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Tuesday, 23 April, 2024
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क्या यूबीआई भाजपा सरकार के लिए तुरुप का पत्ता साबित होगा?

यूबीआई कम आबादी वाले और अमीर देशों के लिए तो आसान है मगर भारत जैसे विशाल आबादी वाले विकासशील व सीमित संसाधनों वाले देशों के लिए टेढ़ी खीर है.

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विधानसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा के हौसले इस कदर पस्त हैं कि वह लोकसभा चुनाव जीतने के लिए कई तुरुप के पत्ते खेलना चाहती है.आर्थिक आरक्षण इसी दिशा में एक कोशिश थी. मगर अब अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए वह यूनिफॉर्म बेसिक इनकम (यूबीआई) का पत्ता खेलने की सोच रही है. इस बजट में उसकी सच्चाई सामने आ जाएगी.

यूनिफॉर्म बेसिक इनकम पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों में है बहुत चर्चित

मुद्दा है, यह सोच इसलिए उपजी क्योंकि ऑटोमेशन, रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से लोगों के रोज़गार पर खतरा मंडरा रहा है. ऐसे में सरकारों के पास यही विकल्प रह गया है कि अपने हर नागरिक को इतना भत्ता दे जिससे वे जीवन यापन कर सकें. इसी भत्ते को बेसिक इनकम कहा जा रहा हैं. आसान भाषा में बताना हो तो ये एक ऐसी योजना होगी जिसमें परिवारों को एक निश्चित राशि हर महीने दी जाएगी. चाहें वो कोई काम करें या ना करें. भारत जैसे देश में सरकार के दिमाग में यह विचार अलग वजह से कुलबुला रहा है. क्योंकि यहां दारुण गरीबी है और गरीबों तक सब्सिडी पहुंचाने के कोई कारगर उपाय नहीं नज़र आ रहे.

सभी योजनाओं में सेंधमारी होती है लीकेज है. दरअसल नोटबंदी के बाद बहुत चर्चा थी कि नरेंद्र मोदी की सरकार नोटबंदी से हुए घावों पर मरहम लगाने के लिए बेसिक इनकम देने की घोषणा बजट में ही कर सकती है. हालांकि नीति आयोग के पूर्व अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने चेतावनी देते हुए कहा कि बेसिक इंकम देने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं है. इसके बाद यह विचार आया गया हो गया. आर्थिक सर्वे में उसका ज़िक्र ज़रूर हुआ.


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मगर हाल के विधानसभा चुनावों में हार ने मोदी सरकार को झकझोर दिया. पचास साल सत्ता में रहने का दावा करनेवाली सरकार को पांच साल बाद सत्ता में रहने के लाले पड़ रहे हैं. वह चुनाव जीतने के लिए इतनी बेकरार है कि कुछ भी करने को तैयार है. उसने सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का दुस्साहस कर चुकी मगर जीतने के लिए उतना भी काफी नहीं है इसलिए जीत को सुनिश्चित करने के लिए मोदी सरकार कई आर्थिक कदमों पर विचार कर रहीं है.

एक विचार है- तेलंगाना में केसीआर को कांग्रेस और टीडीपी गठबंधन के छक्के छुड़ाकर शानदार जीत दिलाने वाली रैयत बंधु योजना और दूसरा विचार है –यूनिवर्सल बेसिक इनकम. रैयत बंधु योजना से तो किसानों को ही लाभ मिलेगा मगर यूबीआई से हर नागरिक को. इसलिए यूबीआई मोदी सरकार को हारी हुई बाज़ी पलट देनेवाली गेमचेंजर योजना लग रही हैं.

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क्या है दिक्कत

दिक्कत यह है कि यूबीआई लागू करना कम आबादी वाले और अमीर देशों के लिए तो आसान है मगर भारत जैसे विशाल आबादी वाले विकासशील और सीमित संसाधनों वाले देशों के लिए टेढ़ी खीर हैं.

चार दशक पहले मैने ओशो की एक पुस्तक पढ़ी थी ‘प्रगतिशील कौन?’इस पुस्तक में ओशो ने मशीनों का महिमागान करते हुए कहा था कि आदमी की तुलना में मशीनों की उत्पादकता कई गुना ज़्यादा है. इसलिए जल्दी ही वह दिन आएगा जब कि सारा काम मशीनें करने लगेंगी. लोगों को घर बैठे तनख्वाह मिला करेगी. तब लोग घर बैठकर अपने मनपसंद का सिर्जनात्मक काम करेंगे. मगर उससे बोर हो जाएं और सोचें कि आज दफ्तर जाकर काम करें तो उस दिन का वेतन उनके वेतन में से काट लिया जाएगा क्योंकि मनुष्य की तुलना में मशीनों की उत्पादकता बहुत ज़्यादा होगी इसलिए कंपनी को आपके काम करने से नुकसान ही होगा.

तब यह बात मुझे ओशो की फैंटेसी ही अधिक लगती थी मगर आज यह सच होने लगी है. दुनिया में ऑटोमेशन इतनी तेज़ी से बढ़ रहा है कि नए रोज़गार पैदा ही नहीं हो रहे. विश्व की हर सरकार सबको काम देने की चुनौती से जूझ रही है. भारत में 2015 में सिर्फ 1 लाख 35 हज़ार नौकरियों का ही सृजन हुआ. रोज़गारहीन विकास मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी समस्या है. काम कर सकने वाली आबादी का एक तिहाई बेकार है. 68 फीसदी कामगार परिवारों की मासिक कमाई 10,000 से अधिक नहीं है.

ऑटोमेशन से कम हुई नौकरियां

कुछ समय पहले विश्व बैंक ने भी एक रिपोर्ट जारी की है कि भारत में आने वाले दशकों में 69 फीसदी नौकरियां रोबोट के कारण खत्म हो जाएंगी. लेकिन यह हालत केवल भारत की ही नहीं है. यह सारी दुनिया में हो रहा है. ऑटोमेशन, रोबोट और आर्टिफिशियल इन्टेलिजेंस लगातार नौकरियां निगल रही हैं. ऐसे में सरकारों के पास यही विकल्प रह गया है कि अपने हर नागरिक को इतना भत्ता दें जिससे वे जीवन यापन तो कर सकें. इसे बेसिक इनकम कहा जा रहा है. यह इन दिनों दुनियाभर में चर्चा का मुद्दा बन गया है.

दुनियाभर में बहस

दुनिया के कई देशों में इस मुद्दे पर बहस चल रही है. सबकी अलग-अलग राय है. इसे फिनलैंड जैसे देश ने तो अपना भी लिया है, लेकिन स्विटज़रलैंड जैसे देश ने इसके लिए मना कर दिया. स्वीटरज़रलैंड यूरोप ही नहीं दुनिया का बेहतर जीवन स्तर वाला देश है. 80 फीसदी आबादी के पास काम है, ऐसे देश में यूनिवर्सल बेसिक इनकम को लेकर बहस हुई कि सभी नागरिक को हर महीने सरकार 2,524 डॉलर दें.

जनमत संग्रह में यह प्रस्ताव हार गया. 77 फीसदी वोट से यह प्रस्ताव रिजेक्ट हो गया. यूरोप के कई देशों में इस विचार पर बहस हो चुकी है. कई राजनीतिक दल हैं जो अब इसे अपने घोषणापत्रों में जगह देने लगे हैं. कनाडा, फिनलैंड और नीदरलैंड भी इस पर जनमत संग्रह कराने का विचार कर रहे हैं.

चर्चा तो कई देशों में चल रही है, लेकिन जिस पर अभी अमल कहीं नहीं हुआ है. फिनलैंड में ज़रूर प्रायोगिक तौर पर एक इलाके में ये योजना शुरू की गई है, जिसके तहत वहां हर व्यक्ति को 595 अमेरिकी डॉलर दिया जा रहा है. स्विट्ज़रलैंड में इस सवाल पर जनमत संग्रह कराया गया था, लेकिन वहां के लोगों के बहुमत ने इसे नकार दिया. उल्लेखनीय है कि फिनलैंड में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय 45,133 डॉलर है. स्विट्ज़रलैंड में यह 79,578 डॉलर है. जबकि भारत में औसत सालाना प्रति व्यक्ति आय 2013 में बहुत कम थी. ऐसे भारत में इस योजना की शुरुआत एक बड़ा साहस (जिसे कुछ लोग दुस्साहस समझ सकते हैं) माना जाएगा.

इस योजना के पीछे समझ है कि सामाजिक सुरक्षा के तौर पर हर व्यक्ति को एक बुनियादी रकम सरकार से मिले. यह एक ऐसी योजना है जिससे दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों ही तरह के विचारक सहमत हैं. वामपंथी विचारकों को लगता है कि इससे सबमें आय का वितरण हो सकेगा. दूसरी तरफ दक्षिणपंथी मानते है कि इसके बाद सरकार कम हस्तक्षेप करेगी. 2010 में मध्यप्रदेश में इसका पायलट तौर पर परीक्षण किया जा चुका है.


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विकसित देशों में ये स्कीम ज़रूरी हो सकती है जहां जीवन स्तर एक जैसा रखना हो, लेकिन भारत जैसा देश जहां अर्थव्यवस्था पर अधिक बोझ नहीं डाला जा सकता और अगर डाला जाएगा तो जीडीपी से लेकर बजट तक हर चीज़ पर असर पड़ेगा वहां ये व्यवस्था लागू करना आसान नहीं है. विकसित देशों में इसे सोशल सिक्योरिटी के तौर पर देखा जा सकता है जहां जनसंख्या कम होती है, लोग पहले से ही कमा रहे होते हैं और किसी वजह से अगर कोई पीछे रह जाता है तो उसके लिए ऐसी योजनाएं होती हैं.

ऐसी योजनाएं लागू करने के बाद ट्रैक भी की जाती हैं. अब अगर भारत जैसी जनसंख्या के साथ इस स्कीम को देखा जाए तो इसके लिए ज़रूरी प्रावधान जैसे सेहत, बच्चों का विकास, शिक्षा, भोजन आदि के सपोर्ट को कम करना होगा. कुल मिलाकर फिलहाल भारत इस जैसी किसी योजना के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है.

वैसे पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार सुब्रमणयम ने एक अलग तरह की नॉन यूनिवर्सल बेसिक इनकम की योजना का समर्थन किया था यह योजना सिर्फ गरीबों के लिए थी. दूसरी योजना किसानों के लिए होगी.

तेलंगाना में रैयत बंधु योजना के तहत किसानों को कृषि में निवेश करने के लिए हर फसल के दौरान प्रति एकड़ 4000 रुपये दिए जाते हैं. मगर इसका भी खर्चा कम नहीं है. तेलंगाना के मौजूदा स्वरूप में इसे सारे देश में लागू करने पर हर साल 3.1 करोड़ का खर्च होगा. वैसे यह खर्चा कम नहीं है. इसमें पेंच यह है कि भारत में बड़े पैमाने पर ज़मीन पट्टे पर दी जाती है. तब भूमि के स्वामी किसान पर काश्तकार तक इन लाभों को पहुंचाने की ज़िम्मेदारी होगी.

इस किसानोन्मुख योजना की तुलना में यूबीआई का असर ज़्यादा व्यापक होगा. वह व्यवसाय और भूमि या इस बात पर भी निर्भर नहीं करेगी कि आपकी आय कितनी है. सभी को 2017-08 की गरीबी रेखा के बराबर यानी 1180 रूपये उपलब्ध कराने पर 19 खरब खर्च होंगे यह राशि केंद्र के कर राजस्व से 50 प्रतिशत आधिक होंगी. इस तरह की योजनाएं कतई टिकाऊ नहीं हो सकती.

विकासशील देशों में यह विचार इसलिए जड़ें जमा रहा है क्योंकि गरीबी हटाने की योजनाएं लालफीता शाही का शिकार हो रही हैं वहां गरीबों और अमीरों सभी को नकद भुगतान के ज़रिये विजय पायी जा सकती है. भारत में आधार पर आधारित सीधे नकद हस्तांतरण का बड़े पैमाने पर विस्तार हुआ है उससे यूबीआई के पक्ष में माहौल बना है इससे लालफीताशाही, लीकेज, सेंधमारी का खतरा नहीं रहेगा पैसा सीधे लोगों तक पहुंचेगा. वैसे इसके आलोचक भी कम नहीं है जिनका मानना है कि सामाजिक सुरक्षा का ढांचा कमज़ोर होगा, लोग रोज़गार के प्रति लापरवाह हो जाएंगे और फालतू खर्च करने लगेंगे.


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भारत सरकार के 2016-17 के आर्थिक सर्वे में बहुत विस्तार के साथ यूबीआई का उल्लेख किया गया था. जिसमें कहा गया था कि भारत की जनकल्याणकारी योजनाएं सही व्यक्तियों तक नहीं पहुंच पाती. इसकी तुलना में यूबीआई का पैसा सीधे बैंक अकाउंट में जाएगा. इसलिए अन्य गरीबी हटाओ कार्यक्रमों की तुलना में ज़्यादा प्रभावी साबित होगी.

इस तरह आर्थिक सर्वे ने यूबीआई पर की विस्तृत जानकारी देकर देश में इस पर राष्ट्रीय बहस शुरू की. उसमें कहा गया था कि भविष्य में आर्थिक स्थिति देखकर सरकारे इसे लागू कर सकती हैं. इन दिनों जिस तरह की चर्चा है उसे देखते हुए लगता वह समय आ गया है. बजट का इंतज़ार कीजिए. हो सकता है जेटली सांता क्लाज़ बनते हुए अपनी झोली से यूबीआई का गिफ्ट निकालें. आखिर हारता क्या न करता.

(लेखक दैनिक जनसत्ता मुंबई में समाचार संपादक और दिल्ली जनसत्ता में डिप्टी ब्यूरो चीफ रह चुके हैं. पुस्तक आईएसआईएस और इस्लाम में सिविल वॉर के लेखक भी हैं.)

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