अभी पिछले दिनों एक भाजपा समर्थक से बातचीत हो रही थी. उन्होंने गुजरात चुनाव के नतीजे को ‘‘रक्तस्राव’’ बताया, जिससे मरीज नरेंद्र मोदी किसी तरह बच निकले. लेकिन अब आगे उन्हें ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है क्योंकि राहुल गांधी राजनीतिक धोबीपाट दांव खेलने लगे हैं. इस चुनाव के नतीजे आने के एक दिन पहले भाजपा के एक घोर समर्थक (मगर मोदी भक्त नहीं) ने, जो ज्योतिषशास्त्र का काफी ज्ञान रखते हैं, मुझे बताया कि मोदी की जन्मकुंडली बहुत अच्छे संकेत नहीं दे रही है.
मैंने उनसे कहा कि मैं कुंडली और ग्रहदशा वगैरह में विश्वास नहीं रखता मगर यह जानने की उत्सुकता जरूर है कि मोदी और उनके गुजरात संकट के बारे में सितारे क्या कहते हैं. ज्योतिषाचार्य ने बताया कि खतरनाक रक्तस्राव हो सकता है मगर मरीज बच जाएगा. उनकी इस उपमा से प्रभावित होकर मैंने उनसे पूछा कि 2019 में मरीज का हाल क्या होगा? उन्होंने चतुराई भरा जवाब दिया कि यह उस समय चुनाव के दौरान ग्रहों की दशा पर निर्भर होगा.
जब गुजरात के नतीजे आ गए तब मैंने उनकी प्रतिक्रिया जानने को उन्हें फोन किया. उन्होंने तुरंत जवाब दिया, ‘‘हम शर्मनाक हार तो जानते रहे हैं मगर शर्मनाक जीत हमने शायद ही देखी होगी.’’
मैंने मन ही मन सोचा, आश्चर्य नहीं कि 22 साल सरकार चलाने के बाद मिली जीत के बाद भी अरुण जेटली का मुंह लटका हुआ था, स्मृति ईरानी खीजी हुई दिख रही थीं, अमित शाह के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था, और नतीजे के बाद विजय व्याख्यान में मोदी बेतरतीब बातें कर रहे थे. केवल टाइम्स नाउ, रिपब्लिक टीवी और जी न्यूज पर जोशीले उत्सव का माहौल था. ये चैनल दर्शकों को समझा रहे थे कि ‘‘जीत तो आखिर जीत ही होती है.’’ इन चैनलों के एंकर मोदी की ‘‘जोरदार’’ जीत और राहुल गांधी की ‘‘शर्मनाक’’ हार के लिए भाजपा नेताओं को बधाइयां दे रहे थे. भाजपा के नेताओं का हौसलाअफजाई की जरूरत भी थी, क्योंकि सदमा और हताशा उनके चेहरे से टपक रही थी.
अधिकतर कांग्रेसी कार्यकर्ता एक्जिट पॉल के अनुमानों को सच मान कर हार मान बैठे थे. नौ महीने पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों से मिले सदमे से अभी वे उबरे भी नहीं थे. वैसे, कुछ अतिउत्साही कांग्रेसी बेशक मूच्र्छा में थे और यही तय करने के छद्मयुद्ध में जुटे थे कि गुजरात में अगला मुख्यमंत्री कौन होगा. बहरहाल, इस वायरस ने सबको नहीं डंसा था.
लेकिन जब नतीजे आ गए तब ऐसा लगा मानो राहुल गांधी ने जापानी मार्शल आर्ट (युद्धक©शल) आयकिदो में अपनी महारत दिखा दी है. उनके समर्थकों को भी यकीन नहीं था कि वे ब्लैक बेल्टधारी हैं. अब तो ऐसा लगता है कि उन्हें कांग्रेसियों के लिए राजनीतिक आयकिदों का एक जिम खोल देना चाहिए, क्योंकि अगर वे इस मार्शल आर्ट को सचमुच नहीं सीखते तब भी उन्हें 2019 में सुपरमैन (या कहें स्पाइडरमैन) मोदी का मुकाबला करने के लिए कुछ विशेष कौशल की जरूरत पड़ेगी.
इस चुनाव ने ‘गुजरात मॉडल’ के खोखलेपन को उजागर कर दिया है. इसने मोदी के चुनाव अभियान में विकास की बातें भूल कर पाकिस्तान से लेकर मंदिर-मस्जिद और परिवारवाद सरीखे मुद्दों का सहारा लेने को मजबूर कर दिया. इसने मतदाताओं को ‘माइक्र¨ मैनेज’ करने के अमित शाह के कथित करिश्माई कौशल की पोल भी खोल दी, जो उत्तर प्रदेश में इसलिए कामयाब हो गया था क्योंकि वहां उन्होंने मुसलमानों, यादवों और दलितों को अलगथलग करके बाकी वोटों को एकजुट करने का काम किया था. लेकिन ‘बाकियों के उभार’ को संगठित करने का यह फॉर्मूला उनके तथा मोदी के ही राज्य में बुरी तरह नाकाम हो गया. शाह ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी के मेल को ‘हज’ जैसे सांप्रदायिक विशेषण से कुप्रचारित करके पटेलों, ठाकोरों, दलितों और मुसलमानों को अलगथलग या विभाजित करने की कोशिश की.
ग्रामीण मतदाताओं के असंतोष का नतीजा था कि कृषि पट्टी में भाजपा के पैर उखड़ गए. उसकी सरकार के पांच मंत्री और लगभग वे सारे विधायक चुनाव हार गए, जिन्हें चुनाव के पहले दलबदल करवा कर लाया गया था. और त और, मोदी के गृहनगर वाडनगर में उंझा सीट पर भी भाजपा उम्मीदवार नहीं जीत पाया. 99 के दहाई अंकों पर सिमट जाना मोदी-शाह की जोड़ी के लिए निश्चित ही सदमा पहुंचाने वाली बात होगी, क्योंकि उनके ‘मिशन 150’ में 51 सीटें कम रह गईं. अगर 2014 के लोकसभा चुनावों में विधानसभा क्षेत्रों में मतदान के रुझान पर गौर करें तो साफ होगा कि भाजपा को 66 सीटों का नुकसान हुआ है. वोटों में 49 फीसदी की हिस्सेदारी का भाजपा का दावा भी खुद को बहलाने का ही मामला है, क्योंकि 2014 में भाजपा का वोट प्रतिशत 59 था. यानी उसके 10 प्रतिशत वोट घट गए.
आंकड़ों के इस खेल को दरकिनार भी कर दें तो इस बदनामी और चुनावी आधार में आई कमी ने मोदी-शाह की अजेयता की मीडिया-रचित अतिशयोक्तिपूर्ण छवि को चोट पहुंचाई है. गुजरात पर टीवी चैनलों में हुई बहसों में चतुर एंकर जो सवाल पूछा करते थे उनकी एक बानगी- क्या राहुल मोदी का मुकाबला कर पाएंगे? यह सवाल अपने आप में सतही और मूर्खतापर्ण है. 2004 में जब ‘इंडिया शाइनिंग’ का जोर था तब भी इसी तरह के सवाल पूछे जाते थे कि क्या सोनिया गांधी में अटल बिहारी सरीखे कद्दावर नेता का मुकाबला करने की थोड़ी भी क्षमता है? हम सब जानते हैं कि तब क्या हुआ था.
इसलिए, हमारे उन ज्योतिषाचार्य मित्र ने जिस रक्तस्राव की बात की, वह सही ही थी. अब मरीज को अपना वजन कम करना पड़ेगा, ब्लडशुगर घटाना पड़ेगा, और केवल अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर ही नहीं बल्कि रोज-रोज आसन करना पड़ेगा. यही नहीं, पतंजलि (बाबा रामदेव नहीं) की सीख के अनुसार शांतचित्त होकर अपने भीतर झांकना पड़ेगा.
युद्धकलाओं में एक सीख यह दी जाती है कि इस कला में पारंगत होना है तो एकदम शांतचित्त तथा स्थिर रहें. लगता है, चुनावी हंगामे के शांत होने के बाद राहुल जिस तरह नई स्टार वार्स फिल्म देखने पहुंच गए, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने इस सबक को अच्छी तरह आत्मसात कर लिया है. लेकिन टीवी के एंकरों में बेचैनी, खलबली थी और वे एक्जिट पॉलो को गुजरात चुनाव की सत्य से इतर वास्तविकता के रूप में प्रस्तुत करने में जुट गए थे.
सत्य से इतर वास्तविकता मीडिया में भले छायी हो, यह असली वास्तविकता ही है जो राजनीति तथा इतिहास को आगे बढ़ाती है.
कुमार केतकर वरिष्ठ पत्रकार और अर्थशास्त्री हैं.