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Thursday, 21 November, 2024
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ओबीसी आरक्षण पर भूपेश बघेल का दांव क्या राजनीति की दिशा बदल सकेगा?

ओबीसी की राजनीतिक चेतना में जब तक अधिकार और हिस्सेदारी का सवाल महत्वपूर्ण नहीं होता, तब तक सिर्फ आरक्षण देकर उन्हें साम्प्रदायिक होने से रोका नहीं जा सकता.

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छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण को बढ़ाने की घोषणा कर के बड़ा दांव चला है. लेकिन सवाल है कि उनके इस कदम से पिछड़ी जातियों का कितना राजनीतिकरण होगा और क्या वे अपने वास्तविक सरोकारों के मुताबिक राजनीति की दिशा तय करेंगे? छत्तीसगढ़ में अब तक पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों और राज्य सरकार के शिक्षा संस्थानों में 14 प्रतिशत आरक्षण मिलता रहा है, जिसे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 27 फीसद करने की घोषणा की है.

इस तरह छत्तीसगढ़ में कुल 72 फीसदी आरक्षण हो जाएगा क्योंकि एससी का आरक्षण भी उनकी आबादी के अनुपात में बढ़ाकर 13 फीसदी कर दिया गया है. वहां आदिवासियों को पहले से ही 32 फीसदी आरक्षण मिलता रहा है. इससे पहले मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ भी राज्य में ओबीसी आरक्षण 14 परसेंट से बढ़ाकर 27 परसेंट कर चुके हैं.

पिछले तीन-चार दशक से देश की राजनीति में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण एक बड़ा मुद्दा रहा है. जब भी किसी सरकार ने इसे लागू करने की कोशिश की, अगड़ी सवर्ण जातियों की ओर से इसका तीखा विरोध हुआ. इसके अलावा, जाति-आधारित आरक्षण को खत्म करने की मांग करते हुए सवर्ण जातियों ने दबाव बनाए रखा. इस क्रम में कई बार इन जातियों की ओर से दलित-पिछड़ी जातियों से आने वाले नेताओं के लिए बेहद क्रूर, संवेदनहीन और अमानवीय टिप्पणियां भी की गईं.

आरक्षण पर बीजेपी और आरएसएस का रुख

आरक्षण के इस विरोध को आरएसएस-भाजपा ने आमतौर पर हमेशा ही नुमाइंदगी दी. 2015 में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने तो यहां तक कह दिया था कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए. हालांकि तब लालू प्रसाद ने भागवत के बयान को राजनीतिक मुद्दा बना दिया था और बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा की करारी हार के बाद आरक्षण-विरोध की आवाजें दब गई थीं. बल्कि यहां तक दावा किया जाने लगा कि आरक्षण को कोई खत्म नहीं कर सकता. विरोध के स्वर हाल के महीनों तक बने रहे, जब तक कि सवर्ण जाति से आने वाले कथित गरीबों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था नहीं लागू कर दी गई.


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पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के आलोक में यह मांग भी बनी हुई है कि जाति-जनगणना के तहत इन जातियों की गिनती करा कर आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी दी जाए. लेकिन, सचेतन स्तर पर जाति-जनगणना के काम को एक तरह से बाधित करके रखा गया है. यह किसी से छिपा नहीं है कि 1990 के बाद से अगर भारतीय और खासकर उत्तर भारत के राज्यों की राजनीति में उच्च जातियों का वर्चस्व फिर से कायम नहीं हो सका है तो इसके पीछे सबसे बड़ी वजह पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का मुद्दा रहा है.

इस हकीकत को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ठीक से समझा था. यही वजह है कि जमीनी स्तर पर से लेकर शीर्ष स्तर पर भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग के समांतर आरएसएस के बीच से ‘ओबीसी नेतृत्व’ को उभारा. इसका उसे काफी भारी पैमाने पर फायदा भी मिला.

सांप्रदायिकता से आरक्षण की काट

लेकिन इसके अलावा इस बीच जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम हुआ, वह था जमीनी स्तर पर धार्मिक गतिविधियों की निरंतरता, जिसमें मकसद था ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल कराना. इसके जरिए सांप्रदायिकता की हद तक आक्रामक धार्मिकता के उभार की हवा तैयार की गई, उसमें लोगों का ध्यान बंटाया गया, राजनीतिक चेतना के निर्माण की प्रक्रिया को बाधित किया गया और बहुत धीरे से आरक्षण की व्यवस्था को कमजोर करने की कोशिश की गई. हालत यह है कि समूचे तंत्र में अपनी भागीदारी की प्रक्रिया को बाधित किए जाने के बावजूद पिछड़ी जातियों का एक बड़े हिस्से ने आक्रामक हिंदुत्व की शरण को कबूल कर लिया. यह कथित पिछड़ी जाति से नेतृत्व परोसने से लेकर धार्मिकता के उभार के जरिए जाति-व्यवस्था की वंचना के सवाल को दफ़न करने या दबाने के जरिए संभव हुआ.

तो अब सवाल है कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण में बढ़ोतरी की घोषणा करके क्या भागीदारी के अधिकार को सुनिश्चित करने की कोशिश की है या फिर सिर्फ इस आरक्षण लागू करने की व्यवस्था करने के बाद इऩ जातियों को राजनीतिक यथास्थिति से बाहर लाने की भी उनकी योजना है!

भूपेश बघेल के सामने चुनौती

इतना तय है कि बगैर ओबीसी की राजनीतिक दिशा को आरएसएस-भाजपा की ओर से मोड़े, आरएसएस का रथ रुकने वाला नहीं है! भूपेश बघेल ने ओबीसी को कांग्रेस की ओर लाने की एक कोशिश की है! लेकिन समाजीकरण में अगर ब्राह्मणवाद और सांप्रदायिकता घुसी रहेगी तो यह आरक्षण भी बहुत दिनों तक उन्हें रोक नहीं पाएगा! यह ध्यान रखने की जरूरत है कि कोई भी समाज विचारधारा से ही संचालित होता है. एक ठोस और प्रतिबद्ध राजनीति अपनी विचारधारा को समाज में प्रसार देती है, वैसा ही समाज बनाती है.

इस लिहाज से देखें तो पिछले दो-ढाई दशक के दौरान आरएसएस ने इस बात की कोई फिक्र नहीं की कि उसके प्रतिद्वंद्वी उसके राजनीतिक व्यवहार को कैसे देखते हैं. अब भी तय लग रहा है कि भूपेश बघेल के ताजा दांव के बाद ओबीसी को थामे रखने के लिए आरएसएस और भाजपा किसी भी हद तक जाएगी, क्योंकि यही तबका उसके लिए असली जमीन की भूमिका में है!

आरएसएस की राजनीति स्पष्ट है. समाज की जिन जातियों की राजनीतिक चेतना ब्राह्मणवाद के लिए चुनौती बन सकती है, उन सब को या तो जाति के प्रश्न से हटा कर धर्म से जुड़ी गतिविधियों में लिप्त कर दिया जाए या उन्हें अलगाव में डाल दिया जाए. सवाल है कि ओबीसी के खिलाफ आरएसएस-भाजपा के खेल को ओबीसी कैसे समझें, विपक्षी पार्टियों के पास इसके लिए क्या एक्शन प्लान है?


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दरअसल, राजनीतिक चेतना के बिना किसी अधिकार की उम्र बहुत कम होती है. पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के साथ-साथ समांतर स्तर पर अगर बराबरी और अधिकार की चेतना के विकास के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम नहीं किया गया, तो पारंपरिक रूप से जिनके अवचेतन में धर्म और पारलौकिक सुख घोला गया है, वे धार्मिक राजनीति के जंजाल में फंसने के सबसे आसान पात्र साबित होंगे. आरक्षण की सुविधा उठाने वालों का एक दायरा होता है, बाकी ज्यादातर को धर्म के व्यापक जाल में फंसा कर पारलौकिकता के अंधेरे कुएं में धकिया दिया जाता है! ओबीसी या तमाम गैर-सवर्णों के सोचने का सिरा जब तक इस जंजाल से बाहर या इतर शिफ्ट नहीं होगा, तब तक इनका कोई दीर्घकालिक हल नहीं निकलने वाला!

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)

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