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Tuesday, 19 November, 2024
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हमें पहली महिला पीएम से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, संसद में समान प्रतिनिधित्व जमीन पर उतारा जाए

भारत को तब तक राजनीतिक रूप से सशक्त नहीं किया जा सकता है जब तक कि दोनों सदनों में स्त्री पुरुष का 50-50 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व न हों.

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राजनीतिक भागीदारी क्या है? राजनीतिक भागीदारी का मतलब न केवल वोट के अधिकार का प्रयोग करना है, बल्कि राज्य के सभी स्तरों पर सत्ता के बंटवारे, सह-निर्णय लेना, सह-नीति बनाना भी है जिससे प्रमुख रूप से भारतीय नारियां वंचित हैं- आइये इससे जुड़े तमाम पहलुओं और समस्याओं पर गहन चर्चा करें.

1947 से भारत एक लोकतांत्रिक देश रहा है, हमारे देश का पहला चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक हुआ. हालांकि, लोकतांत्रिक स्थापना के बाद से अब तक भारत में केवल एक महिला प्रधानमंत्री और एक महिला राष्ट्रपति बनीं. 31 राज्यों में से, भारत के 18 राज्यों में कभी कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं रही. लोकसभा में केवल 66 महिला सदस्य हैं, जो सदन की कुल ताकत का मुश्किल से 12.15% है. जबकि राज्यसभा में मात्र, 33 महिला सदस्य हैं, जो सदन की कुल ताकत का 12.7% हैं.

2014 में हुए पिछले आम चुनावों के आंकड़ों के अनुसार, भारत में केवल 66% महिलाओं ने मतदान में भाग लिया. इसलिए, महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के लिए भारत वैश्विक स्तर पर नीचे से 20 वें स्थान पर है. भारत सरकार ने संसद में महिलाओं की प्रतिभागिता बढ़ाने के लिए महिला आरक्षण, महिला वित्त पोषण आदि जैसे विभिन्न उपाय किए हैं. हालांकि, ये उपाय लिंग असमानता के इतिहास का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.


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भारत की महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी के तहत कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. प्रमुख चुनौतियां शोषण और भेदभाव हैं. आरक्षण होने के बाद भी, दलित महिलाएं हिंसा की धमकियों से चुनावों से बाहर रहने को मजबूर हैं. चुनावों के लिए खड़ा होना इन महिलाओं के लिए एक लंबी सड़क है, क्योंकि उन्हें मतदान करने का मौलिक अधिकार भी नहीं दिया जाता है.

दूसरी बड़ी चुनौती अशिक्षा है. भारत में ज्यादातर महिलाएं अपने अधिकारों और कानूनों से अनजान हैं. वे सूक्ष्म स्तर पर एक अर्थव्यवस्था की समस्याओं के बारे में जानती हैं, जो उनकी संसाधन कुशलता और कौशल को जोड़ता हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था की वृहद स्तर की समस्याओं के बारे में बहुत कम जानकारी होने से महिलाओं को नुकसान होता है. इसके परिणामस्वरूप अन्य लोग उनके लिए अपने निर्णय लेते हैं और इस प्रकार भले ही महिलाएं वोट देती हैं, लेकिन उनके फैसले का पुरुष आबादी में व्यापक रूप से वर्चस्व है.

हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली से महिला राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए शिल्पी अरोरा ने राष्ट्रीय स्तरीय एक जोरदार पहल की. शिल्पी ने इस महत्वाकांक्षी अभियान का नाम ‘अब है मेरी बारी’ रखा है. हाल ही में इस अभियान को धरातल पर लाने के लिए दिल्ली में एक राउंड टेबल चर्चा का आयोजन किया गया जिसमें तमाम राजनितिक दलों के दिग्गज नेताओं ने शिरकत की और अपना मंतव्य रखा. साथ ही इस चर्चा का निष्कर्ष लिखित चिट्टी के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर एवं राज्य स्तर के मुख्य राजनितिक दलों को भेजा गया. उन्हें नारी भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए उचित प्रयासों के लिए अग्रसर होने का सुझाव दिया गया. ऐसी सभाओं का आयोजन होना बहुत ही आवश्यक है ताकि समाज को नारी शक्ति और राजनीतिक क्षमता से जुड़ा रख सकें.

चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, 1952 में आजादी के बाद पहले यूपी विधानसभा चुनाव में 20 महिलाओं को चुना गया था. उसके बाद भी सदन में उनकी उपस्थिति निम्न रही. 1985 में 31 महिलाएं निर्वाचित हुईं, लेकिन 1989 में यह संख्या 18 तक गिर गई, और आगे 1991 में 10 हो गई. 1993 में 14 महिलाएं चुनी गईं, एक संख्या जो 1996 में बढ़कर 20 और 2002 में 26 हो गई. हालांकि, 2007 में, उनकी संख्या केवल तीन तक गिर गई. विडंबना यह है कि उस समय एक महिला (मायावती) सदन की नेता थीं.

भारतीय इतिहास में रिकॉर्ड 40 महिला उम्मीदवारों ने 2017 के  उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जगह बनाई है और यह 403 सदस्यीय सदन में महिला सदस्यों का उच्चतम अनुपात है. सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने मिलकर 403 सदस्यीय सदन के लिए 96 महिलाओं को मैदान में उतारा था. समाजवादी पार्टी की एक महिला उम्मीदवार भी चुनी गई हैं. बीजेपी ने 43 महिलाओं को टिकट दिया था, सभी पार्टियों में सबसे ज्यादा. 2012 में पिछले चुनावों में, 35 महिलाओं को चुना गया था, जो कि पहले का रिकॉर्ड था.

महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने भारतीय महिलाओं को राजनीति के खुले मैदान में प्रवेश करने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी के महत्व को पहचाना. उन्होंने कहा, ‘अहिंसात्मक संघर्ष में, महिलाओं को पुरुषों से जयादा लाभ होता है, क्योंकि महिलाएं किसी भी तरह से अपनी धार्मिक भक्ति में पुरुषों से बेहतर होती हैं. मूक और सम्मानजनक सेवा उनकी लैंगिक क्षमता है.’

सत्ता के पदों से महिलाओं की बहार रखना गंभीर रूप से महिलाओं की अधीनता को चुनौती देने की क्षमता को प्रभावित करती है. लगभग आधी आबादी वाली महिलाओं को निर्णय लेने वाले निकायों में महत्वपूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व करने की आवश्यकता है. अन्यथा विकास का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता है. किसी भी समाज की प्रगति के लिए लैंगिक समानता बहुत आवश्यक है.

सरकार को इन चुनौतियों से पार पाने के लिए निश्चित उपाय करने की साथ ही अब है मेरी बारी जैसी निजी अभियानों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.

महिलाओं के बीच समग्र साक्षरता को बेहतर बनाने के लिए पहला कदम अधिक प्रभावी तरीकों में शामिल हो सकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष अभियान और कार्यशालाएं आयोजित की जा सकती हैं जो ग्रामीण महिलाओं में उनके अधिकारों, वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों, समाधानों आदि के बारे में जागरूकता पैदा करती हैं. राजनीतिक दल इन क्षेत्रों में अभियान चला सकते हैं और बोल-चाल की भाषा में अपनी नीतियों और लाभों को समझा सकते हैं ताकि महिलाएं बिना किसी प्रभाव के, सूचित मतदान करें.


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उन्हें महिलाओं को आगे आने और सामाजिक मुद्दों के बारे में बोलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, जिन मुद्दों का वे दैनिक आधार पर सामना करती हैं और उन मुद्दों को हल करने के संभावित तरीकों पर अपनी राय प्राप्त करती हैं. निचली जातियों की महिलाओं को न केवल मतदान के लिए आगे आने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, बल्कि स्थानीय चुनावों में भी खड़ा होना चाहिए.

भारत को तब तक राजनीतिक रूप से सशक्त नहीं किया जा सकता है जब तक कि दोनों सदनों में स्त्री पुरुष का 50-50 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व न हों. केवल न्यूनतम आरक्षण, और व्यापक प्रचार से समस्या हल नहीं होगी. हमें महिला नेतृत्व के बारे में अपनी विचारधारा को बदलना होगा. लोगों को केवल पहली महिला प्रधानमंत्री से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, यह एक उच्च समय है कि इस समस्या का निवारण ढूंढ़ा जाय और पुरुषों और महिलाओं की समान संसद प्रतिनिधित्व की सफल योजना धरातल पर उतारी जाए.

(अनु बजाज यूपी की समाजिक कार्यकर्ता हैं और ये उनके निजी विचार हैं.)

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