अखिलेश यादव ने जब अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की थी, तब उनके ऊपर पिता मुलायम सिंह यादव की गहरी छाया थी. जैसा कि भारत के राजनीतिक परिवारों में होता है, पिता ने पुत्र को राजनीति के गुर सिखाए, संपर्कों और संसाधनों से परिचय कराया और वह सब पुत्र के हवाले कर दिया. लेकिन इस क्रम में मुलायम सिंह ने एक ऐसा बोझ भी अखिलेश यादव के कंधे पर लाद दिया, जिसे वे अब तक पूरी तरह उतार नहीं पाए हैं. अखिलेश को विरासत में मुलायम सिंह का अर्जित किया हुआ अच्छा और बुरा दोनों हासिल हुआ है. जिस बोझ की बात हो रही है, वह मुलायम की विरासत का बुरा हिस्सा है.
वह विरासत है सपा और दलितों की जानी दुश्मनी. अखिलेश जब राजनीति करने उतरे तो, बिना उनके किसी दोष के, उन्हें प्रदेश के 21 फीसदी दलितों की दुश्मनी झेलनी पड़ी. सपा का राजनीतिक गणित इन 21 प्रतिशत दलितों को माइनस करके चला आ रहा था. लगभग उसी तरह जैसे बीजेपी मुसलमानों को अपने राजनीतिक गणित से माइनस करके चलती है.
सपा और दलितों में क्यों आई कड़वाहट?
सपा और दलितों की दुश्मनी का इतिहास लगभग 25 साल पुराना है. 6 दिसंबर, 1992 को बीजेपी समर्थकों ने यूपी में तत्कालीन बीजेपी सरकार के अप्रत्यक्ष सहयोग से बाबरी मस्जिद गिरा दी थी. इसकी प्रतिक्रिया में केंद्र सरकार ने यूपी सरकार को भंग कर दिया. अगले साल यानी 1993 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की लहर का सामना करने के लिए सपा नेता मुलायम सिंह और बसपा नेता कांशीराम ने हाथ मिला लिया. सपा और बसपा के उस गठबंधन ने यूपी में राम लहर को रोक लिया. ये नारा तभी का है- मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम!
लेकिन ये दोस्ती लंबी नहीं चली. 1995 आते–आते कड़वाहट इतनी बढ़ गई कि बीएसपी ने उसी बीजेपी के समर्थन से यूपी में सरकार बनाने का फैसला कर लिया, जिसके खिलाफ सपा-बसपा गठबंधन बना था. इसी क्रम में लखनऊ का बहुचर्चित गेस्ट हाउस कांड हुआ, जिसमें सपा कार्यकर्ताओं ने बीएसपी नेताओं और मायावती पर हमला कर दिया था.
यहां से सपा और बसपा ही नहीं, उनके सामाजिक आधारों और समर्थकों के बीच भी दरार पड़ गई. सपा की सरकार आई तो बीएसपी समर्थकों को परेशान किया गया और बसपा की सरकार बनी तो सपा समर्थक पीटे गए. ऐसा लगभग दो दशक तक चला.
बीजेपी के नए उभार ने बदल दिए समीकरण
लेकिन 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की प्रचंड जीत और सपा और बसपा के लगभग सफाए ने दोनों दलों को साथ आने को मजबूर कर दिया. उपचुनावों में सपा और बसपा के बीच समझदारी बनी और सभी उपचुनावों में बीजेपी हार गई. इससे उत्साहित होकर सपा और बसपा ने लोकसभा चुनाव के लिए तालमेल किया और राष्ट्रीय लोकदल को भी साथ ले लिया.
इस गठबंधन को यूपी में 38.9 फीसदी वोट मिले, जो किसी और स्थिति में बहुत शानदार प्रदर्शन का आधार बन सकता था. लेकिन यूपी के ध्रुवीकरण वाले माहौल में बीजेपी ने 49 पर्सेंट से ज्यादा वोट हासिल किए. इस वजह से गठबंधन को 80 में से सिर्फ 15 सीटें मिलीं. सपा को पिछली लोसकभा की तरह इस बार पांच सीटें मिलीं, जबकि बसपा को पिछली बार शून्य के मुकाबले 10 सीटें. गठबंधन करने से ज्यादा फायदा बसपा का हुआ है.
गठबंधन करने से पहले, सपा और बसपा 20 से 25 पर्सेंट वोट वाली पार्टियां थीं. जाहिर है कि इस बार उनके वोट में जो इजाफा हुआ है, वह एक दूसरे के वोट ट्रांसफर होने की वजह से ही संभव हो पाया है.
बसपा ने पकड़ ली अपनी अलग राह
अब बीएसपी ने सपा से गठबंधन तोड़ लिया है और आने वाले चुनावों में अकेले लड़ने का फैसला किया है. बीएसपी का ये भी आरोप है कि सपा का यादव वोट बीएसपी को ट्रांसफर नहीं हुआ है. हालांकि नतीजों के आंकड़ों से इस बात की पुष्टि नहीं होती. गठबंधन को मिले वोट साफ दिखा रहे हैं कि सपा का यादव और पिछड़ा और मुसलमान वोट बीएसपी उम्मीदवारों को गया है. उसी तरह दलितों ने भी सपा उम्मीदवीरों को वोट दिया है. जीत उम्मीद के मुताबिक नहीं हुई, क्योंकि बीजेपी के वोट बहुत बढ़ गया.
बहरहाल, जब बीएसपी ने तय कर ही लिया है कि उसे किस रास्ते जाना है, तो सवाल उठता है कि सपा और अखिलेश यादव क्या करेंगे?
सपा यूपी की विधानसभा में प्रमुख विपक्षी दल है. सपा और बसपा ने जब 2014 या 2017 में अलग–अलग चुनाव लड़ा था तो सपा को बीएसपी से ज्यादा वोट मिले थे. सपा का 20 से 25 प्रतिशत वोट उसे प्रमुख विपक्षी दल तो बना सकता है लेकिन उसे राज्य की सत्ता तक नहीं पहुंचा सकता. यहां तक कि कांग्रेस के साथ किसी संभावित तालमेल से भी उसका चुनावी गणित खास मजबूत नहीं होता.
अखिलेश के पास क्या रास्ता है?
अखिलेश के लिए राजनीति का ये कठिन समय है लेकिन इस समय भी उन्होंने अपना संतुलन नहीं खोया है. मायावती की कटु उक्तियों के जवाब में अपनी ओर से उन्होंने कोई कड़वी या अप्रिय बात नहीं कही है. मायावती ने गठबंधन तोड़कर उन लोगों को निराश किया है, जिन्हें लगता था कि भविष्य में सपा और बसपा का गठबंधन बीजेपी को रोकेगा. अखिलेश इस समय विक्टिम नजर आ रहे हैं और इसकी सहानुभूति उन्हें मिल सकती है. अखिलेश इस समय फैली निराशा के बीच अपनी पार्टी के प्रभाव विस्तार के लिए काम कर सकते हैं.
दलितों को सपा के साथ जोड़ सकते हैं अखिलेश
इस क्रम में उनकी नजर दलितों की ओर जानी चाहिए. इस चुनाव में दलितों ने 25 साल बाद साइकिल चुनाव चिन्ह पर बटन दबाया है. इस तरह चौथाई सदी की कड़वाहट कुछ कम हुई है. कहना मुश्किल है कि दलितों ने सपा और अखिलेश यादव को उनके दलित विरोधी कार्यों के लिए माफ किया है या नहीं, लेकिन अगर अखिलेश अपनी पुरानी नीतियों के लिए माफी मांगते हैं, तो मुमकिन है कि दलित भी अपना दिल बड़ा कर लें.
इसके लिए अखिलेश यादव को अपनी पार्टी का दायरा बढ़ाना होगा. ज्यादातर यादवों को पार्टी संरचना में स्थान देने की रणनीति फेल हो चुकी है. सपा को अपने संगठन में विविधता लाने की कोशिश करनी चाहिए और इस क्रम में दलित नेताओं को महत्वपूर्ण पदों पर लाना चाहिए. उन्हें लाना एक औपचारिकता नहीं होनी चाहिए. उन्हें वास्तविक ताकत और सम्मान भी मिलना चाहिए तभी बात बनेगी.
सपा को अपनी नीतियों और विचारधारा के स्तर पर समावेशी होना पड़ेगा. दलितों और आदिवासियों के प्रमोशन में आरक्षण का बिल फाड़ना सपा की भूल थी. ये काम कांग्रेस या बीजेपी तक ने नहीं किया, लेकिन सपा ने ऐसा किया. सपा को इसका प्रायश्चित करने के लिए प्रमोशन में आरक्षण का समर्थन करना चाहिए. सपा चाहे तो यही मांग ओबीसी सरकारी कर्मचारियों के लिए भी कर सकती है.
दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की एकता का ये प्रोजेक्ट अगर अखिलेश अपने हाथ में लेते हैं तो वे राममनोहर लोहिया के उन प्रयासों को पूरा करने की दिशा में बढ़ेंगे, जो वे बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के साथ मिल कर करना चाहते थे, लेकिन बाबा साहेब की मृत्यु के कारण उस समय ये हो नहीं पाया.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)