संविधान के 103वें संशोधन के बाद भारत में अब दो तरह के आरक्षण हैं. पहला आरक्षण वह है, जिसकी व्यवस्था मूल संविधान में है. उस आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन, ऐतिहासिक रूप से छुआछूत का शिकार होना और आदिवासी होना है. इस आरक्षण का दूसरा आधार ये था कि ये वो वर्ग हैं जिनकी सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी कम है. दूसरा आरक्षण मौजूदा संविधान संशोधन के बाद आया है. ये आरक्षण उन लोगों को मिलेगा जो आरक्षण के अब तक लागू प्रावधानों के दायरे में नहीं आते और जो सरकार के तय मानकों के हिसाब से गरीब या इकोनॉमिकली वीकर सेक्सन (ईडब्ल्यूएस) हैं. इस आरक्षण के लिए ऐतिहासिक भेदभाव या पिछड़ेपन की कोई शर्त नहीं है.
वंचितों और सवर्णों के आरक्षण के लागू होने में फर्क
चूंकि भारतीय समाज भेदभाव पर आधारित है, इसलिए स्वाभाविक है कि इन दो तरह के आरक्षण के बीच भी भेदभाव है. वंचितों के लिए आरक्षण को संविधान में शामिल करने की प्रक्रिया लंबी रही. संविधान सभा में काफी लंबे सोच-विचार के बाद एससी-एसटी और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने पर सहमति बनी. अगर ओबीसी आरक्षण की बात करें, तो संविधान के अनुच्छेद 340 में इसकी व्यवस्था होने के बावजूद इसे लागू होने में 43 साल लग गए. इसके लिए तमाम तरह के सर्वे हुए, देशभर से राय ली गई. दो अलग-अलग आयोगों ने इस पर विचार किया. जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई तो मामला कोर्ट में गया और ओबीसी के क्रीमीलेयर को इससे बाहर कर दिया गया. जबकि ये आरक्षण सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए है, और अनुच्छेद 340 में आर्थिक आधार जैसा शब्द तक नहीं है. साथ ही, अदालत द्वारा लगाई गई 50 प्रतिशत की सीमा के कारण 52 फीसदी ओबीसी को सिर्फ 27 फीसदी आरक्षण ही मिल पाया क्योंकि एससी और एसटी को पहले से ही 22.5 फीसदी आरक्षण मिल रहा था.
उम्र और अटैंप्ट में छूट के मामले में भेदभाव
एससी-एसटी के आरक्षण में 1955 से ही केंद्रीय स्तर पर उम्र और अटैंप्ट में छूट दी जा रही है. ओबीसी आरक्षण में ये छूट 1995 से लागू हुई. केंद्र सरकार के कार्मिक और पेंशन विभाग का इस बारे में निर्देश है कि ‘किसी सेवा या पद में सीधी भर्ती करते हुए अधिकतम उम्र सीमा के मामले में एससी-एसटी को पांच साल और ओबीसी कैंडिडेट को तीन साल की छूट दी जाएगी.’
लेकिन ऐसी कोई छूट सवर्ण यानी ईडब्ल्यूएस आरक्षण के दायरे में आने वाले लोगों की नहीं दी जा रही है. ये आरक्षण ऐसे तमाम लोगों को मिलेगा, जो एससी, एसटी, ओबीसी नहीं हैं और जो गरीब हैं. यहां गरीब का मतलब वही है, जो सरकार ने तय किया है. मिसाल के लिए 8 लाख रुपए तक सालाना आमदनी वाले परिवारों को गरीब माना गया है. ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए लाए गए डीओपीटी के नोटिफिकेशन में उम्र या अटैंप्ट की छूट का कोई जिक्र नहीं है. यह आश्चर्यजनक है कि यूथ फॉर इक्वैलिटी, तमाम तरह की ब्राह्मण महासभाएं और करणी सेना समेत सवर्ण जाति संगठनों को ऐसी छूट न मिलने से कोई शिकायत भी नहीं है. इनमें से किसी ने इस तरह की छूट की मांग भी नहीं की है.
क्या उम्र और अटैंप्ट में छूट से एससी-एसटी-ओबीसी को कोई फायदा है?
सवाल उठता है कि ऐसी छूट सिर्फ एससी-एसटी-ओबीसी को ही क्यों दी जा रही है. इस छूट को दिए जाने के पीछे तर्क ये दिया जाता है कि सरकार एससी-एसटी-ओबीसी की भलाई के लिए ऐसा करती है, क्योंकि वे वंचित हैं और उनके साथ ऐतिहासिक भेदभाव हुआ है. उम्र की छूट से ज्यादा संख्या में कैंडिडेट प्रतियोगिता के लिए आएंगे. इस बारे में आप इस लेख को पढ़ सकते हैं.
कुल मिलाकर तर्क ये है कि वंचित होना और भेदभाव ही वो आधार है, जिसकी वजह से उम्र और अटैंप्ट में छूट दी जाती है. सवाल उठता है कि क्या गरीब सवर्णों के साथ कोई भेदभाव होता है, क्या वे वंचित हैं, क्या उनके साथ पक्षपात होता है. अगर हां, तो उन्हें उम्र और अटैंप्ट में छूट क्यों नहीं दी जा रही है. और अगर उनके साथ न भेदभाव होता है, न वे वंचित हैं और न ही उनके साथ कभी छुआछूत हुई है, तो फिर उन्हें आरक्षण दिया ही क्यों जा रहा है.
सवर्ण तो ये शिकायत भी नहीं कर सकते कि सरकारी सेवाओं में उनकी हिस्सेदारी कम है. संविधान का अनुच्छेद 16(4) आरक्षण के बारे में दो शर्तें लगाता है- सामाजिक पिछड़ापन और सरकारी सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व. सवर्ण ये दोनों शर्तें पूरी नहीं करते. सरकारी नौकरियों में एससी-एसटी-ओबीसी की संख्या के बारे में सरकार संसद में बार-बार यही कहती है कि इन तबकों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है. अगर इनका कोटा पूरा नहीं हो रहा है, तो जाहिर है कि इनके कोटे के पदों पर सवर्ण मौजूद हैं. जाहिर है कि सवर्ण आरक्षण किसी भी आधार पर तर्कसंगत नहीं है.
ये आरक्षण एक ऐसे समूह को दिया जा रहा है, जिसने इतिहास में कभी कोई वंचना नहीं झेली, जिनके साथ कोई भेदभाव नहीं होता, जिनका कोई उत्पीड़न नहीं होता और जो सरकारी नौकरियों में अपनी संख्या के अनुपात में कहीं ज्यादा हैं!
उम्र और अटैंप्ट मे दी जा रही छूट की हकीकत
अगर आप एससी-एसटी-ओबीसी कटेगरी के किसी कैंडिडेट से पूछेंगे कि ऐसी छूट चाहिए या नहीं, तो वह कहेगा – हां. क्योंकि इसकी वजह से वह प्रतियोगिता परीक्षा में ज्यादा बार बैठ पाएगा और उसके चुने जाने के मौके ज्यादा होंगे. गरीब सवर्ण को भी कायदे से इसकी मांग करनी चाहिए, लेकिन वो ऐसा कर नहीं रहा है. आखिर क्यों?
इस पहेली का राज ये है कि उम्र और अटैंप्ट में छूट दरअसल कुछ समुदायों को उच्च पदों तक न पहुंचने देने के तरीके के तौर पर इस्तेमाल की जा रही है. जो व्यक्ति सर्विस में देर से आएगा, वह कम साल नौकरी करके रिटायर हो जाएगा. सिद्धांत के तौर पर देखें तो अनरिजर्व कटेगरी का एक कैंडिडेट अगर 21 साल की उम्र में सर्विस में आता है और एससी कटेगरी का एक कैंडिडेट अगर उम्र की छूट का ‘फायदा’ उठाकर 37 साल में सर्विस ज्वाइन करता है तो एससी कैंडिडेट 16 साल कम नौकरी कर पाएगा. सर्विस का ये फर्क अनरिजर्व कैंडिडेट को सर्वोच्च पदों तक पहुंचा सकता है, जबकि रिजर्व कटेगरी का कैंडिडेट उससे पहले ही रिटायर हो चुका होगा.
इस वजह से हम लगातार ऐसी खबरें पढ़ते हैं कि भारत सरकार में सेक्रेटरी स्तर के पदों पर कोई ओबीसी अफसर नहीं है या इस उच्च स्तर पर कोई एससी-एसटी अफसर नहीं है.
इसलिए सवर्णों को ये छूट नहीं चाहिए!