इधर पौष की बेहद सर्द रातों से गुजरते हुए बरबस ही प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी ‘पूस की रात’ याद आती है. खासकर उसका शुरुआती हिस्सा, जिसमें दीनता के भार से दबा हल्कू झाड़ू लगा रही अपनी पत्नी मुन्नी के पास आता और कहता है, ‘सहना आया है, लाओ, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे.’ लेकिन मुन्नी उसका प्रतिवाद करती हुई कहती है, ‘तीन ही तो रुपये हैं, दे दोगे तो कम्मल कहाँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर दे देंगे. अभी नहीं.’
लेकिन ‘लेनदार’ हल्कू का ‘देनदार’ सहना से यह सब कहना इतना आसान था क्या? जवाब के लिए कहानी का इसके आगे का कुछ अंश आप खुद पढ़ लीजिए: हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा. पूस सिर पर आ गया, कम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं जा सकता. मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा. बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी. यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला, ‘ला दे दे, गला तो छूटे. कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूँगा.’ मुन्नी उसके पास से दूर हट गयी और आँखें तरेरती हुई बोली, ‘कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कम्मल?’
दरअसल, प्रेमचंद ने यह कहानी लिखी तो न इक्कीसवीं सदी आयी थी और न ही किसी प्रधानमंत्री के दिमाग में ‘न्यू इंडिया’ का आइडिया आया था. यहां तक कि आधुनिक भारत का निर्माण भी शेष था. वरना हल्कू चट कह देता, ‘हां, मुन्नी, दे देगा. कोई न कोई दाताधर्मी, समाजसेवी, सांसद, विधायक या अमीर-उमरा. उम्मीद तो खैर कई सरकारी अहलकारों ने भी बंधाई है, लेकिन उनकी खैरात में थोड़ा लोचा है। जनवरी से दौड़ना शुरू करो तो जुलाई में मयस्सर होती है’.
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बहरहाल, आप गत दिसंबर से आज की तारीख तक का कोई भी अखबार उठा लीजिए. उसमें न सिर्फ गरीबों, बल्कि ‘असहायों’ व ‘जरुरतमंदो’ तक को कंबल वितरित करने के लिए आयोजित एक से बढ़कर एक समारोहों की खबरें थोक के भाव छपी मिल जायेंगी-ऐसे रंगीन चित्रों से सजी, जिनमें कंबल पाने वालों के चेहरे ठीक से दिखें या नहीं, बांटने वालों के हंसते-मुसकुराते मुखकमल साफ-साफ दिखते हैं.
ये खबरें पढ़कर लगता है कि ‘पापियों से भरे’ और ‘धर्म की हानि’ से पीड़ित इस संसार में दया-धरम की नये सिरे से प्रतिष्ठा हो गई है. इस प्रतिष्ठा का चमत्कार देखिये: भले ही सरकारों ने गरीबी की रेखा की मार्फत गरीबों की संख्या तक को विवादास्पद बना डाला है-इस कदर कि कई दार्शनिकों व अर्थशास्त्रियों को भी यह तय करने में मुश्किल पेश आने लगी है कि वे बारह से बीस रुपये या इससे थोड़े ज्यादा रोज पर गुजर करने वालों को गरीब कहें या नहीं. और, इसके चलते गरीब सरकारी आंकड़ों को कौन कहे, टीवी के परदों पर भी नजर नहीं आते.
उनकी प्राइमटाइम की बहसों से तो उन्हें एकदम से बाहर कर दिया गया है. लेकिन कंबल वितरण समारोहों के लिए गरीबों का कतई टोंटा नहीं पड़ रहा.
तभी तो वे अखबार, जिनमें अब गाहे-ब-गाहे भी गरीबों की खोज-खबर लेने का रिवाज नहीं रहा, कंबल बांटने की खबरें धड़ाधड़ छाप रहे हैं-ऐसे अन्दाज में कि पढ़कर लगता है: बांटने वालों की उनके इस ‘पराक्रम’ के लिए तारीफ कर रहे हैं कि वे इस बहाने ही सही, गरीबों की झुग्गी बस्तियों, झोपड़ियों व फ्लाईओवरों के नीचे की जगहों में सिमटकर ‘दुर्लभ होती जा रही’ प्रजाति’ के इतने सदस्यों को सीन में ले आये हैं!
आखिर कहां से और कैसे ढूंढ़ जाये हैं वे इतने गरीब? क्या पता वे अभी-अभी अपने लिए हुई दस प्रतिशत आरक्षण की घोषणा से आह्लादित सवर्ण हैं या वे वंचित, जो आरक्षण के ‘ढेर सारे’ लाभों के बावजूद अवर्ण के अवर्ण ही रह गये हैं?
लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि उन्हें ढूंढ़ निकलने के इन ‘पराक्रमों’ का हासिल क्या है? ‘गरीबों की सेवा’ को ‘कुम्भ स्नान से भी बड़ा पुण्य’ बता रहे इन पराक्रमी महानुभावों की खुद की जिन्दगियां भी गवाह हैं: एक कंबल से न पूस की रातें कटती हैं और न जिन्दगी. कटतीं तो जैसा कि प्रेमचन्द लिख गये हैं-इन ‘भाग्यवानों’ को ऐसे इंतजाम क्यों करने पड़ते कि उनके पास जाड़ा जाये तो गर्मी से घबड़ा कर भागे. मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ, कंबल, मजाल है कि जाड़े का गुजर हो जाये! वैसे, रब झूठ न बुलवाये, वे इस मंशा से कम्बल बांटते भी नहीं हैं कि गरीबों की जिन्दगी या रातें सुकून से गुजरने लग जायेंगे. ऐसा हो जायेगा तो उनके अगले साल के कंबल वितरण समारोहों के लिए इतने गरीब कैसे जुट पायेंगे? फिर और क्या करके वे अपने लिए ‘करुणासागर’ के तमगे जुटायेंगे और उनके बूते राजनीति में या जहां भी चाहेंगे, अपनी सीटें आरक्षित करायेंगे या किस्मत आजमायेंगे? खासी तड़क-भड़क वाले कंबल वितरण समारोह तो वैसे ही चुगली करते रहते हैं कि उनके पीछे सहज मानवीय करुणा नहीं है. ऐसी करुणा को इस तरह के समारोहों की जरूरत नहीं पड़ती. न ही वह इतनी प्रदर्शनप्रिय होती है.
प्रेमचंद के ही शब्दों में कहें तो यह ‘धरम का काम’ भी नहीं है क्योंकि यह उनकी भारी भरकम, दुस्सह आकांक्षाओं के बोझ से दबा हुआ है. इसीलिए वे एक हाथ से कंबल बांटते हैं तो दूसरे से पक्का करने लग जाते हैं कि उनसे उपकृत ‘मोहताज’ उनकी दरियादिली का लोहा तो मानें, लेकिन उनकी हालत प्रेमचंद के दीन-हीन हलकू से बेहतर न होने पाये, उस रात हार में ठंड से लड़ते, फिर अलाव की गर्म राख में पस्त पड़े रह जाने के बाद जिसका सारा खेत नीलगाय चर गये थे. मुन्नी ने चिंतित होकर कहा था कि अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी, तो उसने यह कहकर राहत ढूंढ़ी थी कि रात की ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा.
लेकिन कुसूर इन ‘करुणासागरों’ का ही नहीं है. वे तो बंगाल के भयावह अकाल {कहना चाहिए, उसके भी बहुत पहले} के वक्त से ही ढेर सारा अनाज अपने गोदामों में दबाकर उसका मुट्ठी भर दान करने के अभ्यस्त रहे हैं. इन्होंने तो कभी यह भी नहीं कहा कि वे कई अन्य देशों के उस उच्च या मध्य वर्ग जैसे हैं, जो आप-आप चरने में ही नहीं, पीछे छूट रहे लोगों का खयाल रखने में भी दिलचस्पी रखता है. इनको तो न अपनी ‘उपलब्धियों’ में गरीबों को शरीक करना गवारा है और न उनकी बहुविध, राशनकार्डों तक की लूट से बाज आना!! और तो और, वे अपने देवताओं को तक चालीस रुपये का चढ़ावा चढ़ाते हैं तो बदले में चालीस करोड़ की ‘अनुकम्पाएं’ मांगते नहीं लजाते. फिर गरीबों से इस खैरात की कीमत वसूले बिना कहां चैन पाने वाले?
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हां, उनके दान या कि सदाशयता पर निर्भर करने की गरीबों की नियति बदलने के उपाय सोचने और समयब़द्ध कार्यक्रम बनाकर उन्हें लागू करना इस कठिन दौर में भी खुद को कल्याणकारी कहने वाले देश के लोकतंत्र और उसकी प्रक्रिया से चुनकर आई सरकारों का ही काम था.
सो दुःख की बात यह है कि स्वतंत्र भारत के कुछ दशकों तक सरकारी अमले के परंपरा से चले आते गरीब विरोधी ढर्रें ने ऐसे उपायों को मंजिल नहीं पाने दी और 24 जुलाई, 1991 के बाद सर्वाइवल ऑफ द बेस्ट की भूमंडलीकरण की व्यवस्था लागू कर उन्हें सर्वथा उलटी दिशा में घुमा दिया गया। अब यह तो बताने की कोई बात है नहीं कि अमीरी को सबसे ज्यादा डर बराबरी से लगता है और ‘न्यू इंडिया’ में जिस तरह गैरबराबरी के सपनों को कम्बलों से कई गुना ज्यादा तेज गति से बांटा जा रहा है, उससे आह्लादित होकर वह अपने गुमान की कोई सीमा नहीं मान रही. लेकिन क्या यह स्थिति हमेशा बनी रहने वाली है? कोई कैसे कह सकता है कि जब सारी दुनिया फानी है, गरीबों के दुःख-दर्द ही शाश्वत होकर रह जायेंगे?
(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)