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Saturday, 4 May, 2024
होममत-विमतभीड़ वाली जगहों से न हटाए गए तो कोरोना बम बन जाएंगे प्रवासी गरीब

भीड़ वाली जगहों से न हटाए गए तो कोरोना बम बन जाएंगे प्रवासी गरीब

बड़े शहरों की घनी बस्तियों और गरीबों के लिए बनाए गए कैंपों में रह रहे लोगों को उनके ठिकाने तक पहुंचाना अब प्राथमिकता का कार्य बन जाना चाहिए.

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लॉकडाउन की अवधि बढ़ने के साथ ही अब यह साफ होता जा रहा है कि केंद्र सरकार ने इसकी घोषणा बगैर सोचे समझे की थी या फिर मुमकिन है कि उसने इसके जैसे असर की कल्पना की होगी, उसकी तुलना में हालात ज्यादा बिगड़ गए.

देश में कोविड-19 से संक्रमित लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है और जनता की समस्याओं को देखते हुए राज्य सरकारें घबराई हुई हैं. अगर विभिन्न राज्यों में फंसे श्रमिकों का इंतजाम नहीं किया गया और सिर्फ रेड जोन में भी लॉकडाउन जारी रखा गया तो भारत भारी मुसीबत में फंस सकता है.

विस्थापित मजदूरों का संकट

भारत में 1991 के बाद से रोजगार के लिए बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है. विदेश में ही नहीं, बल्कि देश के भीतर भी रोजगार की तलाश में लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते हैं. महाराष्ट्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक लॉकडाउन के बाद सरकार द्वारा बनाए गए कैंपों में करीब साढ़े 6 लाख मजदूर रह रहे हैं और करीब इतने ही मजदूर निजी संस्थाओं द्वारा बनाए गए कैंपों में रह रहे हैं. वहीं, दिल्ली सरकार स्कूलों और अस्थायी कैंपों में मजदूरों को रहने व खाने की सुविधा मुहैया करा रही है. दिल्ली सरकार कैंपों में योग सिखाने की जानकारी तो दे रही है, लेकिन कोई ठोस आंकड़ा नहीं आया है कि राज्य में कितने मजदूरों को कैंपों, स्कूलों व राहत शिविरों में रहना पड़ रहा है. केंद्र सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा करते समय शायद यह विचार नहीं किया था कि देश में इतनी बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनके पास शहर में रहने-खाने का इंतजाम ही नहीं है.

इन कैंपों में शहरों के उस तबके के लोग रह रहे हैं, जो अगर कुछ दिन भी काम न करें, तो भुखमरी के शिकार हो जाएंगे. इनके पास इतनी बचत भी नहीं थी कि जिससे वे एक महीने तक भी अपने-अपने ठिकानों में रह लें. ये कैंपों में इसलिए रह रहे हैं क्योंकि वहां उन्हें खाना मिल जा रहा है और इस खाने को लेने के लिए उन्हें कई बार लंबा इंतजार करना पड़ रहा है. जाहिर है कि वे वहां बेहद मजबूरी में रह रहे हैं.

पैदल यात्रा और कोटा के विद्यार्थी

लॉकडाउन की पहली घोषणा के दूसरे दिन ही दिल्ली, सूरत, मुंबई से लाखों की संख्या में मजदूर अपने घरों की ओर पैदल ही चल पड़े. सामान, बच्चों, महिलाओं के साथ हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा का लक्ष्य लेकर निकले लोगों को घर पहुंचाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने बड़े पैमाने पर इंतजाम किया और बसें चलाईं. इसी तरह कोटा में फंसे विद्यार्थियों को निकालने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने करीब 300 बसें भेजीं. उसके बाद हरियाणा, छत्तीसगढ़ , महाराष्ट्र  सहित कई अन्य राज्यों ने भी कोटा में बसें भेजीं, जिससे विद्यार्थियों को निकाला जा सके. हरिद्वार से गुजरात के तीर्थयात्रियों को निकालने के लिए विशेष बसें चलाई गईं. उच्चतम न्यायालय में केंद्र सरकार की ओर से दिए गए आंकड़ों के मुताबिक करीब 6 लाख लोग पैदल चलकर अपने पैतृक आवास गए.

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राज्य सरकारें अपने राज्य के भीतर दूसरे जिलों में फंसे लोगों को भी ढील दे रही हैं, जिससे लोग अपने घरों तक सुरक्षित पहुंच सकें.

कोरोना फैलने का कारण बन सकते हैं मजदूर

कोविड-19 का इलाज भले नहीं खोजा जा सका है, लेकिन यह साफ है कि यह बहुत तेजी से फैलने वाला छूत का रोग है. भारत में जो भी मजदूर औद्योगिक क्षेत्रों में फंसे हैं, उनका बुरा हाल है. हाल के तीन दशकों में श्रमिकों के आवास की व्यवस्था फैक्टरी लगाते समय न किए जाने की वजह से कम वेतन पर काम करने वाले श्रमिक उस शहर के सबसे सस्ते इलाकों और झुग्गियों में रहने को मजबूर होते हैं. दिल्ली-एनसीआर में सैकड़ों की संख्या में अवैध कॉलोनियां हैं, जहां घनी आबादी रहती है. कम जमीन पर बनी माचिस के डब्बे नुमा इमारतों और संकरी गलियों में करोड़ों की संख्या में लोग रहते हैं.

इसी तरह मुंबई स्थित देश के सबसे बड़े स्लम धारावी का हाल है. धारावी में बड़ी संख्या में एमएसएमई और कुटीर उद्योग है, जहां लोगों को रोजगार मिला है. ऐसे इलाकों में एक ही कमरे में 4-5 या बड़ा कमरा मिलने पर 10 तक मजदूर रहते हैं. कई इलाकों में ये मजदूर शिफ्ट में सोते हैं. बंदी की वजह से वह एक ही कमरे में दिन-रात रहने को मजबूर हैं.


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मुंबई की धारावी और दिल्ली के मंडावली इलाके में कोरोना पहुंच चुका है. अगर इन विस्थापित मजदूरों को उन इलाकों से निकालकर कहीं और नहीं पहुंचाया गया तो यह श्रमिक कोरोना बम बन जाएंगे. यह न सिर्फ उनके स्वास्थ्य के लिहाज से घातक होगा, बल्कि उनके अंदर पूरी क्षमता है कि उनसे होते हुए ये संक्रमण बड़ी आबादी में फैल जाए.

शुरुआत में तेज न फैलने की वजह

सरकार यह प्रचारित कर रही है कि लॉकडाउन की वजह से कोरोना का प्रसार कम रहा. यह आंशिक सत्य है. हकीकत तो यह है कि जनवरी से मार्च के बीच करीब 15 लाख लोग दूसरे देशों से भारत आए, जिनमें से कई लोग कोरोना लेकर आए. इनमें से कुछ को क्वारेंटीन किया गया, जबकि तमाम लोग वैसे ही घूमते-टहलते रहे. एक तकनीकी समस्या पूरी दुनिया में आई और वह भारत में भी रही. शुरुआत में विदेश से आए लोगों में कोरोना के लक्षण नहीं दिखे. लेकिन 21 दिन के बाद वह संक्रमित पाए गए और जांच के बाद इसकी पुष्टि हुई.

शुरुआती महीनों में कोरोना न फैलने की एक बड़ी वजह यह है कि जो लोग विमान से चलते हैं, वह सामान्यतया अपर मिडिल क्लास के हैं. वह झुग्गियों में नहीं रहते और अवाम से उनका संपर्क भी कम रहता है. यह बड़ी वजह लगती है, जिसके कारण भारत में कोरोना तेजी से नहीं फैला. अब यह धारावी जैसे इलाकों में पहुंच गया है, जहां सघन जनसंख्या है. यह ऐसे लोग हैं, जो एक या दो कमरे में परिवार के साथ रहते हैं. अब खतरा ज्यादा है.

लंबे समय तक कोरोनावायरस फैलाने का ठीकरा तबलीगी जमात के सिर फोड़ा जाता रहा. देश भर में तबलीगी लोगों की धर पकड़ होने लगी और जांच में कुछ को कोरोना संक्रमित पाया भी गया. अब विदेश से आए उन 15 लाख लोगों के माध्यम से कोरोना जोर पकड़ रहा है, जो तबका आर्थिक रूप से संपन्न है.


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भारत के सामने बड़े बड़े लेबर क्लस्टर जैसे अहमदाबाद, सूरत, मुंबई आदि से ही नहीं बल्कि विदेश से भी मजदूरों को निकालकर सुरक्षित जगहों पर पहुंचाने का दबाव है. अगर हम विदेश में रहने वाले लोगों के आंकड़े देखें तो करीब 89,04,301 प्रवासी भारतीय (एनआरआई) और भारतीय मूल (पीआईओ) के लोग रहते हैं. इनमें से आधे से जयादा लोग खाड़ी देशों में रहते हैं. संयुक्त अरब अमीरात में 34 लाख लोग, सऊदी अरब में 26 लाख, कुवैत में 10 लाख, ओमान में लगभग 8 लाख, कतर में 7 लाख और बहरीन में 3 लाख से ज्यादा लोग रहते हैं. खाड़ी देश में रहने वाले भी ज्यादा संख्या में मजदूर हैं, जो एक ही कमरे में कई लोग रहकर वहां रोजी रोटी कमाते हैं. उन देशों में बंदी की वजह से ऐसे लोगों के पास खाने को पैसे भी नहीं बचे हैं. अमेरिका, यूरोप सहित खाड़ी देशों से खबरें आ रही हैं कि भारतीय समुदाय में कोरोनावायरस तेजी से फैल रहा है.

सरकार को इन सभी फंसे हुए मजदूरों को अब उनके घर या ऐसी जगह पहुंचाना है, जो एक दूसरे से कम से कम 5 मीटर की दूरी पर रह सकें. गांवों में इस तरह रहना संभव भी है, जिसकी शहरों में कल्पना भी नहीं की जा सकती है. कोरोनावायरस और बंदी न सिर्फ स्वास्थ्य संबंधी, बल्कि अब एक मानवीय आपदा बन चुकी है.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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