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Thursday, 26 December, 2024
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पहलवानों का प्रदर्शन दिल्ली के शहरी क्लास के लिए निर्भया कांड जैसा नहीं, यौन हिंसा पर लोग पक्षपाती हुए

जबकि राष्ट्रवादी तबके से 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' जैसी बयानबाजी होती रहती है, मोदी सरकार की चुप्पी ने दिखाया है कि भारत में लैंगिक समानता और सुरक्षा मूल चिंता नहीं है.

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सोमवार को साक्षी मलिक, बजरंग पुनिया और विनेश फोगट जैसे ही अपनी रेलवे की नौकरी पर लौटे, पिछले छह हफ्तों में एक बात बहुत स्पष्ट हो गई है कि चाहे वह उन्नाव बलात्कार कांड हो या पहलवानों का विरोध अब महिलाओं के खिलाफ बलात्कार और यौन हिंसा की मजबूती के साथ उपेक्षा जारी रहेगी.

महिला पहलवानों के विरोध पर सत्तारूढ़ भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार की चुप्पी अब पूरी तरह से स्पष्ट है. इसके विपरीत, सोशल मीडिया भारत की महिला पहलवानों के लगातार यौन उत्पीड़न करने के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह की तमाम कहानियों से अटा पड़ा है. सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान की बहुत कुछ कहने वाली चुप्पी अजीब है लेकिन इससे राजनीतिक लाभ मिल सकता है.

मोदी सरकार ने औपचारिक धूमधाम के साथ और खुद की खोजी हुई परंपराओं के साथ अपनी सत्ता के नौंवे वर्ष में प्रवेश किया, जिसने मोदी को एक नए भारत के सम्राट के रूप में पेश किया. एक बार के लिए, और शायद आने वाली चीजों के संकेत के रूप में, भारत का राजनीतिक विपक्ष इस हाई-वोल्टेज पावर प्ले के बहिष्कार में एकजुट दिख रहा था क्योंकि यह औपचारिक कार्यवाही से बाहर बैठा था. तमाम धूमधाम, दिखावा और राजनीति के बावजूद, मोदी के इस महत्त्वपूर्ण पल को विपक्ष नहीं बल्कि मुट्ठी भर महिला पहलवानों की वजह से फीका पड़ गया. इस बीच संगीता फोगट और उनके सहयोगियों की सशस्त्र पुलिस द्वारा जबरन ज़मीन पर गिराए जाने की तस्वीरें सामने आईं, क्योंकि उन्हें दिल्ली के जंतर-मंतर पर विरोध के अपने चुने हुए स्थान से हिंसक रूप से बाहर कर किया जा रहा था. यह उस उच्च-हिंदू सनातन छवि के विपरीत था जो कि पार्लियामेंट उद्धघाटन के वक्त दिखाया जा रहा था.

दिखावे के इवेंट और महिला रेसलर्स का विरोध प्रदर्शन दोनों एक ही दिन होने और इन तस्वीरों के सामने आने की घटना ने महिला पहलवानों और मोदी सरकार को टकराव के रास्ते पर खड़ा कर दिया है. प्रथम दृष्टया क्षेत्रीय और जाति के संदर्भ में टकराव तेजी से सामने आ रहा है, जो केवल यह संकेत देता है कि महिलाओं का मुद्दा अपनी शर्तों पर राजनीतिक बनने से बहुत दूर है. ऐसा लगता है कि महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न और यौन हिंसा भारत की जाति, वर्ग और धार्मिक राजनीति की कसौटी पर खरी उतरती दिख रही है. सुनिश्चित करने के लिए महिलाएं और लैंगिक मुद्दे परस्पर जुड़े हुए हैं. फिर भी भाजपा द्वारा चुप्पी की राजनीति यौन हिंसा को पूरी तरह से वर्गीय और पक्षपातपूर्ण बनाने के क्रूर प्रयास का प्रमाण है.

वर्गीय एकता?

अब छह सप्ताह से अधिक समय हो गया है जब भारत की शीर्ष महिला पहलवान सार्वजनिक रूप से आंदोलन कर रही हैं, प्राथमिकी दर्ज कर रही हैं, और स्थानीय दिग्गज व भारतीय कुश्ती महासंघ (डब्ल्यूएफआई) के अध्यक्ष व भाजपा सांसद, बृज भूषण सिंह को निशाने पर ले रही हैं. विश्लेषकों और सोशल मीडिया पर लोगों द्वारा लिखी जा रही पोस्ट इस ओर इशारा करती है कि मोदी की चुप्पी बताती है कि छह बार के सांसद बृजभूषण शरण सिंह से राजनीतिक लाभ मिल सकता है.


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आप स्थानीय गुटों की हमेशा-बदलने वाली शतरंज की बिसात में उनका मूल्य जोड़ या घटा सकते हैं, या वर्तमान मुख्यमंत्री, आदित्यनाथ के संबंध में उनका मूल्य, या कि वे प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी के टिकट पर पहले भी जीत चुके हैं. हालांकि, बृजभूषण शरण के मामले में आपको यह स्पष्ट आभास होगा कि वह एक ऐसे राजनीतिक खिलाड़ी हैं जिसे केवल स्थानीय बाहुबल में मापा जा सकता है, और जिसमें वह किसी से भी पीछे नहीं हैं. जी हां, अगर आपने ध्यान नहीं दिया तो जान लीजिए कि बृजभूषण सिंह बाहुबली हैं. यह यौन उत्पीड़न के पहले से ही मौजूद मामलों में हिंसक पक्ष को जोड़ता है, जिससे कार्यस्थल पर लैंगिक संबंधों पर भारत के विशाखा दिशा-निर्देश बहुत हल्के और अप्रभावी दिखते हैं.

महिला पहलवानों के साथ किसानों के विरोध के प्रमुख नेता राकेश टिकैत ने सबसे ज्यादा एकजुटता और समर्थन दिखाया है. टिकैत और उनकी भारतीय किसान यूनियन ने न केवल बृजभूषण की तत्काल गिरफ्तारी की मांग की है, बल्कि सार्वजनिक रूप से पहलवानों का समर्थन करके, कम से कम, बृजभूषण के सार्वजनिक रूप से अपने शक्ति प्रदर्शन के प्रयासों को भी बाधित किया है, जिसके कारण उन्हें पिछले सप्ताह एक रैली रद्द करनी पड़ी.

अब पहलवानों के समर्थन में उतरे टिकैत और उनके साथियों की संख्या, विशेष रूप से हरियाणा के जाट बहुल खाप पंचायतों में दोगुनी हो गई है. हरियाणा की कई खाप पंचायतों के साथ टिकैत का समर्थन जबरदस्त है. यह कुछ प्रमुख क्षेत्रीय और जातिगत पैटर्न को दोहराता है, जिन्होंने किसानों के विरोध को सफल बनाया. हमें यहां यह याद रखने की जरूरत है कि किसानों के विरोध की दृढ़ता और गहराई की वजह से ही पीएम मोदी को दो अपनी नीतियों से पीछे हटना पड़ा था. भाजपा के पूर्व मंत्री और हरियाणा के जाट नेता बीरेंद्र सिंह द्वारा चुप्पी तोड़ते हुए पहलवानों के पक्ष में बोलना दिखाता है कि महिला खिलाड़ियों के विरोध को और ज्यादा बल मिल रहा है.

राजधानी में सबसे प्राइम पोलिटिकल जगह पर 6 हफ्ते तक विरोध प्रदर्शन के बावजूद, इसने दिल्ली के शहरी मध्य वर्ग के लोगों को अपनी तरफ नहीं खींचा. जबकि सामाजिक और मुख्यधारा की मीडिया आक्रोश, कमेंटरी और एकजुटता दिखाने से अटा पड़ा है, वहीं मोदी-पूर्व युग के विपरीत कुछ ही या न के बराबर कैंडल लाइट मार्च हुए हैं जिसमें लोग शामिल हुए हों. जो कि मोदी के पहले के समय में यौन हिंसा व बलात्कार के कल्चर के खिलाफ विरोध का एक सामान्य तरीका हुआ करता था.

हालांकि क्रिकेट जैसे अन्य खेलों के प्रसिद्ध खिलाड़ी कुछ खास मुद्दों पर चुप रहने के लिए आलोचना का सामना कर चुके हैं, लेकिन यह हैरानी की बात है कि सामान्य लोगों की ओर से क्यों कोई मजबूत समर्थन की लहर नहीं उठी. क्या शहरी मध्यम वर्ग अस्थिर, असंगत है या बस सिर्फ उसको किसी बात की कोई परवाह नहीं है?

तार्किक रूप से, यह भी विचारणीय है कि आमजन की भागीदारी की कमी का क्या महिलाओं की सामाजिक स्थिति से भी कुछ लेना-दना है क्योंकि विरोध करने वाली महिला पहलवान पिछड़े ग्रामीण पृष्ठभूमि से आती हैं, जो सभी तरह की बाधाओं से जूझकर यहां पहुंची हैं और क्या यह दिल्ली की महिलाओं के लिए यह समझ से परे है? इसका सीधा उत्तर देना कठिन है, लेकिन शहरी एकजुटता का सामान्य अभाव बहुत ध्यान देने वाली बात जरूर है, भले ही आसानी से इसका पता लगाना मुश्किल हो. हालांकि, विरोध करने वाले पहलवानों को जंतर-मंतर से जबरन हटाकर सत्तारूढ़ व्यवस्था ने व्यापक जनसमर्थन की संभावना को जन्म दे दिया है.

क्रूर चुप्पी और पक्षपातपूर्ण लोग

अगर दिल्ली के शहरी नागरिक राजनीतिक मैदान पर नहीं दिख पाए हैं तो भी किसानों के विरोध और पहलवानों के बीच उभरते गठबंधन इसे पूरी तरह से राजनीतिक और अपरिहार्य बना देगा. गृहमंत्री अमित शाह और विरोध प्रदर्शन करने वाली साक्षी मलिक जैसी महिला पहलवानों के बीच हुई हालिया मुलाकात अब इस बात का संकेत देती है कि विरोध कुछ अर्थों में राजनीतिक है.

जहां पहलवानों का मकसद किसानों के आंदोलन से फिर से समर्थन जुटाने की कोशिश करना होगा, वहीं बीजेपी भी इसे पार्टी के हित के हिसाब से धड़ों में बांटने की कोशिश करेगी. चुप्पी और गतिरोध एक बार फिर से भारत की महिलाओं और नारीवादी चिंताओं की केंद्रीय समस्या को उजागर करता है, जिसमें उनकी राजनीतिक शक्ति का परीक्षण किया जाता है और अन्य मुद्दों, विशेष रूप से धर्म या सांप्रदायिकता की तुलना में पीछे कर दिया जाता है. इस मामले में, 2012 के दिल्ली गैंगरेप को मिला क्रॉस-पार्टी राष्ट्रीय और शहरी समर्थन एक मॉडल के बजाय सिर्फ एक अपवाद है.

नौ साल के मोदी युग में, बलात्कार और यौन हिंसा नियमित रूप से सामने आई है. और जबकि राष्ट्रवादी तबकों ऊंची आवाजो में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ के नारे लगाए जाते हैं, तब पहलवानों के मामले पर चुप्पी ने दिखाती है कि भारत में लैंगिक समानता और सुरक्षा सार्वभौमिक चिंताएं नहीं हैं. किसी को केवल ‘लव जिहाद’ के जोरदार नारों पर नज़र रखना होगा जिस पर इस वक्त में आसानी और तेज़ी से लोग लामबंद हो जाते हैं. ‘लव जिहाद’ को लेकर भले ही सोशल मीडिया पर खूब हलचल और दो धड़ों में बंटे हों लेकिन इसकी असली ताकत लैंगिक समानता को एक सांप्रदायिक मुद्दे में बदलने में निहित है.

इस राजनीतिक संदर्भ में, पहलवानों को लगातार जिस व्यापक उपेक्षा और चुप्पी का सामना करना पड़ा है उसे सिर्फ उदासीनता नहीं मानना चाहिए. बल्कि उनका संघर्ष इस पर चुप्पी दिखाता है कि भारत का अति-प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र में पक्षपातपूर्ण है. इन सबसे ऊपर, यह इस धारणा को जन्म देता है कि लैंगिक समानता को अधिक समर्थन मिलेगा, अन्य सांप्रदायिक और यहां तक कि जातिगत पहचान की चिंताओं से बंधी होगी, लेकिन इसके अपने आप में राजनीतिक और शक्तिशाली बनने की संभावना नहीं है. भारतीय लोकतंत्र की किस्मत चाहे जो भी हो, यह वास्तव में भारतीय महिलाओं के लिए बहुत बुरा संकेत है.

(श्रुति कपिला कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में इतिहास और राजनीति की प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @shrutikapila है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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