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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमततो क्या आज आ रहे विधानसभा चुनाव के परिणाम में फिर दौड़ेगा भाजपा का डबल इंजन

तो क्या आज आ रहे विधानसभा चुनाव के परिणाम में फिर दौड़ेगा भाजपा का डबल इंजन

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में मुंबई से शुरू हुआ विधानसभा चुनावों का सिलसिला देश के कई राज्यों तक चला और तकरीबन हर राज्य में भाजपा का डबल इंजन का नारा भी गूंजा.

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हमें एक लंबे, हाई प्रोफाइल, कई मायनों में ऐतिहासिक आम चुनाव से निवृत हुए चार महीने भी नहीं हुए और देश के कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव ने फिर से दस्तक दे दी है. निर्वाचन आयोग की तारीखों के मुताबिक अगले दो हफ्ते पूरे होने से पहले ही महाराष्ट्र और हरियाणा नई विधानसभा के स्वागत के लिए तैयार होंगे. क्षेत्रफल में एक बड़ा और दूसरा छोटा भले दिखे मगर हिंदुस्तान की सियासत में दोनों ही प्रदेश खास अहमियत रखते हैं.

राजनीतिक टिप्पणीकार पिछले कई हफ्तों से यह लिख रहे हैं कि दोनों ही राज्यों में विपक्ष का न तो मनोबल इस लायक दिख रहा है और न ही उसके तरकश में इतने तीर नज़र आ रहे हैं कि वह मोदी-शाह की जोड़ी से दो-दो हाथ कर सके. ये विश्लेषण तो चलते रहेंगे लेकिन इस लेख का मकसद आए दिन सुर्खियां बटोर रहीं विपक्ष की कमजोरियों का आंकलन करना नहीं है.

दिलचस्प पृष्ठभूमि और चुनाव

इन विधानसभा चुनावों की एक दिलचस्प पृष्ठभूमि है. ये दोनों ही राज्य ऐसे हैं जहां 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे पहले विधानसभा चुनाव संपन्न हुए. उससे पहले मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और तीन दशकों के अंतराल के बाद स्पष्ट बहुमत हासिल करने वाले पहले प्रधानमंत्री बने. उसी साल हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी स्पष्ट बहुमत से चुनाव जीत गई. यह जीत इसलिए भी हैरान करने वाली थी कि धारा के विपरीत जाकर भाजपा ने राजनीतिक रूप से वर्चस्व रखने वाले जाटों पर सबसे कम ध्यान दिया और गैर-जाटों को एकजुट करने का नया दांव खेल दिया.


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ऐसा ही एक प्रयोग पार्टी ने महाराष्ट्र में भी किया. हरियाणा की ही तरह जोखिम लेने का दम दिखाते हुए भाजपा शिव सेना से अलग चुनाव मैदान में उतरी और सबसे बड़ा दल बन गई हालांकि वह जादुई आंकड़े को छूने से जरा दूर रह गई. बाद में देवेंद्र फडणवीस ने सेना के सहयोग से सरकार बनाई. दोनों ही राज्यों में पार्टी का प्रचलित राजनीति को चुनौती देना काम आया. एक और अहम टेक-अवे यह रहा कि मुंबई में पहली दफा भाजपा के मुख्यमंत्री ने शपथ ली हालांकि पार्टी एक बार शिव सेना के साथ गठबंधन सरकार में रह चुकी थी. उधर, हरियाणा में पार्टी का सत्ता में आने का पहला मौका था.

तो ऐसा क्या था कि इन दोनों प्रदेशों के मतदाताओं ने प्रचलित ट्रेंड को सिरे से नकारते हुए भाजपा का साथ दिया? पीछे मुड़कर देखें तो लोगों को आत्मविश्वास से लबरेज नरेंद्र मोदी में कुछ कर सकने वाले नेता की छवि दिखी. उन चुनावों में खुद मोदी से लेकर भाजपा के हर बड़े छोटे नेता ने इस बात पर जोर दिया कि अगर केंद्र और राज्य में एक पार्टी की सरकारें रहीं तो तेज और निर्बाध विकास सुनिश्चित हो पाएगा. पार्टी ने इसे ‘डबल इंजन‘ का नाम दिया. जिसने भी प्रचार के लिए यह मुहावरा तैयार किया हो उसे यह अहसास होगा कि छोटे शहरों और देहातों वाले इस देश में लोगों के मन में रेलवे से विशेष लगाव रहता है.

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अब इस साल में लौटें तो पिछले महीने 7 सितंबर को प्रधानमंत्री मोदी ने रोहतक में बड़ी जनसभा में फिर से डबल इंजन की अहमियत को दोहराने का काम किया. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि किस तरह चंडीगढ़ और दिल्ली में समान सरकार के चलते बरसों से लंबित विकास कार्यां को गति दी गई और तेजी से काम बढ़ा.

भाजपा का डबल इंजन का नारा 

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में मुंबई से शुरू हुआ विधानसभा चुनावों का सिलसिला देश के कई राज्यों तक चला और तकरीबन हर राज्य में भाजपा का डबल इंजन का नारा भी गूंजा. यह कहा जा सकता है कि इसका लाभ भी जरूर हुआ क्योंकि कुल तेरह प्रदेशों में भाजपा अपने दम पर या सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाने में कामयाब हो गई. इनमें बहुत से ऐसे राज्य हैं जहां भाजपा सत्ता में आना तो क्या चुनाव मैदान में नज़र तक नहीं आती थी जैसे कि पूर्वोत्तर में त्रिपुरा. वास्तव में यह भाजपा के भौगोलिक विस्तार का दौर रहा.

इस लिहाज से देखें तो एक बार फिर मोदी-शाह की जोड़ी का डबल इंजन के नारे पर जोर देना राजनीतिक रूप से स्वाभाविक है. आखिर भाजपा को एक तरफ अनुच्छेद 370 व मजबूत नेतृत्व जैसे राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे तो दूसरी ओर सड़क, पुल, स्वच्छता, स्वास्थ्य और कनेक्टिविटी जैसे स्थानीय मुद्दों को मिलाकर एक संतुलित और व्यापक चुनाव अभियान तैयार करना है.

कुछ राज्यों के कामकाज पर नजर डालें तो भाजपा के पास अपने डबल इंजन वाले दावे का समर्थन करने के लिए कई कारण मिल जाएंगे. इनमें नमामि गंगे, पीएम-किसान, आयुष्मान भारत जैसी कुछ बडी राष्ट्रीय योजनाओं का उदाहरण हैं तो कहीं सादिया और बोगीबिल जैसी दशकों से धूल फांक रही राज्यस्तर की परियोजनओं की मिसाल. एक महत्वाकांक्षी और विस्तारित प्लान होते हुए भी केंद्र सरकार गंगा के किनारे सिवेज ट्रीटमेंट के प्लांट बनाने को लेकर तब तक एक कदम नहीं बढ़ा पाई जब तक उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार रही. इसका कारण केवल यह था कि संबंधित विभाग के मंत्री आजम खान इसके लिए जमीन मुहैया नहीं करा पाए. यूपी की ही एक और मिसाल है काशी विश्वनाथ कॉरिडोर. एक ऐतिहासिक क्षेत्र में अतिक्रमण दूर करने, अवैध निर्माण और सौंदर्यीकरण की योजना पर तब तक काम शुरू नहीं हो पाया जब तक योगी आदित्यनाथ ने वहां शपथ नहीं ले ली.


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हालांकि सभी उदाहरण प्रदेश की परियोजनाओं तक ही सीमित नहीं हैं. पश्चिम बंगाल, दिल्ली और कुछ समय तक तो ओडिशा जैसे राज्य ने भी आयुष्मान भारत योजना का लाभ यह कह कर देने से साफ इंकार कर दिया कि उनकी सरकारें पहले ही ऐसी योजना चला रही हैं. और पीएम-किसान योजना के मामले में तो परिस्थिति और भी जटिल हो गई. कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों के मुखिया औपचारिक रूप से तो योजना का समर्थन करते रहे लेकिन लंबे समय तक लाभार्थी किसानों की सूची ही नहीं भेजी. यह योजना गरीब किसानों को आर्थिक सहायता देने के लिए बनाई गई थी जो अब सभी वर्ग के किसानों पर लागू कर दी गई है.

यह मिसालें भाजपा के डबल इंजन के दावे को मजबूती देती हैं और उसे यह मौका देती हैं कि वह चुनाव प्रचार मेंं इस नारे को पूरे जोर शोर से दोहराए. इसमें जोखिम केवल यह है कि जहां पहले से डबल इंजन चल रहा है वहां के प्रदेश नेतृत्व में एक शिथिलता का भाव आने का खतरा है क्योंकि प्रदेश नेतृत्व इस भरोसे रह जाता है कि केंद्र की ताकत तो उसे जिता ही देगी. विस्तृत आंकलन में यह पता चला है कि छत्तीसगढ़ और राजस्थान की हार और मध्य प्रदेश में आते-आते सत्ता चूक जाने के पीछे एक बड़ी वजह यह शिथिलता भी थी. और शायद यहीं विपक्षी खेमे का बिखराव भाजपा के काम आ जाए.

(लेखक प्रसार भारती में सलाहकार हैं और करंट राजनीति पर लिखती हैं, यह लेख उनके निजी विचार हैं )

(यह लेख सात अक्टूबर को प्रकाशित किया जा चुका है)

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