scorecardresearch
Wednesday, 24 April, 2024
होममत-विमतये जाति की राजनीति का अंत है या फिर जाति और धर्म के कॉकटेल की शुरुआत 

ये जाति की राजनीति का अंत है या फिर जाति और धर्म के कॉकटेल की शुरुआत 

क्या वाकई भाजपा के नेतृत्व में जातिवाद की राजनीति खत्म हुई है, या फिर जातीय राजनीती इस आम चुनाव में किसी और रूप में प्रकट हुई है.

Text Size:

देश में आम चुनाव के नतीजों की अकादमिक व्याख्या का काम जारी है. इस क्रम में एक एनालिसिस बार-बार की जा रही है कि इस चुनाव में जाति की राजनीति का अध्याय खत्म हो गया है. भाजपा के प्रचंड बहुमत और खासकर उत्तर भारत में उसकी जीत को मंडल राजनीति और बहुजन राजनीति के अंत के रूप में देखा जा रहा है. बीजेपी ने भी अपनी जीत को राष्ट्रवाद और विकास की राजनीति की जीत करार दिया है. नरेंद्र मोदी ने कहा है कि वे आगे भी विकास पर अपना फोकस बनाए रखेंगे.

राजनीति में जाति के महत्व पर अत्यधिक बल देने वालों को नसीहत देते हुए समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता ने एक लेख इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में लिखा हैइस लेख में प्रोफेसर गुप्ता बताते हैं कि जो लोग ये मानते हैं कि भारतीय राजनीति केवल जातीय समीकरण से चलती है, वे अपने आकलन में दो गलतियां करते हैं.

जातियों में अपनापन नहीं, आपसी जलन है पहली गलती तो ये है कि जाति समीकरण बनाते वक़्त राजनीतिक विश्लेषक जाति क्रम में लगभग आस-पास खड़ी जातियों को एक साथ जोड़कर देखते हैं. उनसे एक जैसे राजनीतिक व्यवहार की उम्मीद करते हैं. मिसाल के तौर पर कृषक वर्ग की जातियां जैसे जाटगुर्जर और यादव या फिर अति पिछड़े वर्ग की जातियों को राजनीतिक विश्लेषक हमेशा एक साथ वोट करता हुआ मानते हैं. जबकि, गुप्ता का अपना शोध ये दर्शाता है कि ये जातियां एक दूसरे के प्रति मान-सम्मान न रखकर, एक दूसरे से एक चिढ़ रखती हैं और एक दूसरे से प्रतियोगिता करती हैं. इस कारण इनका साथ आना लगभग असंभव होता है.


यह भी पढ़ें : जाति और वर्ग की दुविधा में विलोप की ओर बढ़ता भारतीय वामपंथ


कोई जाति अपने दम पर कोई सीट नहीं जिता सकती: गुप्ता के अनुसार, राजनीतिक विश्लेषकों से दूसरी गलती ये होती है कि वे किसी एक सीट पर किसी खास जाति का प्रभाव निर्णायक मानकर उसे जाति बहुल सीट करार देते हैं. गुप्ता कहते हैं कि देश में किसी भी संसदीय क्षेत्र में किसी भी एक जाति का 20 प्रतिशत से ज्यादा वोट नहीं है. फिर भी, राजनीतिक जानकार किसी इलाके को जाट लैंड तो किसी को यादव लैंड घोषित करके किसी की जीत का अनुमान लगाते हैं. जबकि, हकीकत ये है कि किसी भी संसदीय सीट में किसी एक जाति का वोट निर्णायक नहीं होता.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

इन दो गलतियों को बताते वक़्त गुप्ता अपने पुराने शोध को दोहराते हैं कि हर जगह केवल कोई एक ही जाति शीर्ष पर नहीं रहती. बल्कि, जातीय अनुक्रम (कास्ट हायरार्की) छोटे क्षेत्र में जमीनी स्तर पर तय होती है और ऐसा करने में जमींदार और रसूखदार जातियां अपने आप को ब्राह्मण जाति से हमेशा ऊपर रखती हैं.

 तो क्या सचमुच जाति का प्रभाव राजनीति से ख़त्म हो गया है, जैसा कि दीपांकर गुप्ता से लेकर बीजेपी के नेता बताना चाहते हैं? उनके हिसाब से भारतीय राजनीति को अब नए मानकों से समझा जाना चाहिए. उनकी इस स्थापना को लेकर पांच सवाल उठते हैं, जिनके उत्तर मिलने के बाद ही इस बारे में कोई राय निर्धारित की जानी चाहिए.

1. अगर प्रोफेसर गुप्ता की बातों को ध्यान में रखा जाए, तो लगेगा कि वाकई राजनीती से जातीय प्रभाव बिलकुल ख़त्म हो गया है. इसके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क तो ये दिया जा रहा है कि बीजेपी ने 17 राज्यों में 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल किया है. ऐसा कहने वालों की स्थापना ये है कि सपा, बसपा या आरजेडी या आरएलडी जैसी पार्टियां तो जातीय पार्टियां हैं. लेकिन, बीजेपी जातीय पार्टी नहीं है. यह अपने आप में एक विवादित तथ्य (कंटेस्टेड टर्म) है. किसी संसदीय या विधानसभा सीट में चुनाव जीतने के लिए एक जाति का वोट काफी नहीं है. अगर दीपांकर गुप्ता की इस स्थापना को सपा, बसपा, आरजेडी या आरएलडी पर लागू करें. तो अब तक उनके जो एमपी, एमएलए अब तक जीतते रहे हैं, वो किसी एक जाति के वोट से नहीं जीते हैं. इसलिए इन पार्टियों को जातिवादी पार्टी करार देने से पहले ऐसा कहने का ठोस कारण बताया जाना चाहिए.

2. प्रोफेसर गुप्ता कह रहे हैं कि जाति क्रम में आसपास की जातियों में आपसी टकराव और ईर्ष्या का भाव होता है और इस वजह से वे एक साथ वोट नहीं डालतीं. सवाल उठता है कि ईर्ष्या का ये भाव सिर्फ किसान जातियों या अति पिछड़ी जातियों या दलितों में ही होता है या फिर सवर्ण कही जाने वाली जातियों में भी ऐसा कोई टकराव होता है? अगर सवर्ण जातियों में भी आपसी स्पर्धा होती है तो इस बात को कैसे समझा जाए कि देश के 61 फीसदी उच्च जातियों ने बीजेपी को वोट दिया? उत्तर प्रदेश के बारे में तो ऐसा आंकड़ा भी आया है कि लगभग 80 फीसदी सवर्णों ने बीजेपी को वोट दिया. क्या दीपांकर गुप्ता ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि सवर्ण जब एकमुश्त वोट किसी पार्टी को डालें, तो वो जातिवाद नहीं हैप्रोफेसर गुप्ता से उम्मीद की जाति है कि इस बिंदु को वे अपने अगले लेख में स्पष्ट करेंगे.


यह भी पढ़ें : यूपी-बिहार अब खारिज कर रहे जाति की सियासत


3. इसका मतलब ये है कि जाति क्रम में आसपास वाली जातियों में भी एकजुटता हो सकती हैंजिसके भिन्न-भिन्न कारण हो सकते हैं. जातियों में राजनीतिक निकटता का जो सबसे प्रमुख कारण है. वह ये कि सत्ता में भागीदारी और पावर शेयरिंग अपने आप में एक सिद्धांत बन जाता हैजो मोटे तौर पर जातियों के लोगों को फायदा पहुंचता है. नजदीक की जातियों में एकता हो सकती है. मौजूदा चुनाव में ये एकता सवर्ण कही जाने वाली जातियों में दिखी है. चरण सिंह जैसे बड़े किसान नेता के लिए भी जगर (मुस्लिम, अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत) समीकरण ने काम किया था. इस समीकरण का आधार किसान जातियों की एकता थी. इसी तरह सवर्ण जातियां भी सत्ता में भागीदारी बढ़ाने के लिए एकजुट हो सकती है. आरक्षण के सवाल पर 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में यादव, कुर्मी, कुशवाहा समेत कई पिछड़ी जातियां एकजुट हो गई थीं. बीएसपी भी एक समय में लगभग सभी दलित जातियों को एक साथ जोड़ पाई थी. इसका मतलब ये नहीं है कि इनके बीच अंतर्विरोध खत्म हो गए, लेकिन साझा हित और पावर शेयरिंग के लिए एक समान जातियों की एकता पहले भी बनती रही है इस बार भी यही हुआ है. खास बात ये है कि इस बार सवर्णों ने एकजुटता दिखाई है.

4. प्रोफेसर गुप्ता की इस बात को भी तथ्यों के आधार पर परखा जाना चाहिए कि जाति बहुल सीट जैसा कुछ नहीं होता. उनकी ये बात आंकड़ों से सिद्ध की जा सकती है कि किसी भी संसदीय सीट पर एक जाति की संख्या 20 परसेंट से ज्यादा नहीं है. हालांकि, जाति जनगणना के अभाव में ऐसे किसी क्लेम पर विवाद हमेशा रहेगा. फिर भी अगर गुप्ता की इस बात को मान लें तो भी कई सीटों पर एक जाति के ज्यादा असर की बात से इनकार नहीं किया जा सकता. मिसाल के तौर पर, यूपी की मुजफ्फरनगर सीट पर पक्ष और विपक्ष दोनों से जाट कैंडिडेट का होना या बिहार के मधेपुरा में भी दोनों पक्ष से यादव उम्मीदवार का होना कोई संयोग नहीं है. ये तो मुमकिन है कि एक जाति के वोट से उम्मीदवार जीत नहीं सकता, लेकिन इसी आधार पर ये भी कहा जा सकता है कि भारत में कोई भी पार्टी, जो चुनाव जीतती रही है, सिर्फ एक जाति की पार्टी नहीं है.

5. आखिरी बात जो प्रोफेसर गुप्ता ने जातीय राजनीति के अपने आकलन में हमें नहीं बताई, वह ये कि धर्म किस प्रकार जातिगत राजनीति को प्रभावित करता है. गुप्ता के अनुसार इस बार भी काफी दलित पिछड़ों ने बीजेपी को वोट दिया है. मगर क्या इससे ये माना जाए कि जाति की राजनीति ख़त्म हुई है. कहीं ऐसा तो नहीं कि धर्म और विकास के लुभावने मिश्रण ने सभी वर्गों के लोगों को बीजेपी की ओर आकर्षित किया है. विकास की होड़ के साथ, मुसलमानों से डर या उनसे नफरत वह बिंदु तो नहीं, जहां कई तरह के सामाजिक समूह एकजुट होकर बीजेपी के साथ खड़े हो गए हैं. सवाल तो ये भी पूछा जाना चाहिए कि गरीब और अमीर सवर्णों ने एक साथ वोट क्यों डाला. उसी तरह ये भी पूछा जा सकता है कि हिंदू और मुसलमानों के जिन तबकों में आर्थिक स्तर पर फर्क कम हैं और जिनके साझा आर्थिक हित हैं, उन्होंने एक साथ मतदान क्यों नहीं किया.

भारत में राजनीति और जाति के अंतर्संबंधों पर बात करते हुए धर्म के पहलू को छोड़ा नहीं जा सकता है. वैसे भी दक्षिण एशिया में धर्म और जाति जिस तरह जुगलबंदी करके चलते हैं, उसमें ये मानना भूल होगी कि राजनीति में ये अंतर्संबंध काम नहीं करता होगा.

(लेखक आईआईटी दिल्ली से पीएचडी कर रहे हैं)

share & View comments