक़े, अभी भी रूस को ही ज़्यादा अहम विरोधी मानते हैं, जिससे चीन को खुला घूमने का मौक़ा मिल जाता है. ये एक और एतिहासिक समानता है. ब्रिटेन का टोरी अभिजात वर्ग, सोवियत यूनियन को नाज़ी जर्मनी से बड़ा शैतान मानता था. पश्चिम ने स्टालिन को हटलर की बांहों में जाने के लिए मजबूर कर दिया, जो हैरानी की हद तक वही तरीक़ा है, जिसमें पुतिन के रूस के पास, चीन से नज़दीकी बढ़ाने के अलावा, कोई चारा नहीं बचा है. रूस के साथ ये गहरी नफरत जिसके नतीजे में, वो लापरवाही के साथ ज़्यादा ताक़तवर और आक्रामक चीन पर मेहरबान हो जाते हैं, पश्चिमी अभिजात वर्ग के उसी रुख़ का दूसरा नमूना है.

पोलैण्ड के लोगों को एक गंभीर गारंटी, और उनकी ज़िद्दी कट्टरता को बढ़ावा देने के बाद, ब्रिटेन और फ्रांस ने क्या किया, जब जर्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया? एक भी फ्रांसीसी या ब्रिटिश पैराट्रूपर पोलैण्ड में नहीं उतारा गया. रॉयल नेवी ने डांज़िग तक पहुंचने का ज़रा सा भी प्रयास नहीं किया. बहादुर पोल्स को दुष्ट जर्मन्स के सामने अकेला छोड़ दिया गया. लेकिन जब रूस ने फिनलैण्ड पर हमला किया, तो अचानक, ब्रिटिश सैनिक और शाही वायुसेना (आरएएफ) के विमान, जिनकी ज़ाहिरी तौर पर किसी दूसरी जगह सख़्त ज़रूरत थी, दुष्ट रूसियों से लड़ने के लिए, बहादुर फिन्स के पास भेज दिए गए. मेरी पीढ़ी के लोग जो बिगल्स के फैन थे, याद कर सकते हैं कि आरएएफ के तेज़ और फुर्तीले बिगल्स फ्निस की मदद को भेजे गए थे.

विडम्बना ये है कि अमेरिकी श्रमिक वर्ग (उसका जो भी बचा है) जिसे हिलेरी क्लिंटन ने कभी “निंदनीय” कहा था, वही चीन विरोधी लगता है. अगर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए, तो दोनों तटों पर रहने वाले अभिजात लोग समझौते के इच्छुक हो सकते हैं. ‘महान’ पत्रिका फॉरेन अफेयर्स अभी भी रूस के ख़तरे, और चीन के साथ ‘एंगेज’ होने की तथाकथित ज़रूरत का राग अलापती रहती है. मन में विचार आता है कि नए ढंग के इस शब्द ‘एंगेज’ की रहस्यमयी तुकबंदी, पुराने शब्द ‘अपीज़’ (मनाने) के साथ तो नहीं बैठती. ब्रिटेन के श्रमिक वर्ग का विंस्टन चर्चिल को समर्थन, जबकि उनकी अपनी पार्टी के वरिष्ठों को, जर्मनी के साथ सौदा करने में कोई दिक़्क़त नहीं थी- ये समानता काफी हैरान करती है.


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समानताओं का भी अपना महत्व है

भारत के अभिजात वर्ग के कुछ लोग, ये दलीलें भी दे सकते हैं कि चीन को चिढ़ाना वांछनीय या व्यवहारिक नहीं है. रुडयार्ड किपलिंग की इस चेतावनी को याद रखना चाहिए, कि अगर एक बार लोग डेन-जेल्ड ( हमले और लूट से बचने के लिए हमलावरों को भेंट) देना शुरू कर दें, तो फिर इसका कोई अंत नहीं होगा, और शांति पसंद लोगों को ये कड़वा घूंट पीते रहना पड़ेगा.

हो सकता है इतिहास अपने आपको न दोहराए, लेकिन समानताओं का भी अपना महत्व होता है. जब मुसीबत आएगी, तो पश्चिमी नेताओं की तमाम लच्छेदार बातों के बावजूद, भारत काफी हद तक अकेला ही खड़ा होगा. शुभकामनाएं, गारंटियां या सांकेतिक नक़ली बिगल्स किसी काम के नहीं होंगे. पोलैण्ड का सोचिए. फिर भी, एक और समानता है, जिसपर चीनी कमिसार ग़ौर करना पसंद कर सकते हैं. पोलैण्ड ने घुटने टेक दिए थे. सोवियत यूनियन ने घुटने नहीं टेके, और जब जर्मन जनरल हायंज़ गुडेरियन मॉस्को के नज़दीक था, तो सोवियत लोगों ने पलटकर हमला कर दिया. अकेला पड़ गए भारत को भी अंत में कुछ इसी तरह की बहादुरी दिखानी पड़ सकती है.

जैसा कि पोर्शिया कहती थी, ‘एक मिनट ठहरो, मार्को पोलो. क्योंकि इसके कुछ नतीजे हो सकते हैं’. हाल ही के एक कॉलम में, अनंत नागेश्वरन ने वास्तव में भारत का अह्वान किया है, कि आज के इस विशालकाय अधिनायक के सामने दृढ़ता के साथ डटकर खड़ा हो. उन जैसे स्तंभकारों को और शक्ति मिले.

(लेखक उद्यमी और लेखक है, यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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