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Tuesday, 17 December, 2024
होमइलानॉमिक्सलॉकडाउन के खत्म होने की अनिश्चितता के बीच 'मुद्रास्फीति टैक्स' ही सरकार को उनकी मदद करने देगा जिनके पास कोई बचत नहीं

लॉकडाउन के खत्म होने की अनिश्चितता के बीच ‘मुद्रास्फीति टैक्स’ ही सरकार को उनकी मदद करने देगा जिनके पास कोई बचत नहीं

अगर कोरोनावायरस का वैक्सीन मिलने तक लॉकडाउन जारी रखने का फैसला किया जाता है तब अर्थव्यवस्था, बाज़ार, और मुद्रा नीति की हमारी समझ को बिलकुल अनजानी चुनौती का सामना करना पड़ेगा.

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इस साल सरकार को ज्यादा उधार लेने की जरूरत पड़ेगी. मुद्रास्फीति की सीमा तय करने के लिए रिजर्व बैंक को बैलेंसशीट का विस्तार करना होगा और सरकारी बॉन्ड खरीदना पड़ सकता है. यानी ज्यादा नोट छापने पड़ सकते हैं.
अगर भारत लॉकडाउन से बाहर आने की रणनीति नहीं तय कर पाता है तो अर्थव्यवस्था को लंबे समय तक कामचलाऊ स्तर पर काम करना पड़ेगा. सरकार को उदारता से अनाज वितरण करना पड़ेगा और गरीबों को नकदी भुगतान देना पड़ेगा क्योंकि उनके पास कोई बचत नहीं होती जिससे वे अपना जीवन चला सकें. ऐसी परिस्थिति में घाटे को पूरा करने के लिए नोट छापना या मुद्रास्फीति टैक्स लगाना ही संसाधन प्राप्ति का उपाय रह जाता है.

नोट छापने से संसाधनों को, बचत करने वाले लोगों से उन लोगों तक पहुंचाया जा सकता है जिनके पास बचत नहीं है. अर्थव्यवस्था द्वारा उत्पादित सामान और सेवाओं पर साधनहीन घरों का दावा बनता है. उम्मीद की जाती है कि अंततः कीमतें बढ़ेंगी. पिछले सालों से बैंक खातों में बचत कर रहे मध्यवर्ग, पेंशनभोगियों, और परिवारों को मिलने वाला वास्तविक लाभ घट जाता है. महंगाई दरअसल उनलोगों पर टैक्स थोपने का एक उपाय है जिन लोगों ने बचत की है. उनकी बचत का वास्तविक मूल्य घट जाता है.

घाटे की भरपाई

लंबे लॉकडाउन में उत्पादन बंद होने के कारण टैक्स वसूली चरमरा जाती है. संपदा या उत्तराधिकार पर टैक्स से प्रायः कम ही आमदनी होती है, चाहे उनकी वसूली के लिए समय क्यों न मिलता हो. वित्तीय घाटा बढ़ेगा. आमतौर पर सरकार निजी बचत से उधार लेती है. लॉकडाउन में आमदनी घटती है तो निजी बचत भी घट जाती है.

सवाल यह है कि घाटे को कैसे पूरा किया जाएगा? सरकार रिजर्व बैंक से उधार ले सकती है. अर्थशास्त्र की शब्दावली में इसे घाटे के लिए मौद्रिकरण यानी नोट छापना कहते हैं. यह तब होता है जब सरकार केंद्रीय बैंक से उधर लेती है. बीते दिनों में भारत में इसे ‘घाटे की वित्त व्यवस्था’ कहा जाता था. नब्बे के दशक में इसे बंद कर दिया गया क्योंकि नोट छापने से लंबे समय के लिए ऊंची मुद्रास्फीति होती थी. यह घाटे को पूरा करने का अंतिम विकल्प होता है. सरकारों को इसका चस्का लग जाता है और वे सामान्य दिनों में भी घाटे की वित्त व्यवस्था लागू करने लगती हैं.


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घाटे की वित्त व्यवस्था क्या मुद्रास्फीति की सीमा तय करने में आड़े नहीं आएगी?

बीते दिनों में केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति की सीमा तय करने के लिए परिमाणात्मक छूट देते रहे हैं जब कि ब्याज दरें शून्य स्तर को छू चुकी होती हैं या जब मुद्रा नीति से संबंधित कमिटी के लिए दरों को और कम करना संभव नहीं रह जाता, क्योंकि वे पहले ही शून्य को छू चुकी होती हैं. ऐसा वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान विकसित अर्थव्यवस्थाओं में हुआ था.

जब मुद्रा नीति को मुद्रस्फीति की सीमा तय करने में इस्तेमाल किया जाता है तब वह मुद्रास्फीति के मांग वाले पहलू पर ज़ोर देने लगती है. वह देखने लगती है कि अर्थव्यवस्था में डिमांड कहीं इतनी ज्यादा तो नहीं बढ़ गई है कि वह कीमतों में उछाल के लिए दबाव डाल रही हो. वह डिमांड के संभावित स्तर की तुलना सप्लाई को लेकर अर्थव्यवस्था की क्षमता से करने लगती है. ब्याज दरों में वृद्धि करके मुद्रा नीति लोगों और व्यापार जगत को खर्चों पर लगाम लगाने को प्रेरित करती है. मुद्रास्फीति को लेकर अपेक्षाओं को नियंत्रित करने से वेतन-कीमत चक्र के जरिए मुद्रास्फीति को काबू करने में मदद मिलती है. ब्याज दरों में कटौती बैंकों को ज्यादा उधार देने की क्षमता बढ़ाती है, लोगों को ज्यादा खर्च करने के लिए प्रेरित करके डिमांड को बढ़ाती है और मुद्रास्फीति के लक्ष्य को नीचे से साधने में मदद करती है.

लॉकडाउन में कैसे चलेगी मुद्रा नीति?

मुद्रा नीति को कभी भी ऐसे दौर का सामना नहीं करना पड़ा था जब डिमांड और सप्लाई, दोनों ध्वस्त हो चुके हों, जब उत्पादन लगभग ठप पड़ा हो, जब उपभोक्ता घर से बाहर न निकल पाने के कारण खर्च न कर पा रहे हों और समान तथा सेवा की खरीद न कर पा रहे हों. मौजूदा दौर मुद्रा नीति के लिए बिल्कुल नयी चुनौती पेश कर रहा है.

लॉकडाउन अगर कुछ दिनों के लिए ही होता तब विश्लेषण वैसा ही किया जाता जैसा सामान्य दिनों के लिए किया जाता है. लेकिन कोरोनावायरस का वैक्सीन मिलने तक पाबंदियां लागू रहीं तब क्या होगा? वैक्सीन का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू होने और हरेक भारतीय को उपलब्ध होने में एक साल तक लग सकता है. ऐसे में अगर लॉकडाउन तब तक जारी रखने का फैसला किया जाता है तब अर्थव्यवस्था, बाज़ार, और मुद्रा नीति की हमारी समझ को बिलकुल अनजानी चुनौती का सामना करना पड़ेगा.

एक छोर पर तो इस उम्मीद से पैदा हुआ परिदृश्य है कि 3 मई को अर्थव्यवस्था को मुक्त किया जाएगा. दूसरे छोर पर यह आशंका है कि सख्त लॉकडाउन एक साल तक लागू रह सकता है. वास्तविकता इन दो छोरों के बीच कहीं हो सकती है. वायरस के फैलाव के मुताबिक कुछ जिलों और कुछ गतिविधियों के लिए छूट दी जा सकती है.

वैक्सीन के इंतज़ार में सरकार ने अगर वर्ष 2020-21 के लिए अर्थव्यवस्था को लॉकडाउन कर दिया तब क्या होगा? इस वित्त वर्ष के पहले महीने में नगण्य आर्थिक गतिविधि, लगभग शून्य उपभोग-निवेश-निर्यात के कारण उत्पादन में भारी गिरावट आई है. लॉकडाउन में डिमांड में जो कमी आई है उसके कारण डिमांड से पैदा होने वाली मुद्रास्फीति शून्य है. जरूरी चीजों की सप्लाई में कमी हो सकती है मगर यह खास उत्पादों के मामले में होगी. उत्पादकों को मुनाफे का मौका नज़र आएगा तो वे तुरंत इसका लाभ उठाने की कोशिश करेंगे. इसके कारण कीमतों में परिवर्तन आएगा. यह हम मास्कों और सैनिटाइजर के मामले में देख चुके हैं, जिनकी कीमत चढ़ी और फिर गिरी. ऐसे स्थिति में मुद्रा नीति कोई भूमिका नहीं निभा पाती.


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डिमांड में गिरावट की स्थिति में भारत अपनी क्षमता से कम उत्पादन करेगा, मुद्रास्फीति की सीमा तय करने के उसके फ्रेमवर्क को काफी नीची ब्याज दरों की जरूरत पड़ेगी, यहां तक कि गुणात्मक छूट भी देनी पड़ सकती है. मुद्रास्फीति की सीमा तय करने के उसके फ्रेमवर्क में ब्याज दरों को घटाना शामिल होगा ताकि अर्थव्यवस्था में ब्याज दरें बेहद कम, शून्य तक हो जाएं.

मुद्रास्फीति की सीमा तय करने के बारे में फिलहाल जो कुछ लिखा जा रहा है, खासकर वैश्विक वित्तीय संकट के बाद, उसमें काफी विचार-विमर्श चल रहा है और यह चर्चा की जा रही है कि जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह अनुभव सामने आ रहा है कि रेपो रेट में सामान्य कमी करने के बावजूद ब्याज दरों को कम करना मुमकिन नहीं हो पा रहा है तब क्या किया जाए. केंद्रीय बैंक सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद करके पैसे जारी कर सकता है. इसलिए, तमाम नीतिगत विकल्पों के नफा-नुकसान के सावधानी से विश्लेषण और उन पर चर्चा करने की जरूरत है. हमें अपनी व्यापक अर्थव्यवस्था (मैक्रोइकोनॉमिक्स) के ढांचे की विश्वसनीयता को घटाने की जरूरत नहीं है. याद रहे कि 2016 में आरबीआई एक्ट में संशोधन करके रुपये को मजबूती देने के लिए मुद्रास्फीति की सीमा तय करने का जो उपाय बनाया गया था वह उस ढांचे का अहम तत्व है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका एक अर्थशास्त्री हैं और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनान्स में प्रोफेसर हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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