गुलाम नबी आजाद ने आजकल राजनीतिक गलियारों में थोड़ी हलचल मचा रखी है. 72 साल की उम्र में कुछ कर दिखाने के जज्बा उनमें साफ नजर आता है. जम्मू-कश्मीर में अपनी जनसभाओं में वह अच्छी-खासी भीड़ जुटा रहे हैं. उन्होंने 16 नवंबर से 4 दिसंबर के बीच 10 जनसभाओं को संबोधित किया है जिनमें से दो घाटी में हुई थीं.
हालांकि, आजाद सिर्फ इन जनसभाओं में बड़ी तादात में लोगों के जुटने के कारण ही सुर्खियों में नहीं हैं. अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर का खास दर्जा खत्म होने के बाद अब पहली बार शीर्ष नेताओं ने सड़कों पर उतरना शुरू किया है. और लोग इसे लेकर काफी उत्साहित हैं. एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला की जनसभाओं में भी बड़ी भीड़ जुट रही है.
दरअसल, सुगबुगाहट तो इस बात को लेकर शुरू हुई है कि कैसे आजाद अब राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा का नाम तक नहीं ले रहे हैं.
उन्होंने एनडीटीवी से कहा, ‘आज (गांधी परिवार के बारे में) कुछ न बोलने भर से आप कुछ और नहीं हो जाते हैं.’ वह स्पष्ट करते हैं कि लगभग पांच दशकों से कांग्रेस में हैं और आगे भी रहेंगे. उनका कांग्रेस छोड़ने और अपनी पार्टी बनाने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन साथ ही संकेत देते हैं, ‘ये तो कोई नहीं बता सकता कि राजनीति में आगे क्या होगा.’
ऐसा नहीं है कि इस बात पर किसी का ध्यान नहीं गया कि वह अपनी जनसभाओं के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पर सियासी हमलों से गुरेज करते हैं. आजाद इसके बजाये विकास और रोजगार के मुद्दों को लेकर उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के नेतृत्व वाले केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन पर सवाल उठा रहे हैं. वह सीधे तौर पर सिन्हा पर भी निशाना नहीं साधते.
यद्यपि, वह लोगों को यह तो बता रहे हैं कि कैसे उन्होंने संसद में अनुच्छेद 370 को हटाने का विरोध किया था, लेकिन वह इसकी बहाली की बात नहीं करते. इसकी जगह वह इसे सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ने और राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए लड़ने पर जोर देते हैं. जाहिर है भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को इन सब बातों पर कोई आपत्ति नहीं होगी.
आखिर, आजाद चाहते क्या हैं? गांधी परिवार के प्रति बेहद निष्ठावान आजाद के उन 22 नेताओं के साथ खड़े होने के फैसले ने सबको हैरानी में डाल दिया था जिन्होंने अगस्त 2020 में सोनिया गांधी को एक विवादास्पद पत्र लिखा था. शायद, उन्हें इसका आभास था कि राहुल गांधी उनकी जगह मल्लिकार्जुन खड़गे को राज्यसभा में नेता विपक्ष बनाना चाहते हैं. कांग्रेस ने जून 2020 में खड़गे को उच्च सदन के लिए नामित किया था. आजाद की आशंका सही ही साबित हुई क्योंकि कांग्रेस आलाकमान ने फरवरी 2021 में उनका राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने पर उनके फिर से निर्वाचन के लिए कुछ नहीं किया.
यदि आप मौजूदा समय में कांग्रेस नेताओं से आजाद के बारे में पूछें तो वे आपको गत फरवरी में राज्यसभा से उनकी विदाई के दौरान प्रधानमंत्री मोदी की कही बातों को याद दिला देंगे. मोदी ने उस समय आखों में आंसू भरकर रुंधे गले से कहा था, ‘मैं आपको रिटायर नहीं होने दूंगा… मेरे दरवाजे हमेशा आपके लिए खुले हैं.’
उस समय आजाद की आंखों में भी आंसू आ गए थे. इस घटना को करीब 10 महीने बीत चुके हैं. लेकिन मोदी के वो शब्द आज भी कांग्रेस के गलियारों में गूंजते रहते हैं.
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गुलाम नबी आजाद के लिए क्या है पुश फैक्टर
क्या आजाद कांग्रेस के लिए एक और अमरिंदर सिंह बन सकते हैं? पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री के विपरीत—जिन्होंने 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद कांग्रेस छोड़ दी थी और फिर 14 साल बाद पार्टी में लौटे—आजाद अपनी पांच दशक लंबी राजनीति में हमेशा कांग्रेस के ही साथ रहे हैं. यही नहीं, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री को निश्चित तौर पर गांधी परिवार का वरदहस्त हासिल होने का पूरा लाभ भी मिला है. उनका सियासी कैरियर इस बात का गवाह है. महाराष्ट्र से लोकसभा चुनाव जीतने के दो साल बाद 1982 में इंदिरा गांधी ने उन्हें बतौर उपमंत्री अपनी सरकार में शामिल किया था. इसके बाद से वह कांग्रेस के नेतृत्व वाली हर सरकार में मंत्री रहे. अगर लगभग तीन साल का समय छोड़ दिया जाए तो वह 1990 से 2021 तक राज्यसभा में रहे, और तीन साल का यह अंतराल भी इसलिए क्योंकि इस दौरान उन्हें जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बनाया गया था. 1987 में राजीव गांधी की तरफ से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के महासचिव नियुक्त किए और वह देश के लगभग हर सूबे और केंद्र शासित प्रदेश का प्रभार संभाल चुके हैं. वह 1987 से ही कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) के सदस्य हैं.
कांग्रेस में गांधी परिवार के वर्चस्व के साथ इतने लंबे समय तक सत्ता का लाभ उठाने वाले किसी व्यक्ति के लिए कांग्रेस छोड़ने की संभावना पर कुछ भी कहना अभी अटकलबाजी ही होगा. लेकिन गांधी परिवार के कट्टर वफादार माने जाने वाले कई ऐसे नेता मिल जाएंगे जिन्हें सत्ता सुख के बिना जीवन में आगे बढ़ना रास नहीं आया. इस बात को आजाद से बेहतर कौन जानता होगा कि यदि आप गांधी परिवार पर निशाना साधते हैं तो आपके पास एग्जिट प्लान तैयार होना चाहिए. इसके बावजूद वह कई बार ऐसा करते रहते हैं और वह भी सार्वजनिक तौर पर.
अमरिंदर सिंह और आजाद के मामले में समानताओं का आकलन करना भी काफी रोचक हो सकता है. दोनों को गांधी परिवार के खिलाफ बगावत से बाज आने के स्पष्ट संकेत दिए गए थे. जी-23 की तरफ से सोनिया गांधी को पत्र लिखे जाने के एक महीने बाद ही आजाद को एआईसीसी महासचिव पद से हटा दिया गया. छह महीने बाद वह राज्यसभा से बाहर हो गए. पिछले महीने उन्हें पार्टी की अनुशासन समिति से भी बाहर कर दिया गया.
पंजाब में गांधी परिवार की तरफ से अमरिंदर के विरोधी नवजोत सिंह सिद्धू को राज्य कांग्रेस प्रमुख नियुक्त किए जाने के बाद मुख्यमंत्री की सियासी पारी का पतन शुरू हुआ था. गांधी परिवार जम्मू-कश्मीर कांग्रेस प्रमुख गुलाम अहमद मीर का समर्थन करता रहा है, जो आजाद विरोधी हैं. चार पूर्व मंत्रियों और तीन विधायकों सहित आजाद के करीबी 20 वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने पिछले माह मीर को हटाने की मांग करते हुए इस्तीफा दे दिया था. गांधी परिवार ने इसका जवाब उन्हें अनुशासन समिति से हटाकर दिया.
क्या कैप्टन के रास्ते पर चल सकते हैं आजाद?
आजाद स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि उनका नई पार्टी बनाने का कोई इरादा नहीं है. लेकिन खुद ही यह तर्क भी देते हैं कि कोई नहीं जानता कि राजनीति में आगे क्या होगा. ऐसे में एक नजर डालते हैं कि उनके पास क्या विकल्प हो सकते हैं. एक तरफ जहां अमरिंदर सिंह कभी भी राज्य की राजनीति से दूर नहीं रहे, वहीं, आजाद हमेशा ‘दिल्ली वाले नेता’ रहे हैं, खाली उन तीन सालों (2005-2008) को छोड़कर जो उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री कश्मीर में बिताए. 2008 से वह राज्य में अपने समर्थकों का दायरा बढ़ाते रहे हैं लेकिन खुद दिल्ली में ही रहे. अमरिंदर सिंह के मामले में कई चीजें उनके पक्ष में रही हैं—मसलन किसानों के आंदोलन को उनका समर्थन, सीमावर्ती राज्य की सुरक्षा से जुड़े मसलों पर उनका प्रतिबद्ध रुख और अलगाववादी सिखों के साथ अरविंद केजरीवाल की कथित नजदीकी को लेकर हिंदुओं में बढ़ती नाराजगी आदि.
बहरहाल, संसाधनों की जरूरत और एक नया राजनीतिक संगठन खड़ा करने की चुनौतियों के लिहाज से अमरिंदर सिंह तो भाजपा के बिना अकेले चल सकते थे. लेकिन जम्मू-कश्मीर में आजाद के लिए ऐसा बहुत संभव नहीं है. दरअसल, अमरनाथ भूमि विवाद—जिसकी वजह से उनकी सरकार गिरी थी—को आज भी लोगों ने पूरी तरह भुलाया नहीं है. हो सकता है कि वह अपनी जनसभाओं में अच्छी भीड़ जुटाने में कामयाब रहे हों, लेकिन फिर भी यह उन्हें एक ऐसा जननेता नहीं बनाता है जो चुनाव का रुख मोड़ सके.
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आजाद के पास खोने के लिए कुछ नहीं
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री के पास कोई ज्यादा विकल्प नहीं हैं. वह कांग्रेस में ही बने रह सकते हैं लेकिन ऐसे में उन्हें एक तरह से अपना रिटायरमेंट स्वीकार करना होगा. दूसरा विकल्प यह है कि वह गांधी परिवार की तरफ से वास्तविकता को स्वीकार करने और कांग्रेस को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी मानना बंद करने का इंतजार करें. लेकिन इसके आसार हैं नहीं. तीसरा, फरवरी में राज्यसभा से अपनी विदाई के समय प्रधानमंत्री की तरफ से खोले गए रास्ते का उपयोग करें और एक नया राजनीतिक संगठन बनाएं.
पंजाब में अमरिंदर सिंह के उलट आजाद जम्मू-कश्मीर में भाजपा के साथ खुले तौर पर कोई गठबंधन नहीं कर सकते, लेकिन दोनों के बीच एक मौन सहमति बन सकती है. भाजपा जानती है कि पंजाब की तरह जम्मू-कश्मीर में भी वह अपने दम पर सरकार नहीं बना सकती. उसे किसी न किसी सहयोगी की जरूरत पड़ेगी. अपनी पार्टी का विस्तार अभी तक भाजपा नेतृत्व को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया है. आजाद व्यक्तिगत स्तर पर जम्मू-कश्मीर में भले ही कोई बहुत बड़ा कद न रखते हों लेकिन एक संगठन के नाते कांग्रेस में उनके काफी समर्थक हैं.
घाटी में मुख्यधारा के क्षेत्रीय दलों से लोगों का मोहभंग हो जाने के मद्देनजर आजाद की नई पार्टी के पास दूसरों की तरह ही अच्छे या खराब प्रदर्शन का समान मौका होगा. जम्मू क्षेत्र में भाजपा की मदद से वह बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद कर सकते हैं. इससे केंद्र शासित प्रदेश में भाजपा की सत्ता के दरवाजे भी खुलेंगे.
यह भाजपा और आजाद दोनों के लिए ही फायदे की स्थिति होगी क्योंकि दोनों में से किसी के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. आजाद का नया राजनीतिक संगठन अगर बहुत आगे नहीं भी जा पाता है तो भी वह जम्मू-कश्मीर के बाहर किसी न किसी रूप में इनाम की उम्मीद तो कर ही सकते हैं. फिलहाल, तो उनके लिए यही देखना बेहतर होगा कि पंजाब चुनावों में अमरिंदर सिंह का भाजपा के साथ संभावित गठबंधन क्या रंग लाता है.
डी.के. सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त विचार निजी हैं.
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