उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में आन्दोलित किसानों द्वारा केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री व प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मंत्री को काले झंडे दिखाने के सिलसिले में पैदा हुए उद्वेलनों के बीच पश्चिम बंगाल में भवानीपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की रिकार्ड अंतर से जीत लगभग अचर्चित रह गयी. हालांकि वह किसी मुख्यमंत्री का कोई उपचुनाव जीत लेना भर नहीं थी और एक पैर से बंगाल जीत चुकी ममता के दो पैरों से दिल्ली जीत लेने की बहुप्रचारित महत्वाकांक्षा के मद्देनजर देशव्यापी चर्चा की मांग करती थी.
इस कारण और कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा कहें या नरेन्द्र मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष की चुनौती का स्वरूप बहुत कुछ इसी पर निर्भर है कि तब तक उनकी यह महत्वाकांक्षा कौन सा रूप धारण करती है. अकारण नहीं कि उनकी इस जीत के साथ कई हलकों में पूछा जाने लगा है कि 2024 में भाजपा को मुख्य चुनौती कांग्रेस की सोनिया गांधी पेश करेंगी या तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी? या कि ममता अब तक विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार माने जा रहे राहुल गांधी का मार्ग प्रशस्त करेंगी या खुद आगे बढ़कर उनका रास्ता रोकने लगेंगी? भवानीपुर में कांग्रेस द्वारा उनके खिलाफ अपना प्रत्याशी न उतारने का अहसान वे उतारना चाहेंगी या नहीं?
यह कयास भी लगाये जा रहे हैं कि अगर ममता ने तृणमूल कांग्रेस के देश भर में विस्तार की सोची तो उनका सबसे ज्यादा ‘सहयोग’ कांग्रेस के जी-23 के सदस्य ही करेंगे, जो फिलहाल, कांग्रेस में असहज व अलग-थलग महसूस कर रहे हैं. कांग्रेस हाईकमान ने जिस तरह उनके असंतोष की अनसुनी कर रखी है और उनकी किसी भी मांग या सवाल को सम्बोधित करना जरूरी नहीं समझ रहा, इस सवाल को भी नहीं कि हमारे लोग हमें, यानी कांग्रेस के लोग कांग्रेस को, छोड़कर क्यों बाहर जा रहे हैं, उसके बाद उनके विकल्प बहुत सीमित हो गये हैं.
उनमें से कई ऐसे हैं जिन्हें भाजपा में ‘राजनीतिक शरण’ मिल सकती है लेकिन कई ऐसे भी हैं, जो भाजपा को लेकर सहज नहीं अनुभव करते. अभी उनकी मुख्य समस्या यह है कि ऐसे अनादर के बीच कांग्रेस में रहें तो कैसे, लेकिन उसे छोड़कर जायें तो भी कहां जायें? ऐसे में ममता की तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल से बाहर पांव पसारती है तो वह उनका स्वाभाविक ठिकाना हो सकती है. इसलिए भी कि उसमें जाना उनके लिए अपनी ही टूटी हुई डाली को पकड़ने जैसा होगा. आखिरकार ममता ने लम्बे वक्त तक कांग्रेस की राजनीति की है.
आप कह सकते हैं कि यह सब अभी दूर की कौड़ी है, लेकिन यह नहीं कह सकते कि भवानीपुर की जीत के साथ ममता ने सिर्फ अपना मुख्यमंत्री पद सुरक्षित किया है और प्रधानमंत्री बनने की ओर यात्रा नहीं शुरू करने वाली. कभी लालू प्रसाद यादव ने कहा था इस देश में भला कौन नेता है, जो प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहता? यह बात ममता पर भी लागू होती है. कम से कम, जब तक पश्चिम बंगाल में उनका जलवा कायम है. यह जलवा खत्म हो सकता था अगर भवानीपुर की जनता उन्हें हराकर उनके मुख्यमंत्रित्व के लिए संकट पैदा कर देती. तब वे उसे बचाने के प्रयत्नों में ही लगी रह जातीं.
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हार की टीस
वैसे ही जैसे विधानसभा चुनाव के दौरान नंदीग्राम सीट से शुभेन्दु अधिकारी से हार का स्वाद चखने के बाद उसकी टीस का अनुभव करती रही थीं. तब उन्हें यह बात भी सालती रही थी कि वे शुभेन्दु को उनके दबदबे वाले क्षेत्र में हराकर उनकी ही प्रतिज्ञा के अनुसार राजनीति नहीं छोड़वा पाईं. इसी टीस के तहत वे वहां के चुनाव के नतीजे में कथित हेराफेरी को लेकर न्यायालय भी गईं. इतना ही नहीं, हवा के रुख की गलत पहचान के शिकार होकर तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में चले गये नेताओं की घरवापसी की ऐसी मुहिम चलाई कि भाजपा सन्न होकर देखती रह गई.
दरअसल, नन्दीग्राम की हार ने उन्हें फिर से मुख्यमंत्री पद संभालने के छह माह के भीतर विधानसभा सदस्य बनने की चुनौती के सामने कर दिया था, जिसके कारण उन्हें अपनी परम्परागत भवानीपुर सीट खाली करानी पड़ी, साथ ही उसका उपचुनाव कराने की मांग पर भी बार-बार जोर देना पड़ा क्योंकि उनके विरोधी किसी न किसी बहाने उसे रुकवाना चाहते थे. लेकिन वे कलकत्ता हाईकोर्ट तक से निराश लौटे और अब ममता विजेता हैं. हां, उनके समर्थकों ने भवानीपुर में कोई विजय जुलूस नहीं निकाला, लेकिन यह संदेश देने में कोई कोताही नहीं की है कि दीदी दिल्ली में विजय जुलूस निकालने की तैयारी कर रही हैं.
भवानीपुर के मतदाताओं ने जिस तरह ममता की भाजपाई प्रतिद्वंद्वी प्रियंका टिबरेवाल और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के श्रीजीव विश्वास को प्रतिद्वंद्विता में उनके निकट तक नहीं पहुंचने दिया है, उससे कई प्रेक्षकों को उससे लगता है कि भाजपा ने महज अपनी साख बचाने के लिए जबकि माकपा ने अपनी संघर्ष क्षमता दिखाने के लिए ममता के खिलाफ प्रत्याशी खड़ा किया था.
ऐसे में ममता भला इस बात से चिन्तित होकर ही अपने कदम पीछे क्यों हटातीं कि राज्यपाल जगदीप धनकड़ ने नये विधायकों को शपथ दिलाने का अधिकार विधानसभाध्यक्ष से छीनकर खुद ले लिया है? वे जानती थीं कि चार नवम्बर से, मुख्यमंत्री बनी रहने के लिए जिस तिथि तक उनका राज्य विधानसभा की सदस्य बन जाना अभीष्ट है, भवानीपुर के विधायक के तौर पर शपथ नहीं ले पातीं तो भी कोई आसमान नहीं फटने वाला था. ज्यादा से ज्यादा उन्हें अपने पद से इस्तीफा देकर फिर से उसकी शपथ लेनी होती और वर्तमान राजनीतिक नैतिकताएं उन्हें इतनी ‘अनैतिक’ होने की खुशी-खुशी इजाजत दे देतीं. खासकर जब उनकी पार्टी के विधायक दल में उनके नायकत्व को कतई कोई चुनौती नहीं है. शायद राज्यपाल जगदीप धनकड़ इसे समझकर ही विधानसभाध्यक्ष को उक्त अधिकार फिर दे दिया है. इसे भी ममता की विजय के रूप में ही देखा जा रहा है. वे कह भले रही हैं कि केन्द्र उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने की साजिश रच रहा है, लेकिन इस पहलू से भी अन्जान नहीं हैं कि वे 2024 में भाजपा को देश की सत्ता से हटाने की कांग्रेस की कोशिशों की राह दुश्वार करेंगी तो उसे खुशी ही होगी.
दूसरे पहलू से देखें तो ममता को भी महत्वाकांक्षाओं के हिंडोले में झूलने से पहले अपनी शक्ति व सामर्थ्य को ठीक से आंक लेना होगा. पश्चिम बंगाल में भले ही उन्होंने अपने सारे प्रतिद्वंद्वियों को पूरी तरह चित कर दिया है, शेष देश में कांग्रेस की ही तरह उनके लिए भी गलीचे नहीं बिछे हुए. वहां अपना दम दिखाने के लिए उन्हें भी कड़ी मेहनत करनी होगी. वैसे भी विधानसभा चुनावों के मुद्दे और मिजाज़ लोकसभा चुनाव के मुद्दों व मिजाजों से अलग होते हैं यानी किसी पार्टी की विधानसभा चुनाव की जीत उसके लोकसभा चुनाव में जीत हासिल कर लेने की गारंटी नहीं होती.
लेकिन ममता द्वारा देशव्यापी लोकप्रियता हासिल करने के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों का जो भी नतीजा हो, प्रधानमंत्री पद की प्रतिद्वंद्विता में वे आगे निकलें या राहुल गांधी, देश को उनकी इस प्रतिद्वंद्विता का इस रूप में फायदा मिल सकता है कि विपक्ष को इस सवाल के सामने चुप्पी नहीं साधनी पड़े कि मोदी नहीं तो कौन?
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(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)